14-05-2021 (Important News Clippings)

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14 May 2021
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Date:14-05-21

Reforming medical education

An unfettered market approach is not the answer to the health workforce crisis

Soumitra Ghosh, [ Associate Professor, Tata institute of Social Sciences ]

India’s health systems have been confronting numerous challenges. In order to effectively address these challenges, our health systems must be strengthened. One of the critical building blocks of the health system is human resources. The serious shortage of health workers, especially doctors, in some northern States is a major impediment for achieving the health-related Sustainable Development Goals. Health workers are critical not just for the functioning of health systems but also for the preparedness of health systems in preventing, detecting and responding to threats posed by diseases such as COVID-19. If urgent action is not taken, the shortage will amplify and health systems will get further weakened.

The workforce crisis has been aggravated by the imbalances within the country. For instance, the doctor-population ratio in northern States is far short of the required norm, while the southern States, barring Telangana, have enough doctors in possession. There is also a general lack of adequate staffing in rural areas.

Shutting out the poor

These health system challenges will remain largely unaddressed with the government’s market-oriented approach towards medical education. There is no denying that in order to meet the significant shortfall of qualified doctors in northern States, scaling up of medical education is warranted. However, certain proposals, such as the NITI Aayog’s proposal of allowing private entities to take over district hospitals for converting them into teaching hospitals with at least 150 MBBS seats, may sound attractive but there are reasons to be deeply concerned. Through the implementation of such a policy, the private sector in medical education will be encouraged; it will also directly aid the corporatisation processes of healthcare provisioning while the under-resourced public health system will be a collateral damage.

District hospitals are considered as the last resort for the poor. This will change. The corporatisation will make the services very costly and exclude them from getting care. Even from the perspective of producing more doctors to meet the shortages in under-served areas, this is unlikely to yield the desired result. Private players treat medical education as a business. Thus, it would shut the door on a large number of medical aspirants who would otherwise have a strong motivation to work in rural areas but do not have the means to finance themselves. Additionally, the medical graduates trained in such private sector ‘managed’ medical colleges will prefer to find employment in corporate hospitals and not in rural areas to regain their investment. Further, this proposal is not aligned with India’s national health policy goals like achieving universal health care and health equity. Instead, it will widen health inequalities further.

Solving doctor shortage, therefore, needs long-term thinking and commitment from the political leadership. The government should learn from previous cases of public-private partnerships (PPPs). In the past, contrary to the expectation that markets would help increasing access to primary and tertiary care for the poor through private players, the evidence supporting their effectiveness is very limited. In fact, many PPPs had to be shelved owing to the non-compliance of the agreement conditions by the private sector under which they were also supposed to cater to the non-paying patients.

A public good

An unfettered market approach or a regulated market with medical colleges that are publicly funded but privately operated, providing competition for traditional government medical colleges, is not the answer to the health workforce crisis. Medical education is a public good as its purpose is to improve the population health and decrease disease burden.

The pandemic has provided us an opportunity to make medical education a public good once again. There should be a substantial step-up in public investment in medical education. By establishing new medical colleges, the government can increase student intake as well as enhance equitable access to medical education. Besides, it must allocate adequate financial resources to strengthen the overall capacity of existing medical colleges to enrich student learning and improve output.


Date:14-05-21

जवाबदेही से बच नहीं सकता चुनाव आयोग

ए. सूर्यप्रकाश, ( लेखक लोकतांत्रिक विषयों के विशेषज्ञ हैं )

बीते दिनों मद्रास हाईकोर्ट ने चुनाव आयोग के खिलाफ बेहद तल्ख टिप्पणी की। उस पर आयोग की नाराजगी भी जायज ही थी। आयोग ने सुप्रीम कोर्ट की शरण में जाकर इस मामले की मीडिया रिपोर्टिंग पर पाबंदी लगाने की मांग करके अपना मामला कमजोर कर लिया। हाईकोर्ट की टिप्पणियों से लेकर मीडिया में मामले की रिपोर्टिंग , दोनों मसलों पर आयोग को सुप्रीम कोर्ट से निराशा ही मिली। आयोग की याचिका का निपटारा करते हुए जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि अदालतों तक निर्बाध पहुंच ही संवैधानिक स्वतंत्रता की विशिष्टता है। इंटरनेट ने अदालती रिर्पोटिंग को एक नया आयाम दिया है और रियल टाइम अपडेट अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और खुली अदालत का विस्तार हैं। ऐसे में अदालती कार्यवाही की रिर्पोटिंग को रोकना प्रतिगामी कदम होगा।दरअसल हाईकोर्ट ने आयोग के अधिकारियों से पूछा था कि कोविड प्रोटोकॉल्स के अनुपालन के अभाव में उन्होंने चुनावी राजनीतिक गतिविधियां कैसे होने दीं? आयोग को गैर-जिम्मेदार संगठन ठहराते हुए हाईकोर्ट के जजों ने कहा था कि उसके अधिकारियों पर हत्या का मामला चलाया जाना चाहिए। ये टिप्पणियां आयोग को नागवार गुजरीं और इनके विरोध में उसने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया।

डीवाई चंद्रचूड़ और एमआर शाह की पीठ ने आयोग की अर्जी में व्यक्त भावनाओं को समझने के बावजूद हाईकोर्ट की कार्यवाही पर रोक लगाने से इन्कार कर दिया, ताकि उसके मनोबल पर कोई असर न पड़े। अपने निष्कर्ष में सुप्रीम कोर्ट ने यहां तक कहा कि महामारी के दौर में हाईकोर्ट बेहद सराहनीय भूमिका निभा रहे हैं। हालांकि मद्रास हाईकोर्ट की टिप्पणियां तल्ख थीं और ऐसी अलहदा टिप्पणियां करते हुए न्यायिक संयम बरतना चाहिए। मीडिया रिर्पोटिंग रोकने की अपील सुप्रीम कोर्ट के गले नहीं उतरी।

चुनाव आयोग के पक्ष में दलील दी गई कि चुनावों के दौरान शासन की कमान उसके हाथ में नहीं होती। वह केवल गाइडलाइन जारी करता है जिसे लागू करने का जिम्मा राज्यों का होता है। उसमें किसी गड़बड़ी के लिए आयोग को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। यह तर्क कहीं नहीं टिकता। आखिर जो आयोग वरिष्ठ अधिकारियों के नियमित रूप से तबादले करता हो, वह ऐसा कैसे कह सकता है। जैसे उसने एक आदेश के जरिये बंगाल के डीजीपी को बदल दिया। अब वह दावा कर रहा है कि शासन उसके हाथ में नहीं। वहीं जिस आयोग के पास चुनाव की तारीखों से लेकर उन्हें हालात के हिसाब से टालने की शक्ति है और जो चुनावों की घोषणा के दिन से ही राज्यों की कार्यप्रणाली पर पैनी नजर रखता है, वह अब कह रहा है कि गाइडलाइन का पालन न होने पर वह असहाय है। आयोग का व्यवहार और सुप्रीम कोर्ट के समक्ष उसकी दलीलें और मीडिया को किनारे करने के उसके प्रयास हमारे संविधान निर्माताओं को निराश ही करते। निर्वाचन आयोग से जुड़ा हमारे संविधान का अनुच्छेद 324 उसे एक स्वतंत्र एवं स्वायत्त संस्था के रूप में स्थापित करता है। संविधान मुख्य चुनाव आयुक्त को एक वज्र कवच प्रदान करता है। उसे कमोबेश सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के समतुल्य शक्तियां प्रदान की गई हैं, ताकि वह अपने दायित्व का बिना किसी दबाव और भयमुक्त होकर निर्वहन करे और नागरिकों के मताधिकार का संरक्षण कर देश की लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को सशक्त करे। ऐसे में अनुच्छेद 324 चुनाव आयोग को मिली व्यापक शक्तियों से परिचित कराता है। उसे देखते हुए आयोग का असहाय होने वाता तर्क निरर्थक ही लगता है।

मोदी सरकार अक्सर जिन आरोपों से दो-चार होती है, उनमें से एक यही है कि उसने आयोग में अपनी पसंद के लोग बैठाए हैं और वह उसकी निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करती है। पता नहीं इन आरोपों में कितनी सच्चाई है, लेकिन मैंने एसएल शकधर के दौर से चुनाव आयोग को देखा है। शकधर मोरारजी देसाई, चरण सिंह से लेकर इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री काल में मुख्य चुनाव आयुक्त रहे। राजीव गांधी ने आरवीएस पेरी को मुख्य चुनाव आयुक्त बनाया। इसी तरह चंद्रशेखर सरकार ने टीएन शेषन की नियुक्ति की। वास्तव में प्रत्येक सरकार अपने कार्यकाल के दौरान चुनाव आयुक्तों और मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति करती है। यह मानने में कोई गुरेज नहीं कि प्रत्येक सरकार की चुनावी प्रक्रिया को लेकर अपनी ख्वाहिशें होती हैं। मसलन चुनाव की तारीखें, चुनावों के चरण और केंद्रीय बलों की तैनाती इत्यादि। जो भी हो, जब बात चुनावी तारीखों या ऐसे अन्य पहलुओं की आती है तो सरकार अपनी अपेक्षाएं रख सकती है, लेकिन अंतिम निर्णय आयोग का ही हो, जिस पर स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव संचालन की जिम्मेदारी है। यदि यह साम्य गड़बड़ाता है तो जनता को महसूस भी होगा और वह सरकार से नहीं, बल्कि आयोग से ही सवाल करेगी और उसे उनके जवाब देने भी होंगे।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आयोग का सबसे विवादित फैसला यही रहा कि उसने बंगाल की 294 विधानसभा सीटों पर आठ चरणों में चुनाव कराए तो 234 सदस्यीय तमिलनाडु विधानसभा के चुनाव एक ही चरण में करा दिए। केरल (140 सीट) और पुडुचेरी (30 सीट) के चुनाव भी तमिलनाडु के साथ उसी दिन निपटा दिए गए। उसी दिन तीसरे चरण में असम की 40 सीटों पर भी चुनाव हुए। कुल मिलाकर इन राज्यों की 444 सीटों पर आयोग ने एक दिन में मतदान कराया, जबकि बंगाल में 294 सीटों के लिए उसे आठ चरण आवश्यक लगे। इसे कैसे जायज ठहराया जाएगा? आयोग को जवाब देने ही होंगे। इस बीच अप्रैल के पहले हफ्ते में कोविड के दैनिक मामलों का आंकड़ा एक लाख को पार कर गया, लेकिन आयोग द्वार पर दस्तक देते इस दानव को देख नहीं पाया। मद्रास हाईकोर्ट के दखल के बाद ही उसने आधे-अधूरे मन से कुछ कदम उठाए। उसका यह कहना कि हाईकोर्ट को चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था के खिलाफ ऐसी टिप्पणियां नहीं करनी चाहिए थीं, एक खोखली दलील है। चुनाव आयोग को उच्च न्यायालयों के क्षेत्राधिकार को सम्मानपूर्वक स्वीकार करना चाहिए। यह देखना अजीब रहा कि एक संवैधानिक संस्था अपनी कार्यप्रणाली से जुड़ी बहस को ही पटरी से उतारना चाहती थी। सुप्रीम कोर्ट ने यह ठीक कहा कि हमारे लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए संस्थानों को सशक्त एवं गतिशील बनना होगा।


Date:14-05-21

विचार विनिमय जरूरी

संपादकीय

कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर देश भर में निरंतर फैलती जा रही है और उससे निपटने का काम मोटे तौर पर राज्य सरकारों पर छोड़ दिया गया है। एक स्तर पर यह केंद्र सरकार की विफलता है क्योंकि नेतृत्व और क्षमता विस्तार में वह नाकाम नजर आ रही है। परंतु यह दूसरी तरह से भी नाकामी ही है, यानी तालमेल के मोर्चे पर और नीतिगत विनिमय के मोर्चे पर भी। अलग-अलग राज्य सरकारों ने दूसरी लहर से निपटने के लिए अलग-अलग नीतिगत प्रणाली विकसित की है। खेद की बात है कि इस विषय में प्राप्त जानकारियों को आपस में इस प्रकार साझा करने की कोई प्रणाली नहीं बनी है जिसकी मदद से इस क्षेत्र में किए जा रहे बेहतरीन प्रयासों को देशव्यापी स्तर पर प्रसारित किया जा सके।

ऐसे कुछ उत्कृष्ट व्यवहार चिह्नित भी किए गए हैं। उदाहरण के लिए बृहन्मुंबई महानगरपालिका (बीएमसी) ने वार्ड स्तर पर वार रूम विकसित किए हैं जो उन मामलों को चिह्नित करते हैं जिन्हें अस्पताल में दाखिल करने की आवश्यकता होती है। इसके बाद संबंधित मरीजों को समुचित जगह भेजा जाता है। निश्चित रूप से विभिन्न राज्य और नगर निकायों के पास ऐसी व्यवस्था बनाने की क्षमता अलग-अलग है। अन्य राज्यस्तरीय नवाचारों में महाराष्ट्र सरकार का चिकित्सकों की विशेषज्ञ संस्था गठित करने का निर्णय शामिल है जो अग्रिम पंक्ति में काम करने वालों यानी फ्रंट लाइन वर्कर्स को उचित मार्गदर्शन प्रदान करती है ताकि दवाओं और ऑक्सीजन का गैर जरूरी इस्तेमाल न हो। केरल में एर्णाकुलम में एक वार रूम बनाया गया है जो पूरे शहर की निगरानी करता है और संसाधनों को जरूरत के मुताबिक स्थानांतरित करता है। तमिलनाडु और कर्नाटक दोनों जगह टेलीफोन आधारित व्यवस्था बनाई गई है ताकि गंभीर मरीजों को पहले इलाज मिले। दिल्ली में ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं है यह स्पष्ट नहीं है।

यह भी स्पष्ट नहीं है कि केंद्र सरकार ऐसी प्रणालियों को जुटाकर अन्य राज्यों के जरूरतमंद अफसरशाहों को क्यों नहीं सौंप रही। अन्य राज्य निजी और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की बढ़ती मांग से निपटने की जद्दोजहद में लगे हैं। अतीत में यह योजना आयोग का काम हुआ करता था। अभी भी इसे नीति आयोग के दायरे में माना जा सकता है। नीति आयोग अतीत में यह चर्चा कर चुका है कि राज्यों के अच्छे कदमों को एकत्रित किया जाए और जरूरत पडऩे पर अन्य राज्यों द्वारा अपनाया जाए। आयोग के आकांक्षापूर्ण जिला कार्यक्रम के माध्यम से 112 जिलों के अफसरशाहों के बीच सहयोग पर ध्यान दिया जाना है। दूसरे शब्दों में इस बात को लेकर समझ स्पष्ट है कि नीतिगत विनिमय केंद्र सरकार का काम है। परंतु इस मौके पर यह नदारद है।

द इंडियन एक्सप्रेस के साथ एक साक्षात्कार में बीएमसी के आयुक्त इकबाल सिंह चहल ने कहा कि जहां तक श्रेष्ठ कार्य व्यवहार को साझा करने की बात है तो यह जिलाधिकारियों और राज्यों के निगमायुक्तों पर निर्भर करता है कि वे कैसी प्रतिक्रिया देते हैं। उन्होंने कहा कि अभी हाल तक जब वह भारत सरकार में अपने सहयोगियों को फोन करते तो वे उन पर हंसते। उन्होंने कहा कि जब कोई हम पर हंस रहा है तो हम अपना मॉडल उनके साथ कैसे साझा करें? यह न केवल अतिआत्मविश्वास का द्योतक है बल्कि राज्य स्तर पर प्रशासकों के बीच सहयोग का माहौल तैयार करने की अनिच्छा का सूचक भी है। दूसरी लहर जिन इलाकों में शुरुआत में सबसे अधिक असरदार थी वहां अब वह कम हो रही है लेकिन देश के अन्य इलाकों में प्रसार जारी है। इन इलाकों को मुंबई जैसी जगहों से अनुभव मिलने चाहिए थे कि वहां इस पर नियंत्रण कैसे किया गया। केंद्र सरकार को नीतिगत विनिमय की व्यवस्था कायम करनी चाहिए।


Date:14-05-21

जहरीला होता भूजल

अखिलेश आर्येंदु

भारत सहित दुनिया के तमाम देशों में पीने लायक शुद्ध पानी मिलना किसी चुनौती से कम नहीं है। भारत में महज तीस प्रतिशत लोगों को पीने लायक पानी उपलब्ध है। उत्तर और दक्षिण भारत के अनेक इलाकों में भूजल में कई तरह के रासायनिकों के मिश्रण की वजह से शुद्ध पानी की उपलब्धता कठिन होती जा रही है। इस दिशा में सर्वोच्च न्यायालय ने संज्ञान लेकर जल मंत्रालय और राज्य सरकारों को ठोस कदम उठाने का निर्देश दिया था, लेकिन समस्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। गुजरात के कच्छ, राजस्थान के कई जिले, पश्चिम बंगाल, असम, कर्नाटक, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश के कई जिलों में भूजल मिश्रण की समस्या विकराल होती जा रही है। राजस्थान के कई जिलों में लोगों को कई किमी पैदल चल कर पीने का पानी मिलता है, वह भी रासायनिक तत्त्वों से

सरकारी आंकड़े बताते हैं कि सेहत के लिए खतरनाक रासायनिक तत्त्वों की मिलावट वाले दूषित पानी की उपलब्धता से सर्वाधिक प्रभावित राज्यों में राजस्थान, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और असम हैं। पर्यावरण मंत्रालय की मदद से केंद्रीय एजेंसी ‘एकीकृत प्रबंधन सूचना प्रणाली’ (आईएमआईएस) द्वारा देश में पानी की गुणवत्ता को लेकर तैयार किए आंकड़ों के मुताबिक राजस्थान की सर्वाधिक 19,657 बस्तियां और इनमें रहने वाले 77.70 लाख लोग जहरीला पानी पीने की वजह से प्रभावित हैं। आईएमआईएस द्वारा पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय को सौंपे गए आंकड़ों के मुताबिक पूरे देश में 70,736 बस्तियां फ्लोराइड, आर्सेनिक, लौहतत्त्व और नाइट्रेट सहित दूसरे लवण एवं भारी धातुओं के मिश्रण वाले दूषित जल से प्रभावित हैं। इस पानी से सीधे-सीधे 47.41 करोड़ आबादी प्रभावित है।

राजस्थान में फ्लोराइड, नाइट्रेट और लवणयुक्त भूजल का प्रकोप सबसे ज्यादा है। राज्य में 5996 बस्तियों के 40.94 लाख लोग फ्लोराइड, 12,606 बस्तियों में रहने वाले 28.53 लाख लोग लवणयुक्त और 1050 बस्तियों के 8.18 लाख लोग नाइट्रेट मिश्रित पानी के इस्तेमाल को विवश हैं। वहीं असम के भूजल का बहुत बड़ा हिस्सा आर्सेनिक के मिश्रण की वजह से इस्तेमाल के काबिल नहीं रह गया है। एक आंकड़े के मुताबिक असम की 4514 बस्तियों में रहने वाली सत्रह लाख की आबादी को आर्सेनिक युक्त पानी पीना पड़ रहा है। इससे कैंसर, हृदय सम्बंधी बीमारियों और पेट की बीमारियों से लोगों को दो-चार होना पड़ रहा है। असम सरकार ने इस दिशा में कुछ कोशिशें की हैं, लेकिन भूजल के प्रदूषित होते जाने में कोई ऐसा कदम अभी नहीं उठाया गया है, जिससे राज्य के सभी लोगों को साफ और शुद्ध पीने लायक पानी मिल पाए।

इसी तरह उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर, सोनभद्र, मेरठ, जौनपुर, बस्ती सहित अनेक जिलों में आर्सेनिक और दूसरे रासायनिक तत्त्वों का मिश्रण भूजल में पाया गया है। चंडीगढ़ स्थित लेबोरेटरी के परीक्षण के मुताबिक दिल्ली में जमीन के नीचे के पानी में क्लोराइड की मात्रा तय सीमा से एक हजार फीसद तक अधिक पाई गई। इसी तरह कैलशियम, मैग्नीशियम, जस्ता, सल्फेट, नाइट्रेट, फ्लोराइड, फेरिक (लोहा) और कैडमियम की मात्रा लगातार बढ़ती जा रही है। इन तत्त्वों से युक्त पानी पीने से हृदयघात, किडनी पर बुरा असर, लीवर का संक्रमण, गैस्ट्रिक कैंसर, दांत संबंधित बीमारियां, नर्वस सिस्टम पर बुरा असर, त्वचा संबंधी रोग, तनाव, अस्थमा, थॉयरायड, हृदय संबंधी रोग, डायरिया और आंख संबंधी अनेक समस्याऐ देखी जा रही हैं।

सर्वोच्च न्यायालय ने भूजल के प्रदूषित होने के मद्देनजर बड़ी औद्योगिक इकाइयों को बंद करने या आबादी से दूर स्थापित करने का आदेश दिया था। उसका पालन कुछ राज्य सरकारों ने किया, लेकिन आज भी दिल्ली, कोलकाता, मुम्बई, हरिद्वार, फरीदाबाद, गुरुग्राम और दूसरे तमाम शहरों में औद्योगिक गतिविधियां जारी हैं, जिस पर तत्काल गौर करने की जरूरत है।

पश्चिम बंगाल, राजस्थान और असम की तरह ऐसा तीसरा राज्य है, जहां पानी में आर्सेनिक, नाइट्रेट जैसे जहरीले रासानिक तत्त्व बहुतायत में पाए जाते हैं। कोलकाता, उत्तर परगना, दक्षिण परगना, मुर्शीदाबाद जैसे अनेक जनपदों के भूजल में आर्सेनिक का होना सामान्य बात है। आंकड़ों के मुताबिक राज्य की 17,650 बस्तियों के 1.10 करोड़ लोग जहरीले पानी की उपलब्धता वाले इलाके में रहते हैं। इन इलाकों में रहने वाले ज्यादातर लोग कैंसर, फेफड़े, आंख की समस्या, अस्थमा, त्वचा संबंधी बीमारियों से पीड़ित रहते हैं। चिंता की बात यह है कि राज्य सरकार ने इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाए हैं, जिससे समस्या लगातार बढ़ती जा रही है। गौरतलब है कि राज्य सरकार की तरफ से लोगों को साफ और शुद्ध पीने लायक पानी मुहैया कराना बहुत बड़ी चुनौती है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने आर्सेनिक का अधिकतम सुरक्षित स्तर दस पार्ट्स प्रति अरब (पीपीबी) माना है। गौरतलब है दुनिया के पंद्रह करोड़ लोग नियमित रूप से इससे अधिक आर्सेनिक युक्त पानी पी रहे हैं। भारत के अलावा बांग्लादेश, अमेरिका सहित दुनिया के ऐसे तमाम देश हैं जहां आर्सेनिक, नाइट्रेट, कुछ खास तरह के लवण भूजल में घुले मिलते हैं। गौरतलब है कि विकसित देशों ने नई तकनीक के जरिए भूजल के विषाक्त होने की समस्या को काफी कुछ हल कर चुके हैं, लेकिन भारत, बांग्लादेश जैसे विकासशील देशों में अभी इस दिशा में ऐसा कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा सका है, जिससे लोगों को जहरीला पानी पीने से छुटकारा मिलता।

नई वैज्ञानिक भूजल शोधन तकनीकि से आर्सेनिक, नाइट्रेट और दूसरे जहरीले रसायनों का भूजल में मिश्रित होने की प्रक्रिया को समझ कर भूजल के जहरीले होने से रोका जा सकता है। उदाहरण के तौर पर अपरदन से चट्टानों के माध्यम से चट्टानों में मौजूद खनिज मिट्टी में आर्सेनिक छोड़ते रहते हैं। फिर मिट्टी से यह भूजल में चला जाता है, जिससे भूजल जहरीला हो जाता है। इसके अलावा मानव गतिविधियां, जैसे खनन और भूतापीय ऊष्मा उत्पादन, आर्सेनिक के पेयजल में मिलने की प्रक्रिया को बढ़ाते हैं। इसका एक उदाहरण कोयला जलने के बाद उसकी बची हुई राख है, जिसमें आर्सेनिक और दूसरे जहरीले पदार्थ होते हैं, हवा या दूसरे माध्यम से शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। गौरतलब है कि भूजल में जहरीले तत्त्वों के मिश्रण, जिस प्रक्रिया से जल को दूषित करते हैं उसे रोकना असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर है। लेकिन नई तकनीकि के इस्तेमाल से जल का शोधन कर पीने लायक पानी लोगों को मुहैया कराया जा सकता है।

प्रदूषित पानी पीने से सेहत पर तो असर पड़ता ही है, जिस जानवर को पिलाया जाता है और खेती के लिए इस्तेमाल किया जाता है वे सभी जहरीलें तत्त्वों के असर से दूषित हो जाती हैं। इससे ग्रामीण इलाकों के लोगों, जानवरों और खेती पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। वैज्ञानिकों के मुताबिक पानी में फ्लोराइड से फ्लूरोसिस, नाइट्रेट से श्वास संबंधी बीमारियां, लौह युक्त पानी से ऑस्टियोपोरोसिस, आर्थराइटिस और आर्सेनिक युक्त दूषित जल से कैंसर जैसी बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। यानी अगर भारत के लोगों को शुद्ध पानी मुहैया करा दिया जाए तो करोड़ों लोग अनेक घातक बीमारियों से बच सकते हैं।

केंद्र सरकार 2024 तक प्रत्येक परिवार को साफ और शुद्ध पीने का पानी मुहैया कराने की योजना पर कार्य कर रही है, लेकिन सवाल है कि नदियों, झीलों, नहरों और तालाबों के पानी को साफ कर क्या सबको शुद्ध पानी उपलब्ध कराया जा सकता है? भूजल के विषैले होने और भूजल का स्तर लगातार नीचे जाने जैसी विकट समस्या के समाधान के बगैर देश के प्रत्येक परिवार को कैसे साफ और शुद्ध जल उपलब्ध कराया जा सकता है? जल संचयन, बड़े पैमाने पर जल शोधन और जल का अपरिग्रह करके जल से ताल्लुक रखने वाली सभी तरह की समस्याओं का समाधान किया जा सकता है।


Date:14-05-21

राष्ट्रीय कार्यबल को मिले अधिकार

यशोवर्द्धन आजाद, ( पूर्व आईपीएस अधिकारी )

सर्वोच्च अदालत ने पिछले हफ्ते एक राष्ट्रीय कार्यबल (नेशनल टास्क फोर्स- एनटीएफ) का गठन किया, जो एक सप्ताह के भीतर राज्यों और केंद्रशासित क्षेत्रों को चिकित्सकीय-ऑक्सीजन के आवंटन की नीति बताएगा, और अगले छह महीनों में एक राष्ट्रीय योजना की व्यापक रूपरेखा पेश करेगा, ताकि अभी और भविष्य में हम कोविड-19 से कारगर जंग लड़ सकें।

विशेषज्ञों से भरा यह 12 सदस्यीय कार्यबल भरोसा जगाता है। हालांकि, इसका काम सिर्फ सिफारिश करना है, लिहाजा उसकी अनुशंसाओं पर फैसले लेने का अधिकार केंद्रीय नौकरशाही के पास ही होगा, जिसकी तस्वीर बहुत धवल नहीं है। लोग फैसले लेने वाली कोई पेशेवर और निष्पक्ष इकाई चाहते हैं, जिसके लिए कार्यबल ही उपयुक्त है, फिर चाहे वह मौजूदा स्वरूप में हो या फिर जरूरत के मुताबिक इसमें अन्य विशेषज्ञ भी शामिल किए जाएं। सुप्रीम कोर्ट के लिए आवश्यक है कि वह इस राष्ट्रीय कार्यबल को इतना मजबूत करे कि वह कोविड-19 से जुड़े फैसले खुद ले सके।

इस समय सबसे बड़ी जरूरत यही है कि राष्ट्रीय कार्यबल जैसी किसी इकाई द्वारा त्वरित निर्णय लिए जाएं। यह अभी सबसे बड़ी जरूरत है। एक उदाहरण से इसे समझिए। पिछले साल कोविड-19 के मामलों में उछाल आने के बाद मार्च में भारत सरकार के सचिवों के नेतृत्व में 11 अधिकार प्राप्त समितियों का गठन किया गया। फिर भी, प्रस्तावित 133 नए ऑक्सीजन-प्लांट में से सिर्फ 33 प्लांट स्थापित हो सके, और ये समितियां कुछ नहीं कर सकीं। नवंबर में, संसद की स्थाई समिति ने ऑक्सीजन-आपूर्ति, आईसीयू बेड और अन्य सुविधाओं की कमी को लेकर चिंता जताई थी। मगर जब बीते मार्च में दूसरी लहर ने भारत पर हमला किया, तब हम बिना तैयारी के थे। ऑक्सीजन-कोटे को लेकर दिल्ली और केंद्र के बीच की लड़ाई को ही लीजिए। आखिरकार अदालत ने दिल्ली को प्रतिदिन 700 मीट्रिक टन ऑक्सीजन आवंटित करने का फैसला दिया। क्षमता स्थापित करना और वितरण का निर्धारण करना भी मुद्दे हो सकते हैं। मगर, पिछले साल के अति-संतोष और इस बार की मौजूदा जरूरत में तुलना करें, तो यह साफ हो जाता है कि त्वरित अदालती फैसले और समितियों के आदेश क्या कर सकते हैं?

दूसरी बात, विशेषकर ऑक्सीजन की आपूर्ति को लेकर निजी और स्थानीय स्तर पर सफलताएं देखी गई हैं। केरल, ओडिशा और छत्तीसगढ़ जैसे कुछ राज्य न सिर्फ अपने यहां ऑक्सीजन-रिजर्व को बनाए रखने में सफल हुए, बल्कि उन्होंने अन्य सूबों की भी मदद की। नंदुरबार (महाराष्ट्र) के युवा जिलाधिकारी ने अपने जिले में तीन ऑक्सीजन-प्लांट लगाए, तो बृह्नमुंबई महानगर पालिका आयुक्त को भी अपने कामों के लिए भरपूर सराहना मिली।

मगर इस तरह के निजी प्रयास पर्याप्त नहीं होते हैं, और एक केंद्रीय इकाई की जरूरत होती ही है, जो रोजाना के आधार पर चुनौतियों को देखते हुए फैसले ले। जैसे, ऑक्सीजन की आपूर्ति और उसके आवंटन को लेकर अगला पखवाड़ा काफी अहम है, इसलिए राष्ट्रीय कार्यबल के लिए यह महत्वपूर्ण है कि बैठकें करने और नीतियों पर विचार-विमर्श के बजाय रोजाना के आधार पर काम करे। भारत सरकार के सचिव के नेतृत्व में एक समिति पहले से ही ऑक्सीजन-आवंटन पर काम कर रही है। सचिव चाहें, तो प्रतिदिन की अपनी रिपोर्ट राष्ट्रीय कार्यबल को दे सकते हैं और वहां से आदेश ले सकते हैं। इससे राज्य भी संतुष्ट होंगे और केंद्र पर उंगली उठाने के बजाय वे अपने कामकाज पर ध्यान देंगे।

तीसरी बात, विशेषज्ञ पैनल भारत की वैक्सीन-नीति को तैयार करने में (याद रखें, यह मामला भी इस समय अदालत के अधीन है) भी अधिक सक्रिय भूमिका निभा सकता है। टीके को लेकर संघीय संबंधों में तनातनी को देखते हुए टीकों के वितरण का फैसला राष्ट्रीय कार्यबल को सौंपा जाना चाहिए। व्यवस्थित टीकाकरण के लिए, रोग की मौजूदा व कथित गंभीरता को देखते हुए विभिन्न जनसांख्यिकी खंडों के लिए विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में रणनीति के आधार पर काम करने की दरकार है।

चौथी बात, कोविड-19 प्रोटोकॉल पर काफी ज्यादा भ्रम होने की वजह से राष्ट्रीय कार्यबल को चिकित्सा संबंधी निर्देश जारी करने का अधिकार मिलना चाहिए। एक तरफ डॉक्टरों व विशेषज्ञों के बयान हैं कि नागरिकों को रेमडेसीवर, टोसिलीजुमाब और प्लाज्मा थेरेपी के इस्तेमाल को लेकर सावधान रहना चाहिए और खास परिस्थितियों में ही इनका इस्तेमाल करना चाहिए, जबकि दूसरी तरफ, होम आइसोलेशन में डॉक्टर धड़ाधड़ इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। राष्ट्रीय कार्यबल को इस पर तत्काल गौर करना चाहिए और एक ‘नेशनल एडवाइजरी’ जारी करनी चाहिए। नियमित प्रेस कॉन्फ्रेंस में, कार्यबल जनता से जीनोम-सीक्वेंसिंग की स्थिति और नए वेरिएंट को लेकर सूचनाएं भी साझा कर सकता है।
पांचवीं बात, मदद के रूप में विदेश से चिकित्सा सामान की आपूर्ति लगातार हो रही है और भारत सरकार की समिति मानदंडों के अनुसार इनके वितरण का काम देख रही है। ऐसा न हो कि आवंटन में देरी और पूर्वाग्रह के कारण कोई नया विवाद खड़ा हो जाए। दैनिक आधार पर समिति को सुनने के बाद राष्ट्रीय कार्यबल को वितरण का काम अपने हाथ में ले लेना चाहिए।

अगले छह महीनों के लिए कोविड-19 से संबंधित फैसले राष्ट्रीय कार्यबल द्वारा ही लिए जाने चाहिए। महत्वपूर्ण लंबित मामलों में त्वरित निर्णय लेने की क्षमता इसके पास है और इसकी छवि भी निष्पक्ष है। कई समितियां पहले से ही राष्ट्रीय कार्यबल की मदद करने के लिए मौजूद हैं। मौजूदा आभासी दौर में एक दिन में दो छोटी-छोटी बैठकों में ही सभी जरूरी मसलों पर फैसला हो सकता है।

आलोचक राष्ट्रीय कार्यबल को न्यायिक अतिरेक की मिसाल के रूप में पेश कर सकते हैं और कह सकते हैं कि इससे चुनी गई सरकार के सांविधानिक अधिकारों का हनन होगा। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी सशक्त निकायों की स्थापना की है, जैसे, दिल्ली में अतिक्रमण को हटाने के लिए ऐसा किया गया था। लिहाजा, विपत्ति के समय असाधारण उपाय अपनाना और सुप्रीम कोर्ट का फैसला न सिर्फ केंद्र और राज्यों के बीच जारी संघर्ष को खत्म करेगा, बल्कि उनके प्रयासों की सराहना भी करेगा, क्योंकि राष्ट्रीय कार्यबल निष्पक्ष और पेशेवर फैसले लेने के लिए सरकारी आंकड़ों और संसाधनों पर ही काफी हद तक निर्भर रहेगा।


 

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