01-05-2021 (Important News Clippings)

Afeias
01 May 2021
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Date:01-05-21

Sensible Suggestion From Dr Devi Shetty

ET Editorials

In India’s fight against Covid-19, the focus has been on equipment, oxygen, medication and vaccines. The state of medical personnel — doctors, nurses and aides — has escaped focus, except for individual experts such as Dr Devi Prasad Shetty. Medical manpower is likely to be the next big crisis point in India’s fight against Covid-19. The government must put augmenting healthcare manpower on the priority list as it addresses issues such as oxygen supply, availability of drugs, and beds with critical care facilities.

India need more doctors, nurses, paramedics and medical technicians to deal with the rising number of Covid cases. As more patients require critical care, there will be a need to augment the ranks of doctors and nurses. Deploying final-year student nurses and fifth-year medical students will help alleviate the pressure and augment the ranks of medical personnel. In March last year, Harsh Vardhan has suggested deploying fifth-year medical students to treat Covid patients. This requires amending regulations of the Medical Council of India. The fate of that proposal is not clear. Perhaps there were concerns about asking students to put themselves in harm’s way. The situation has changed considerably. There is no longer a shortage of protective gear and equipment; vaccines are available, nursing and medical students who volunteer to work with Covid patients can be given the first dose before being deployed.

Dr Devi Shetty, who made this suggestion last year, says India will need 2,00,000 nurses and 1,50,000 doctors to deal with the pandemic over the next year, and points out that these numbers can be found from final-year students as well as those graduates who are preparing for admission to postgraduate programmes.


Date:01-05-21

क्या भारत की वैक्सीन डिप्लोमसी भयंकर भूल साबित हुई है?

शशि थरूर, ( पूर्व केंद्रीय मंत्री और सांसद )

ठीक दो महीने पहले जब भारत ने 60 से अधिक देशों को कोविड वैक्सीन की करोड़ों खुराक भेजीं थीं तो मैंने भारत की वैक्सीन डिप्लोमेसी की प्रशंसा की थी। अब जबकि, देश में रोज साढ़े तीन लाख से अधिक कोरोना के नए मामले सामने आ रहे हैं और मरने वालों की संख्या सरकारी आकड़ों से कहीं अधिक है तो वैश्विक नेता की बात करने वाला कोई नहीं है। अगस्त तक 40 करोड़ लोगों को वैक्सीन लगाने के लक्ष्य से देश स्पष्ट रूप से पीछे दिख रहा है। कोरोना के मामलों में तेजी से बढ़ती चिंता और कोविड के नए प्रकारों पर मौजूदा वैक्सीन के प्रभावी न होने की आशंका की वजह से मुझे लगता है कि भारत जैसी अर्थव्यवस्था जो अभी पूरी तरह से उबरी नहीं, उसके सामने विकासशील देशों से किए वादों और घरेलू मांग को पूरी करने की चुनौती और बढ़ सकती है। पिछले साल महामारी की पहली लहर से उबरने के बाद भारत में इतनी जल्दी हर चीज इतनी गलत कैसे हो गई। गलतियों की सूची बहुत लंबी है। कुछ प्रतीकात्मक चीजों से शुरू करते हैं।

राष्ट्रीय टेलीविजन पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोगों से मिलकर थाली बजाने का आग्रह किया। फिर मोमबत्ती जलाने को कहा। महामारी से लड़ने में वैज्ञानिक नीतियों का स्थान अंधविश्वास ने ले लिया। दूसरी गलती विश्व स्वास्थ्य संगठन की सलाह की अनदेखी थी जिसने एक नियंत्रण रणनीति बनाने की सलाह दी थी, जिसके तहत जांच, कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग, आइसोलेशन और इलाज की जरूरत थी। फिर मार्च 2020 में चार घंटे से भी कम समय के नोटिस पर मोदी ने देश में पहला लॉकडाउन लागू कर दिया। देश के 28 राज्यों को उनकी परिस्थिति के मुताबिक रणनीति बनाने का अधिकार देने की बजाय केंद्र सरकार ने दिल्ली से आदेश देकर कोविड-19 को नियंत्रित करने का प्रयास किया, जिसके परिणाम नुकसानदायक रहे।

जैसे-जैसे संकट हाथ से निकलने लगा, केंद्र सरकार ने अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का अनुसरण करते हुए बिना पर्याप्त फंड के अधिक से अधिक जिम्मेदारियां राज्य सरकारों पर डालनी शुरू कर दीं। राज्य संसाधन जुटाने के लिए संघर्ष करने लगे। सरकार में पीएम केयर्स के नाम से एक नई राहत संस्था बनाकर उसमें भारी फंड जमा किया, लेकिन आज तक इस बात की कोई सार्वजनिक जानकारी नहीं है कि इसमें कितना फंड है।

जब महामारी धीमी पड़ती दिखने लगी तो अधिकारी ढीले पड़ गए और दूसरी लहर की आशंका के बावजूद कोई एहतियाती उपाय नहीं किए। और जब लोगों ने आवश्यक दिशा-निर्देशों का पालन करना बंद कर दिया तो इस वायरस ने खतरनाक रूप ले लिया। चुनावी रैलियों और धार्मिक उत्सवों ने सुपर स्प्रैडर का काम किया।

सरकार ने कोविड-19 की दो स्वीकृत वैक्सीन के उत्पादन को तेज करने की कोई कोशिश नहीं की। न ही विदेशी वैक्सीन के निर्यात की अनुमति दी। भारत ने ब्रिटेन में वैक्सीनेशन शुरू होने के दो महीने बाद अपना वैक्सीनेशन अभियान शुरू किया। यहां पर भी अधिकारियों ने पहले केंद्रीयकरण की कोशिश की और विदेश में बनी वैक्सीन को स्वीकृति देने से इनकार कर दिया। जिससे अप्रैल मध्य तक देश में वैक्सीन की कमी होने लगी। इसके बाद सरकार ने वैक्सीन लगाने का जिम्मा राज्य सरकारों को दिया और अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोप, रूस व जापान में स्वीकृत वैक्सीनों को मंजूरी दी। इसके बाद भी केंद्र सरकार विभिन्न राज्यों को समान रूप से वैक्सीन देने में विफल रहा। ऐसे समय पर जब भारतीयों की उनको बचाने में सक्षम वैक्सीन तक पहुंच नहीं थी, भारत का वैक्सीन मैत्री कार्यक्रम चतुराई नहीं बल्कि एक शेखी वाला कदम था। वैश्विक नेतृत्व घर से शुरू होना चाहिए और आज घर एक ऐसा देश है, जिसके लाशघरों, कब्रिस्तानों और श्मशानों में जगह कम पड़ रही है।


Date:01-05-21

‘तृतीय विश्व’ की वापसी?

टी. एन. नाइनन

क्या भारत एक बार फिर ‘तीसरी दुनिया’ का देश बनने जा रहा है? क्या 16 वर्ष बाद एक बार फिर वह दूसरे देशों की सहायता पर निर्भर होगा? इसका जवाब न भी हैं और हां भी। न इसलिए क्योंकि भारत ने सहायता लेने के पहले सहायता दी है। जैसा कि विदेश सचिव ने कहा यह पारस्परिक निर्भरता वाली दुनिया है। इसके अलावा यह ऐसी घटना है जो शायद एक सदी में एक बार घटती है। ऐसे में गलतियां होंगी और जो जवाबदेह हैं उन्हें थोड़ी रियायत मिलनी चाहिए। परंतु इसका उत्तर हां भी है क्योंकि विदेशों से आपात सहायता इसलिए लेनी पड़ रही है क्योंकि असाधारण स्तर पर गोलमाल किया गया और अक्षमता नजर आई। संस्थागत कमजोरी तीसरी दुनिया के देशों की एक विशिष्ट पहचान है और यह बताती है कि बीते कुछ महीनों में कौन सी गलतियां की गई हैं: ऑक्सीजन संयंत्रों की स्थापना करने और टीका निर्माण क्षमता बढ़ाने के क्षेत्र में चूक हुई है। अधिकारी उच्चस्तरीय कार्य बल और समितियां बनाने में व्यस्त रहे और इस बीच बड़ी तादाद मेंं हुई मौतों ने पूर्व में हुई नाकामियों को और उजागर कर दिया।

गड़बड़ियां कई तरह से हुई हैं। मिसाल के तौर पर आधी राह में जीत की घोषणा करने की आदत। फिर चाहे वायरस का मामला हो या डोकलाम का। या फिर पराजय या झटकों को जीत मेंं बदल देना जैसा कि डेपसांग में हुआ। विदेशों में होने वाली आलोचना का बरदाश्त न होना भी कोई नई बात नहीं है। जिस लालफीताशाही वाली व्यवस्था में विदेशी टीका निर्माता को नकार दिया जाता हो वहां आलोचना का यूं चुभना सही नहीं लगता। हम भले ही खुद को टीकों के क्षेत्र में वैश्विक राजधानी कहते रहें लेकिन रोज होने वाला टीकाकरण 30 लाख से घटकर 20 लाख तक आ गया जबकि हमें दो अरब लोगों का टीकाकरण करने की जरूरत है।

सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था का कमजोर होना तथा ऐसी अन्य कमियां लंबे समय से जाहिर थीं और इन पर टिप्पणियां भी की जाती रहीं लेकिन हालिया सफलताओं के नाम पर इनके बारे में बात नहीं की गई या छिपाया गया। कहा गया कि भारत ‘तीसरी दुनिया’ से ‘उभरता बाजार’ बन चुका है। कुछ विशिष्ट देशभक्त निगाहों में तो देश संभावित महाशक्तिभी बन गया था। वायरस ने उन छिपी कमियों को दुनिया के सामने उजागर कर दिया है। यह वही दुनिया है जिसने शायद विनम्रतावश हमारी हालिया सफलताओं के जश्न मेंं शिरकत की और चीन के साथ तुलना की कोशिशों की कलई नहीं खोली। ‘आंदोलनजीवी’ जैसी टिप्पणियां दूसरों की तकलीफ में खुशी खोजने का प्रयास करती रहीं और अपरिपक्वजीत का अहसास कराती रहीं। अधिक परिपक्व नजरिया वह होता जहां नाकामियों और सफलताओं को स्वीकार करते हुए शेष काम को पूरा करने का प्रयास किया जाता।

वह व्यवस्था जिसने संकट को इतना बढ़ जाने दिया उसमें इस संकट को लेकर समुचित प्रतिक्रिया देने की काबिलियत भी है। जानकारी के मुताबिक एक महीने में चिकित्सकीय इस्तेमाल वाली ऑक्सीजन का उत्पादन 70 फीसदी तक बढ़ा है। इसी तरह गत वर्ष हमने व्यक्तिगत संरक्षण उपकरण (पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट यानी पीपीई) का उत्पादन बढ़ाया था। तेजी से अस्पताल खोले गए हैं। जब सरकार का नेतृत्व करने वाले काम संभालते हैं तो काम होता भी है। संस्थागत और औद्योगिक क्षमताएं मौजूद हैं भले ही उन्हें मिशन के रूप में काम करना पड़े। सन 1962 के उलट सेना भी समुचित प्रतिक्रिया देने में सक्षम है। ऐसा भी नहीं है कि 60 या 70 वर्ष में कुछ हासिल ही नहीं हुआ।

‘तीसरी दुनिया’ की एक और विशेषता है जवाबदेही की कमी। क्या नरेंद्र मोदी सरकार को राजनीतिक रूप से जवाबदेह ठहराया जाएगा और यह कैसे होगा यह बात भविष्य में तय होगी। यहां विकल्पों का सवाल भी उठेगा। फिलहाल तो यह बात ध्यान देने लायक है कि प्रधानमंत्री ने सामने आकर इस बात को स्वीकार तक नहीं किया है कि देश ‘हिला’ हुआ है। न ही उन्होंने इस बात का दायित्व लिया है। उनके मंत्री पूर्व प्रधानमंत्री या मौजूदा मुख्यमंत्रियों की बातों का जिस तरह जवाब देते हैं उसमें भी दंभ साफ झलक रहा है।

लोगों को धमकाया जा रहा है कि ऑक्सीजन की कमी की शिकायत करने पर उन्हें गिरफ्तार किया जा सकता है जबकि उन लोगों के खिलाफ कार्रवाई की कोई खबर नहीं है जो मंजूर ऑक्सीजन संयंत्र न लगने के लिए जवाबदेह हैं। या जिन्होंने अतिरिक्त टीकों की आवश्यकता का ध्यान नहीं रखा। विकसित समाज जिस जवाबदेही और व्यवस्थागत निगरानी व्यवस्था में काम करते हैं वह भारत में नदारद है। उदाहरण के लिए ध्यान दीजिए कैसे ब्रिटेन में कैबिनेट सचिव प्रधानमंत्री के घर के नवीनीकरण के व्यय की जांच कर रहे हैं। भारत में तो प्रधानमंत्री की पसंदीदा परियोजनाओं को विशेष मंजूरी प्रदान की जाती है। तीसरी दुनिया ऐसी ही होती है।


Date:01-05-21

अभिव्यक्ति के हक में

संपादकीय

संकट में पड़े लोगों को सहायता पहुंचाना सरकारों की जिम्मेदारी होती है। इस क्रम में यह देखना जरूरी नहीं होता कि किसी प्रभावित व्यक्ति ने मदद की मांग की है या नहीं। लेकिन कई बार संकट का दायरा बड़ा होता है और लोगों के सामने सरकार से मदद मिलने का इंतजार करने के बजाय उससे अपने स्तर पर निपटना प्राथमिक चुनौती होती है। कभी ऐसा भी हो सकता है कि सरकारी व्यवस्था में लापरवाही, कोताही या फिर कमी की वजह से संकट गहरा जाता है। ऐसी स्थिति में एक सभ्य समाज में अपने आप मानवीय आधार पर एक दूसरे की मदद का एक असंगठित तंत्र काम करना शुरू कर देता है और हर संवेदनशील व्यक्ति अपनी सीमा में किसी जरूरतमंद की मदद करता है या जरूरी सूचनाएं पहुंचाता है। किसी भी समाज में इस तरह मदद की भावना को लोगों के संवेदनशील और मानवीय मूल्यों के प्रति जागरूक होने के तौर पर देखा जाना चाहिए। विडंबना यह है कि कई बार सरकारें इस तरह की गतिविधियों को खुद को कठघरे में खड़ा करने के तौर पर देखने लगती हैं। सवाल है कि जो काम करना सरकार की जिम्मेदारी है, उसमें नाकाम होने पर शर्मिंदगी महसूस करने के बजाय वह उल्टे एक दूसरे की मदद करने वाली जनता पर शिकंजा कसना क्यों शुरू कर देती है!

शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने इसी रवैए पर तीखा सवाल उठाया कि कोई भी राज्य कोविड-19 के बारे में सूचनाओं के प्रसार पर शिकंजा नहीं कस सकता है और इंटरनेट पर मदद की गुहार लगा रहे नागरिकों को यह सोच कर चुप नहीं कराया जा सकता कि वे गलत शिकायत कर रहे हैं। अदालत ने यहां तक कहा कि सोशल मीडिया पर लोगों से मदद के आह्वान सहित सूचना के स्वतंत्र प्रवाह को रोकने के किसी भी प्रयास को न्यायालय की अवमानना माना जाएगा। शीर्ष अदालत का यह फैसला हाल ही में उत्तर प्रदेश प्रशासन के उस फैसले के संदर्भ में आया है, जिसमें कहा गया कि सोशल मीडिया पर महामारी के संबंध में कोई झूठी खबर फैलाने के आरोप में राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत मुकदमा चलाया जाएगा। एक खबर के मुताबिक उत्तर प्रदेश में एक व्यक्ति ने अपने अठासी वर्षीय बीमार दादा को ऑक्सीजन मुहैया कराने के लिए सोशल मीडिया पर मदद मांगी थी और पुलिस ने डर फैलाने का आरोप लगा कर उसके खिलाफ महामारी अधिनियम के तहत मुकदमा दर्ज कर लिया।

उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश मदन बी लोकुर ने एक व्याख्यान में इस पर ठीक ही सवाल उठाया कि इस तरह मदद मांगने वाला व्यक्ति क्या कोई अपराध कर रहा है! उन्होंने कहा कि दरअसल ये तरीके और साधन हैं, जिनके जरिए बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में कटौती की जा रही है। दरअसल, पिछले कुछ दिनों से कोरोना संक्रमितों के इलाज के लिए अस्पतालों में बिस्तरों और ऑक्सीजन की कमी एक बड़ी समस्या बनी हुई है। जाहिर है, यह स्थिति सरकार और समूचे स्वास्थ्य तंत्र के चरमरा जाने की वजह से आई है। ऐसे में लोग सोशल मीडिया के जरिए बीमारी की वजह से संकट में पड़े लोगों के लिए ऑक्सीजन या बिस्तर मुहैया कराने के लिए मदद की गुहार लगा रहे हैं और सूचना सार्वजनिक होने पर उन्हें सहायता मिल भी रही है। लेकिन इससे यह भी जाहिर हो रहा था कि सरकार की व्यवस्था में कमी है। और शायद उत्तर प्रदेश सरकार को यही बात खल गई। अफसोस की बात यह है कि आम लोगों की जिस पहलकदमी से सरकार को स्वास्थ्य सेवाओं में कमियों में सुधार की कोशिशें शुरू करनी चाहिए थी, नागरिकों की जागरूकता और संवेदनशीलता की तारीफ करनी चाहिए थी, उसने ऐसी सूचनाएं जारी करने वालों पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया।


Date:01-05-21

परिपक्व रुख की जरूरत

संपादकीय

सुप्रीम कोर्ट ने सरकारों को चेताया है कि वे नागरिकों को अपनी तकलीफें सार्वजनिक करने के लिए प्रताड़ित न करें। सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने ऐसी खबरों का खुद ही संज्ञान लिया है, जिनके मुताबिक राज्य सरकारें उन लोगों या संस्थानों को सजा देने की बात कर रही हैं, जो इलाज न मिलने या ऑक्सीजन की कमी होने की बात सोशल मीडिया पर डाल रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने खुद भी सवाल उठाया है कि मरीजों या उनके परिजनों को दवाओं के लिए यहां-वहां क्यों भटकना पड़ रहा है? दरअसल, कोविड-19 में इस्तेमाल होने वाली कुछ दवाएं आयात होती हैं और अचानक उनकी जरूरत बढ़ जाने पर आयात बढ़ाने व वितरण सुनिश्चित करने जैसे कदम उठाने में देर हो गई। यह सही है कि मीडिया या सोशल मीडिया पर कभी कुछ सनसनीखेज या भ्रामक बातें आ जाती हैं, लेकिन ऐसी बातों को रोकने के लिए अगर गैर-जरूरी सख्ती दिखाई जाती है, तो इससे नुकसान ज्यादा होता है। इससे एक तो लोग अपनी वास्तविक तकलीफ भी बताने से डर सकते हैं और इस बात की आशंका भी बढ़ जाती है कि प्रशासन में बैठे लोग ऐसे आदेशों का दुरुपयोग अपनी कमजोरी छिपाने के लिए कर सकते हैं। मीडिया या सोशल मीडिया पर संवाद के जरिए सूचना व सहायता का जो स्वत:स्फूर्त तंत्र विकसित हुआ है, वह कई तरह से लोगों की मदद कर रहा है और एक मायने में प्रशासन का हाथ भी बंटा रहा है। इसलिए उसे हतोत्साहित करना ठीक नहीं है।

दुनिया तेजी से बदल रही है, लेकिन प्रशासन के कई तौर-तरीके पुराने हैं। मसलन, यह पुरानी सोच है कि कोई आपदा आए, तो सूचना को नियंत्रित करने के बारे में सोचा जाए, जैसे सौ साल पहले युद्ध या महामारी के दौर में तुरंत सेंसरशिप लगा दी जाती थी। पहले महायुद्ध के आखिरी दौर में सेंसरशिप की वजह से ही स्पेनिश फ्लू की खबरें प्रचारित नहीं हो पाईं और वह फैलती चली गई। बाद में भी सूचनाओं की कमी की वजह से उसके बारे में जानकारी जुटाना मुश्किल बना रहा और इसीलिए उसे ‘भूला दी गई महामारी’ की संज्ञा मिली। उस दौर में तो सूचना के साधन कम थे, इसलिए उन्हें नियंत्रित करना आसान था, लेकिन सूचना क्रांति के बाद यह काम व्यावहारिक रूप से भी बहुत कठिन है। वैसे भी, आधुनिक इतिहास से यही समझ आता है कि ऐसे नियंत्रण से नुकसान ज्यादा होता है, क्योंकि पाबंदी होती है, तो बेसिर-पैर की अफवाहों का खतरा बढ़ जाता है, जो ज्यादा घातक हो सकती हैं। खास तौर पर महामारी जैसी आपदा के दौर में पारदर्शिता और जनता को विश्वास में लेना सबसे अच्छी नीति है। इस आपदा से सरकार और जनता को मिलकर निपटना है, और अगर दोनों में विश्वास का रिश्ता होगा, तो यह सहयोग ज्यादा पुख्ता होगा।

यह सही है कि लोग बहुत तकलीफ में हैं और उनकी तकलीफ सरकारों के प्रति गुस्से के रूप में फूट रही है। लेकिन परिपक्व प्रशासकों को इसे बर्दाश्त करना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि लोग सरकार से नाराज हैं, लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि उनका सरकार या व्यवस्था से भरोसा उठ चुका है। यदि सरकारें अपनी गलतियों या सीमाओं को स्वीकार करती हैं और जनता के गुस्से को स्वाभाविक मानकर बर्दाश्त करती हैं, तो इससे स्थिति सुधारने में सहयोग मिलेगा। जो हमारा साझा संकट है, उससे इसी तरह पार पाया जा सकता है।


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