08-05-2021 (Important News Clippings)

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08 May 2021
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Date:08-05-21

Supreme Defence of Media Freedom

Right to cover court proceedings is fundamental

ET Editorials

The Supreme Court has done the right thing by dismissing the Election Commission’s outraged plea to expunge the Madras High Court’s comment that the commission should probably be tried for murder, on account of its failure to ensure Covid-appropriate behaviour during the elections it conducted. The apex court gently rapped the high court also on the knuckles, urging restraint in language and against off-the-cuff remarks. However, the most significant part of the Supreme Court’s ruling in the matter is its unambiguous assertion of media’s right to report on court proceedings, except in some select sensitive matters such as sexual abuse.

The Election Commission is a statutory body, no doubt, but not above the law. The law of the land includes media freedom. The commission’s demand to gag the press on judicial remarks about its functioning are totally wrong. Of course, one can sympathise with the commission. After all, whatever its standing formally, the commission cannot control the political parties and the people at large, beyond a point. The parties are the ones who are culpable for encouraging mass gatherings without any attempt at physical distancing or even wearing of masks. Further, the people are, after all, people, and not cattle. They should have the agency to think for themselves and adopt prudent measures to protect themselves. Therefore, it was not surprising that the commission felt unjustly targeted when the Madras High Court directed its fury at it. This, however, does not justify its demand to gag the media.

The Supreme Court’s assertion of the media’s right to cover court proceedings is not conditional or limited to the present case. “Open access to the courts is the cornerstone of constitutional freedom,” it said. “Freedom of speech and expression covers freedom to cover court proceedings, too.” The logical question that follows is, does the practice of corralling certain court proceedings into sealed envelopes violate free speech?


Date:08-05-21

दुनिया को सही संदेश देने का समय

विवेक काटजू , ( लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं )

पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणाम नए सिरे से यह संकेत देने वाले रहे कि कांग्रेस मुक्त भारत के हालात बन रहे हैं, लेकिन आज देश की जनता की सबसे बड़ी मांग कोरोना मुक्त भारत की है। लोग फिलहाल केंद्र और राज्य सरकारों के साथ-साथ समूचे राजनीतिक वर्ग से यह चाहते हैं कि वे दलगत भावना और वैचारिक आग्रह से ऊपर उठकर काम करें। यह मांग इस कारण से बहुत स्वाभाविक है कि देश विभाजन के बाद अपने सबसे मुश्किल दौर से जूझ रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना की दूसरी लहर को उचित ही तूफान की संज्ञा दी। यह सच में एक तूफान ही है, जो लोगों की जान पर आफत बनकर टूटा है। तमाम परिवारों ने अस्पतालों में बेड या आक्सीजन न मिलने और कई मामलों में उपचार के अभाव में अपने प्रियजनों को खो दिया। इससे आक्रोश उत्पन्न हो रहा है। कोरोना संकट लोगों के स्वास्थ्य पर आघात करने के साथ ही आर्थिक दुष्प्रभाव पैदा कर रहा है, जिसके सामाजिक एवं राजनीतिक परिणाम भी सामने आ सकते हें। इन दुष्प्रभावों को दुनिया भी देख रही है।

नंदीग्राम की हार भले ही ममता बनर्जी के लिए व्यक्तिगत शर्मिंदगी का सबब बनी हो, लेकिन उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस पूरे बंगाल पर छा गई। कोई भी निष्पक्ष राजनीतिक विश्लेषक इसे नहीं झुठला सकता कि ममता ने अकेले अपने दम पर भाजपा का सामना किया। पीएम मोदी से लेकर भाजपा के तमाम दिग्गजों की कोई भी रणनीति ममता के तीसरे कार्यकाल में बाधा नहीं डाल सकी। हालांकि राज्य में भाजपा ने अपनी सीटों में भारी इजाफा किया। बंगाल में अब उसके 77 विधायक हो गए हैं। वहीं असम की विषम परिस्थितियों के बावजूद भाजपा राज्य की सत्ता बचाने में सफल रही तो पुडुचेरी में भी उसका गठबंधन जीत गया। उधर वाम मोर्चे ने केरल की परंपरा को पलटकर सत्ता में वापसी की तो दशक भर बाद द्रमुक तमिलनाडु की सत्ता में लौटी। अब इन सभी विजेताओं सहित शेष भारतीय राजनीतिक वर्ग को महामारी से मुकाबले की संपूर्ण प्रतिबद्धता प्रदर्शित करनी होगी। उनके पास गंवाने के लिए वक्त बिल्कुल नहीं है। यह अच्छा लगा कि अपने विजयी भाषणों में नेताओं ने महामारी से लड़ने को अपनी प्राथमिकता बताया।

भारतीय राजनीतिक वर्ग के लिए यह ऐसा समय है कि वह जनता को यह संदेश दें कि महामारी जैसी बड़ी चुनौती से निपटने के लिए वे अपने मतभेद भुलाकर एकजुट होकर काम करने में सक्षम हैं। इस मिशन की मशाल प्रधानमंत्री मोदी को ही थामनी पड़ेगी, जो निर्विवाद रूप से देश की सबसे बड़ी राजनीतिक हस्ती हैं और लोगों पर उनका गहरा प्रभाव भी है। यदि प्रधानमंत्री कोई पहल करते हैं तो अन्य नेताओं की भी यह उतनी बड़ी जिम्मेदारी होगी कि वे उस पहल पर सकारात्मक प्रतिक्रिया दें। जिन नेताओं और प्रशासनिक एवं तकनीकी दिग्गजों से प्रधानमंत्री संपर्क साधें तो उन्हेंं अपनी क्षमताओं के दायरे में जनसेवा करने में कोई हिचक नहीं दिखानी चाहिए। इससे विश्व में यही संदेश जाएगा कि जब भारत किसी भीषण संकट का सामना करता है तो उससे निपटने के लिए उसकी राजनीतिक और प्रशासनिक बिरादरी में एकजुट होकर उसका समाधान करने की क्षमता आ जाती है। कहने का अर्थ यह नहीं कि मौजूदा सरकारें और अहम जिम्मेदारियां संभाल रहे नेता महामारी के दौरान अपनी नीतियों एवं गतिविधियों को लेकर जनता के प्रति जवाबदेह नहीं। ऐसा भी नहीं है कि उन्होंने गलत ही किया, लेकिन उन्हें अपनी नीतियों एवं कदमों को लेकर स्पष्ट होना होगा। यह भारतीय लोकतंत्र का मूलभूत सिद्धांत है। यदि कोई व्यक्ति या वर्ग महामारी के दौर में जवाब मांग रहा है तो उसे राष्ट्रविरोधी या महामारी के खिलाफ मुहिम को कमजोर करने वाला नहीं करार दिया जा सकता। साथ ही यह ध्यान रखा जाए कि सवाल उठाने की मंशा किसी निहित स्वार्थ से प्रेरित न हो, जो स्वास्थ्य कर्मियों जैसे उस वर्ग के मनोबल पर आघात करे, जो इस मुश्किल वक्त में मोर्चे पर सबसे आगे डटा हुआ है।

इस समय पूरी दुनिया की नजरें भारत पर लगी हुई हैं। जहां कुछ देशों ने भारत के साथ सहानुभूति जताने के साथ मदद भी पहुंचाई, वहीं अंतरराष्ट्रीय मीडिया के कुछ वर्गों ने महामारी की दूसरी लहर से निपटने में मोदी सरकार की कड़ी आलोचना की है। हालात ऐसे बन गए कि विदेश मंत्री एस जयशंकर को भारतीय राजदूतों एवं उच्चायुक्तों के साथ एक वर्चुअल कांफ्रेंस तक करनी पड़ी। उसमें जयशंकर ने राजनयिकों से कहा कि वे अंतरराष्ट्रीय प्रभाव वाले अखबारों और चैनलों पर भारत को लेकर बनाए जा रहे खराब विमर्श की काट करें। इसके बावजूद हकीकत यही है कि विमर्श की धारा को मोड़ना मुश्किल है, क्योंकि स्वास्थ्य सुविधाओं की किल्लत को नकारा नहीं जा सकता। हालांकि तमाम देशों में ऐसी किल्लत देखने को मिली, लेकिन अभी तक कहीं से ऐसे मामले सामने नहीं आए, जहां भारत जैसे किसी बड़े देश की राजधानी के प्रमुख अस्पतालों में संक्रमित लोग दाखिल होने के इंतजार में ही दम तोड़ते दिखे। स्पष्ट है कि ऐसे दृश्यों ने दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा। श्मशानों-कब्रिस्तानों के हालात पर भी दुनिया की नजर पड़ी। संभव है कि भारत में स्थित विदेशी दूतावासों ने भी पिछले तीन महीनों के घटनाक्रम की रपट अपने-अपने देश भेजी होगी, जिसमें दूसरी लहर की भयावहता का उल्लेख होगा। इससे भी कुछ असर पड़ा होगा। ऐसे में राजनीतिक दलों को अपने स्तर पर दूतावासों की मदद से प्रचार पाने के मोह से बचना होगा। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित कूटनीतिक परंपराओं का दूतावासों और भारतीय राजनीतिक बिरादरी दोनों को पालन करना चाहिए।

राजनीतिक वर्ग की एकजुटता से ही विमर्श की धारा बदली जा सकती है। इससे ही दुनिया यह समझेगी कि भारत में राजनीतिक दलों के बीच भले ही मतभेद हों, लेकिन आपदा काल में वे एक हो जाते हैं। देश की जनता को भी नेताओं की एकजुटता से प्रेरणा और हौसला मिलेगा। विदेश मंत्री जयशंकर पिछले दिनों जी-7 सम्मेलन के लिए लंदन गए। यह पश्चिमी देशों की अग्रणी अर्थव्यवस्थाओं का समूह है। ऐसे मंचों पर भारत की शिरकत उसके कद को बढ़ाती है, लेकिन यह ध्यान रखा जाए कि जब दुनिया भारत की ओर देख रही है, तब संकल्प दिखाने वाले अवसर को गंवाया नहीं जाना चाहिए।


Date:08-05-21

समवर्ती सूची का विषय बने जन स्वास्थ्य

डॉ. सूर्यकांत, ( लेखक आइएमए के नेशनल वाइस चेयरमैन हैं )

कोविड-19 महामारी ने उन कमियों को उजागर किया है, जो भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली में व्याप्त हैं। कई मसलों पर केंद्र और राज्यों के बीच असहमति पैदा हो जा रही है। महामारी को रोकने के लिए केंद्र और राज्यों के बीच सहयोग एक गंभीर आवश्यकता है और भारत में इसकी अनुपस्थिति एक बड़ी चुनौती है। कोरोना महामारी के चलते सार्वजनिक स्वास्थ्य पूर्णत: केंद्र का विषय हो या राज्य का, देश में इस पर बहस शुरू हो गई है। संविधान की सातवीं अनुसूची की दूसरी सूची के अनुसार जन स्वास्थ्य और सफाई, अस्पताल एवं औषधालय राज्यों के अधिकार में आते हैं। इस कारण महामारी के समय लोगों के स्वास्थ्य की रक्षा करना और उन्हें महामारी से बचाने की जिम्मेदारी राज्यों की अधिक हो जाती है। हालांकि चिकित्सा एवं स्वास्थ्य संबंधी कुछ कार्यक्रम जैसे चिकित्सा शिक्षा, परिवार नियोजन तथा जनसंख्या नियंत्रण केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में आते हैं। समग्र रूप से देखें तो देश में जन स्वास्थ्य कुछ मायनों में केंद्र की जिम्मेदारी है और ज्यादातर मामलों में राज्यों की। इन्हीं जिम्मेदारियों में केंद्र और राज्यों के बीच तालमेल न होने के कारण टकराव होता है और जिसका नुकसान जनता को उठाना पड़ता है।

सभी राष्ट्रीय स्वास्थ्य कार्यक्रम जैसे टीबी, एचआइवी, मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम भारत सरकार द्वारा चलाए जा रहे हैं। केंद्र सरकार के पास जन स्वास्थ्य कार्यक्रमों एवं नीतियों को सुचारु रूप से बनाने के लिए बड़े पैमाने पर आधारभूत ढांचा एवं तकनीकी विशेषज्ञ हैं। दूसरी ओर राज्यों के पास सार्वजनिक स्वास्थ्य नीतियों को स्वतंत्र रूप से आकार देने की तकनीकी विशेषज्ञता नहीं है। इसके साथ ही केंद्र सरकार के पास बजट, संसाधन, शोध एवं अंतरराष्ट्रीय सहयोग की अपार संभावनाएं रहती हैं, जबकि प्रदेश सरकारें इन मामलों में काफी पीछे रह जाती हैं। जन स्वास्थ्य राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आता जरूर है, लेकिन वह प्राथमिकता में नहीं रहता।

केंद्र ने संवैधानिक दायित्व की अस्पष्टता के बावजूद सार्वजनिक स्वास्थ्य नीतियों का निर्धारण करने में सक्रिय भूमिका निभाई है। लोक स्वास्थ्य को विशेष रूप से राज्यों के अधिकार तक सीमित करके संविधान जमीनी हकीकत की अनदेखी करता है। राज्यों में मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल खोलने, जांच सुविधा, उपचार सुविधा, बीमारियों से बचाव के तरीके, चिकित्सकों एवं स्वास्थ्य कर्मियों की सेवा शर्तों में से किसी में भी एकरूपता देखने को नही मिलती। स्पष्ट है कि इससे तालमेल बैठाने में कठिनाई होती है। कई राज्यों में चिकित्सा शिक्षा एवं चिकित्सा स्वास्थ्य, दो अलग-अलग विभाग होते हैं, जिनके बीच में कोई तालमेल नहीं होता। ऐसे में यह बिल्कुल उचित समय है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य के संबंध में संवैधानिक शक्ति के वितरण पर फिर से विचार किया जाए और एक ऐसा दृष्टिकोण अपनाया जाए, जिससे राज्य और केंद्र सहकारी भाव से काम कर सकें। इस पर एक बहस शुरू हो और जनता के बेहतर एवं समग्र्र स्वास्थ्य के लिए ‘वन नेशन वन हेल्थ पॉलिसी’ पर विचार किया जाए। यह और भी उचित होगा कि जन स्वास्थ्य के विषय को संविधान की समवर्ती सूची में डालने की पहल हो।

हाल में भारत सरकार द्वारा एक राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति तैयार की गई है। इसमें और 13वें स्वास्थ्य संबंधी कॉमन रिव्यू मिशन के निष्कर्षों से यह साफ जाहिर हुआ कि बड़े शहरों एवं जिला अस्पतालों में तो स्वास्थ्य ढांचा एवं स्वास्थ्य सुविधाएं काफी अच्छी हैं, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में इन सबका बहुत अभाव है। इसीलिए यह अनुशंसा की गई कि ग्रामीण स्वास्थ्य ढांचे को सुदृढ़ करने के लिए संभावनाएं विकसित की जाएं। 15वें वित्त आयोग को सलाह देने के लिए गठित स्वास्थ्य पर एक उच्चस्तरीय समिति ने केंद्र और राज्यों के बीच अधिकारों को संतुलित करने के लिए जन स्वास्थ्य को राज्य सूची से समवर्ती सूची में करने का सुझाव दिया था। यह सुझाव इस मकसद से दिया गया कि राज्य केंद्र की स्वास्थ्य नीति एवं राष्ट्रीय कार्यक्रमों को पूरी तरह लागू करने के लिए प्रतिबद्ध हों। इसके साथ ही ऐसे तरीके अपनाएं जाने चाहिए, जिससे राज्यों की स्वायत्तता भी बनी रहे।

2014 में भारतीय सुरक्षा संघ बनाम भारत संघ के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि संवैधानिक सिद्धांतों को राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता के साथ क्षेत्रीय विविधता के हिसाब से बनाया जाना चाहिए। सहकारी संघवाद, विधायी विषयों विशेष रूप से जन कल्याणकारी विषयों के अनुरूप शासन ढांचे को सक्षम करने की आवश्यकता है। कोरोना ने हमें दिखाया है कि वर्तमान संवैधानिक ढांचा सार्वजनिक स्वास्थ्य के विषय पर सहकारी संघवाद को कैसे बाधित करता है? सार्वजनिक स्वास्थ्य को राज्य सूची से समवर्ती सूची में रखना विकेंद्रीकरण की अवधारणा के लिए विरोधाभासी नहीं होगा, क्योंकि इस अवस्था में राज्यों को केंद्र से सार्वजनिक स्वास्थ्य हेतु वित्त के लिए बेहतर सौदेबाजी की शक्ति प्रदान करेगा और उन्हें यह अवसर देगा कि वे अनुचित आवंटन के लिए केंद्र को जिम्मेदार ठहरा सकें। यह बदलाव राष्ट्रीय लक्ष्यों का अनुपालन करते हुए राज्यों की सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रक्रियाओं को अंतिम रूप देने में सक्षम होगा। यद्यपि सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए संवैधानिक ढांचे को फिर से आकार देने की प्रक्रिया राजनीतिक और सामाजिक चुनौतियों से भरी हुई है, लेकिन कोरोना के प्रकोप ने हमें अहसास दिलाया है कि यह सही समय है जब हम इस पर चर्चा शुरू कर सकते हैं।

कोरोना महामारी के कारण ही सही, अब हमें यह सोचना होगा कि जनहित में हम जन स्वास्थ्य को समवर्ती सूची में शामिल करें। साथ ही राज्यों की स्वायत्तता को ध्यान में रखते हुए इसके क्रियान्वयन के लिए समग्र नीति तैयार करें। इसके अलावा एक अखिल भारतीय चिकित्सा संवर्ग का भी गठन करें।


Date:08-05-21

गरीब देशों को मिलेगा टीका !

संपादकीय

अमेरिका ने मंगलवार को भारत और दक्षिण अफ्रीका जैसे विकासशील देशों की अगुआई में कोरोना के टीकों का इंतजार कर रहे तमाम गरीब देशों की अपनी आबादी के लिए टीका मिल पाने की उम्मीदों को पर लगा दिए। अमेरिका ने भारत सहित कई देशों के दबाव में कोविड़ की वैक्सीन पर पेटेंट के दावे को अस्थायी रूप से वापस लेने का फैसला किया है। अमेरिका के इस कदम से ऐसे कई देशों को फायदा होगा जो कोरोना से लड़ाई के लिए अपना टीका बनाना चाहते हैं। इन देशों में भारत और दक्षिण अफ्रीका प्रमुख हैं जिनसे दुनिया भर के गरीब मुल्क सस्ते या मुफ्त टीके की आस लगाए हुए हैं। भारत और दक्षिण अफ्रीका बिना किसी कानूनी बाधा के अपने देश में अपने टीकों का उत्पादन कर सकेंगे। इससे धीरे–धीरे टीकों की कम पड़ती जा रही आपूर्ति में तेजी आने की संभावना है। हालांकि फैसले की पेचीदगी वाली प्रक्रिया के चलते इसका तुरंत लाभ मिलने की उम्मीद कम ही है। इस मामले को लेकर बाइडे़न प्रशासन तीखी आलोचनाओं का भी सामना कर रहा था। अमेरिका की व्यापार प्रतिनिधि कैथरीन ताइ का कहना है कि कोविड़ एक वैश्विक संकट है‚ इस महामारी से निपटने के लिए बड़े कदम उठाने की जरूरत है। हालांकि उनका यह भी कहना है कि अमेरिका अपनी बौद्धिक संपदा की रक्षा करने के लिए हमेशा प्रतिबद्ध रहेगा। इस बीच रूस से एक अच्छी खबर मिली है कि उसने स्पुतनिक–वी वैक्सीन की एक ड़ोज वाले वर्जन के इस्तेमाल को मंजूरी दे दी है। स्पुतनिक लाइट नाम वाली इस सिंगल ड़ोज वैक्सीन के 80 फीसद तक प्रभावी होने का दावा किया गया है। वैक्सीन विकसित करने वाले रूस के वैज्ञानिकों का दावा है कि इससे कोरोना वायरस के खिलाफ हर्ड़ इम्यूनिटी जल्द हासिल करने में मदद मिलेगी। स्पुतनिक लाइट का ट्रायल इसी साल जनवरी में शुरू किया गया था। इधर आंध्र प्रदेश के स्वास्थ्य अधिकारियों ने स्पष्ट किया है कि कोरोना का आंध्र प्रदेश स्ट्रेन‚ जिसे एन440के कहा गया है‚ बहुत संक्रामक नहीं है और बेहद कम लोगों में मिल रहा है। इस बात के कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं मिले हैं कि यह स्ट्रेन दूसरे स्ट्रेन के मुकाबल कहीं ज्यादा संक्रामक है। कुछ रिपोर्टों में कहा गया था कि यह स्ट्रेन 15 गुना अधिक घातक है‚ इससे 3 से 4 दिन में ही लोग गंभीर बीमार हो जाते हैं। कोरोना के खिलाफ लड़ाई लंबी है‚ अमेरिका के फैसले से गरीब देशों को राहत मिलेगी।


Date:08-05-21

वैदेशिक सहायता का दंश

ड़ॉ. ब्रह्मदीप अलूने

राष्ट्रीय हितों को शुद्ध लक्ष्य माना जाए तो इस समय हमारी वैदेशिक नीति सिर के बल खड़ी नजर आती है। कोरोना से हाहाकार और लोगों के चीत्कार के चित्र पूरी दुनिया को विचलित कर रहे हैं‚ वहीं भारत सरकार की महामारी से निपटने में विफलता को राजनीतिक अदूरदर्शिता की तरह देखा जा रहा है। दरअसल‚ भारत की वैक्सीन डिप्लोमेसी की नीति और उसके बाद देश में हालात बद से बदतर होने पर विदेशों से सहायता की गुहार लगाने से एक मजबूत नजर आने वाले राष्ट्र की छवि को गहरा धक्का पहुंचा है।

चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के एक सोशल मीडिया अकाउंट से भारत में कोरोना संकट का मजाक बनाया गया है। इसमें एक चित्र में एक ओर भारत में चिताएं जल रही हैं‚ वहीं चीन का राकेट अंतरिक्ष में जाने को तैयार है। दुनिया भर के समाचार पत्रों में भारत के अस्पतालों की बदहाली‚ रोते–बिलखते लोग‚ जलती चिताओं के ढेर‚ ऑक्सीजन के लिए लगी लंबी कतारें‚ श्मशान के बाहर परिजनों की अंत्येष्टि की प्रतीक्षा करते लोग‚ दाह संस्कार के ताप से गल चुकी चिमनियां और सरकारी विफलता को प्रमुखता से छापा जा रहा है। ‘गार्जियन’ ने विशेषज्ञों के हवाले से इस संक्रमण की वजहें बताते हुए लिखा है‚ वायरस गायब हो गया है। यह गलत तरीके से समझते हुए सुरक्षा उपायों में बहुत जल्दी ढील दे दी गई। शादियों और बड़े त्योहारों को आयोजित करने की अनुमति थी और मोदी स्थानीय चुनावों में भीड़ भरी चुनावी रैलियां कर रहे थे।

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने करीब डेढ़ दशक पहले विदेशी स्त्रोतों से अनुदान एवं सहायता न लेने का फैसला किया था। इस नीति का पालन आपदाओं के समय भारत ने बखूबी किया भी था। 2013 में उत्तराखंड बाढ़ और 2014 की कश्मीर बाढ़ के समय भारत ने विदेशी सहायता लेने से इंकार कर दिया था। इस समय दुनियाभर से मदद के हाथ बढ़े तो हैं लेकिन भारत सरकार की अदूरदर्शिता पर भी निशाना साधा जा रहा है। साइंस जर्नल नेचर की रिपोर्ट है कि वैज्ञानिकों की सलाह न मानकर भारत सरकार ने कोरोना नियंत्रण का अच्छा मौका खो दिया। भारत ने अपने नागरिकों की सुरक्षा को उम्र के अनुसार तय करते हुए 80 से ज़्यादा देशों में कोरोना वैक्सीन की तकरीबन साढ़े छह करोड़ डोज पहुंचाई है‚ इसमें अमेरिका और ब्रिटेन भी शामिल है। भारत में इस साल ऑक्सीज़न का बेहतर उत्पादन हुआ लेकिन इसे विदेशों में निर्यात कर दिया गया। भारतीय कंपनियों से वैक्सीन को लेकर भारत सरकार ने ऐसा कोई करार नहीं किया जिससे देश के सभी नागरिकों को वैक्सीन की उपलब्धता जल्दी सुनिश्चित हो पाती। इसी का नतीजा है कि भारत को विदेशों के सामने हाथ फैलाने को मजबूर होना पड़ा। भारत में करीब तीन महीने तक रेमडेसिविर का उत्पादन बंद था‚ अब इसकी जरूरत बढ़ने पर मांग के अनुसार आपूर्ति कर पाने में कंपनियां असमर्थ हैं। इस मामले में भी भारत को मिस्त्र‚ बांग्लादेश‚ उज्बेकिस्तान और यूएई से मदद लेने को मजबूर होना पड़ा है। इस समय अमेरिका‚ ब्रिटेन‚ फ्रांस‚ जर्मनी‚ रूस‚ आयरलैंड़‚ बेल्जियम‚ रोमानिया‚ लक्जमबर्ग‚ पुर्तगाल‚ स्वीडन‚ ऑस्ट्रेलिया‚ सिंगापुर‚ सऊदी अरब‚ हांगकांग‚ थाइलैंड़‚ फिनलैंड़‚ स्विटजरलैंड़‚ नार्वे‚ इटली और यूएई मेडिकल सहायता भारत भेज रहे हैं। इसमें ऑक्सीजन‚ वेंटिलेटर‚ मोबाइल ऑक्सीजन जेनेरेटर‚ बाईपैप और अन्य जरूरत के मेडिकल साजोसामान शामिल हैं।

भारत को पहली बार पड़ोसी देशों से मदद लेने पर मजबूर होना पड़ा है। असम सरकार भूटान की ओर ऑक्सीजन के लिए देख रही है। भारत को मदद केवल पाकिस्तान ही नहीं‚ बल्कि बांग्लादेश से भी मिल रही है। पाकिस्तान में यूरोपियन यूनियन की राजदूत एंद्रोउला कामिनारा ने ट्वीट कर पाकिस्तान की भारत के लिए एयर स्पेस का उपयोग करने की अनुमति देने की सराहना की है बांग्लादेश ने एंटी–वायरल दवाई‚ पीपीई किट्स और जिंक‚कैल्सियम‚ विटामिन सी के साथ अन्य जरूरी सामान भारत को उपलब्ध कराने को कहा है। इसके मानवीय रूपों के साथ भारत की राजनीतिक और स्वास्थ्य व्यवस्थाओं पर भी निशाना साधा जा रहा है। यूरोपीय कमीशन ने यह कहने से गुरेज नहीं किया कि भारत से मदद की गुजारिश मिलने के बाद वह जल्द से जल्द जरूरी दवाएं और मेडिकल सप्लाई भारत भेजने की तैयारी कर रहा है। सिंगापुर की हेल्थ केयर ट्रेड एसोसिएशन की सीईओ हरजीत गिल ने स्वीकार किया है कि भारत के लोग उनकी ओर मदद के लिए देख रहे हैं जिसमें खासकर ऑक्सीजन‚ पीपीई किट्स‚ दवाएं‚ वेंटिलेटर्स या अस्पताल में काम आने वाली अन्य चीजों की मांग की जा रही है। इन सबके बीच वैक्सीन निर्माता कंपनी सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के सीईओ अदार पूनावाला ने कहा है कि उन्हें धमकी के कारण भारत छोड़ना पड़ा है। उन्होंने कई राजनीतिज्ञों‚ कई राज्यों के मुख्यमंत्री और भारत के कई प्रभावशाली लोगों पर निशाना साधते हुए कहा है कि वे उन पर वैक्सीन जल्दी देने के लिए दबाव बना रहे हैं। यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पिछले साल अक्टूबर में कनाडा–इंडिया इंवेस्टर सम्मेलन में कहा था कि कोरोना के दौर में भारत ने दुनिया के करीब 150 देशों को कई दवाओं का निर्यात किया है। भारत विश्व को सबसे अधिक जेनेरिक दवाएं उपलब्ध कराने वाला देश है। भारत अकेला देश है‚ जिसके पास अमेरिकी दवा नियामक यूएसएफडीए के मानकों के अनुरूप अमेरिका से बाहर सबसे अधिक संख्या में दवा बनाने के संयंत्र हैं। भारत की इन क्षमताओं का अपने ही देश में योजनाबद्ध उपयोग किया जाता तो भारत में लाखों लोगों की जिंदगी को बचाया जा सकता था।

इस समय भारत स्याह सच्चाइयों से रूबरू है‚ स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर भारत लंबे समय से जूझ रहा है‚ और यही कारण है कि देश में लाखों लोग ऑक्सीजन‚ दवाओं और बेड की कमी से मर गए हैं। भारत को क्यूबा से सीखना चाहिए जहां वैश्विक प्रतिबंधों के बाद भी स्वास्थ्य की मुफ्त और उच्च कोटि की सेवाएं दी जाती हैं। स्वास्थ्य क्षेत्र दशकों से प्राथमिकता में रहा और उसके उजले परिणाम भी रहे हैं। कोरोना से निपटने की असफलता से भारत के राष्ट्रीय हित और वैश्विक छवि को गहरा नुकसान हुआ है। दक्षिण एशियाई देशों में चीन की स्वीकार्यता और निर्भरता बढ़ने से भारत की सामरिक चुनौतियां बढ़ सकती हैं ।महाशक्ति और मजबूत अर्थव्यवस्था के दावों की असलियत सामने आ गई है।


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