09-06-2025 (Important News Clippings)

Afeias
09 Jun 2025
A+ A-

To Download Click Here.


Date: 09-06-25

Quick is Good, But Not at Such Costs

ET Editorials

The quick rise of quick-commerce promising deliveries in minutes is the latest competitive arena in retail. For a growing consumer class treating ‘near-instant gratification’ as derigueur practice, time literally translates to money. But there’s a flip side to this fetish for fleetness. In many cases, it is turning cities without the required infrastructure into racetracks for frazzled delivery agents, and warehouses into chaotic dump’n’pick-up zones. While the allure of instant everything is undeniable, this frenzied model carries a hidden cost, as is being raised, especially by an increasing number of FMCG companies, with regards to compromised quality, and storage and handling issues at ‘dark stores’.

Many ‘dark store’ warehouses, specifi- cally tailored for q-comm ops, have goods, especially perishables, crammed into makeshift spaces rather than proper facilities, leading to compromised freshness and, on many occasions, outright safety hazards. The rush to pack and deliver results in spilled groceries, battered electronics, bruised produce are seeing customer complaints mount, and brand reputations getting hurt. Which is why it’s good to know that Food and Drug Administration (FDA) and Food Safety and Standards Authority of India (FSSAI) are upping their surprise inspections of dark stores across India.

Apart from also taking a toll on delivery agents who have to negotiate bad roads and chaotic traffic, there’s also the matter of on-road damage and battering, the bane of many a too-quick-by-far delivery. As any affected customer will state in hind- sight, quickness is no excuse for disregard for standards, safety and sustainability. Something the q-comm industry should keep foremost in mind for the sake of its own survival.


Date: 09-06-25

विश्वास के संकट से घिरी न्यायपालिका

हृदयनारायण दीक्षित, ( लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष रहे हैं )

भारतीय न्यायपालिका विश्वास के संकट से गुजर रही है। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई ने कहा है कि ‘न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की घटनाओं से जनता के विश्वास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है और इससे पूरी न्याय प्रणाली में विश्वास कम हो सकता है।’ यह गंभीर बात उन्होंने तब कही हैं, जब भ्रष्टाचार के मामले में जस्टिस यशवंत वर्मा के विरुद्ध महाभियोग पर सत्ता पक्ष विपक्षी दलों से विचार विमर्श कर रहा है। केंद्रीय संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजीजू ने बीते दिनों कहा था कि ‘न्यायपालिका में भ्रष्टाचार को राजनीतिक दृष्टि से नहीं देखा जा सकता। सरकार न्यायमूर्ति वर्मा को हटाने के महाभियोग प्रस्ताव पर सभी दलों का सहयोग चाहती है।’ उन्होंने याद दिलाया कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त समिति ने भी वर्मा को दोषी ठहराया है।

देश में न्यायिक सुधारों की मांग काफी पुरानी है। केंद्र सरकार ने हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति के लिए एक राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग बनाया था। न्यायिक सुधारों की दिशा में यह महत्वपूर्ण कदम था, पर जजों की नियुक्ति की उस प्रणाली को न्यायपालिका द्वारा निरस्त कर दिया गया था। कहा गया कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता संविधान का आधारिक लक्षण है। मुख्य न्यायधीश गवई ने भी कहा है कि वर्तमान कोलेजियम प्रणाली आलोचना से रहित नहीं हैं, पर इसका समाधान न्यायिक स्वतंत्रता की कीमत पर नहीं हो सकता।’ न्यायिक स्वतंत्रता की बात ठीक है, संवैधानिक है, पर न्यायपालिका सहित सभी संवैधानिक संस्थाओं द्वारा मर्यादा पालन जरूरी है। न्यायपालिका में भ्रष्टाचार और कदाचरण के प्रश्न लगातार उठते रहे हैं। न्यायमूर्तियों के विरुद्ध महाभियोग की कार्रवाई जटिल है। संविधान के अनुच्छेद 124 उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति एवं अनुच्छेद 217 के अनुसार उच्च न्यायालय के न्यायाधीश पर कार्रवाई के लिए लोकसभा और राज्यसभा के सदनों में विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है। दोनों सदन के सदस्यों का सामान्य बहुमत और वोट डालने वाले उपस्थित सदस्यों का दो तिहाई बहुमत अनिवार्य हैं। इसके पूर्व लोकसभाध्यक्ष/सभापति एक जांच समिति गठित करते हैं। इस जांच के बाद कार्रवाई आगे बढ़ती है।

न्यायमूर्ति वी. रामास्वामी के विरुद्ध 1993 में लोकसभा में पहला महाभियोग प्रस्ताव लाया गया था, लेकिन अपेक्षित बहुमत के अभाव में गिर गया। 2011 में कोलकाता हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति सैमित्र सेन ने राज्यसभा द्वारा पारित महाभियोग प्रस्ताव पर त्यागपत्र दे दिया था। 2015 में राज्यसभा के 58 सदस्यों ने गुजरात हाई कोर्ट के न्यायाधीश जे. पारदीवाला के विरुद्ध आरक्षण संबंधी आपत्तिजनक बयान पर महाभियोग का नोटिस दिया था। उसी साल लगभग 50 राज्यसभा सदस्यों ने न्यायमूर्ति एसके गंगेले के विरुद्ध नोटिस दिया था । उन पर जिला जज के यौन उत्पीड़न का आरोप था। जजेज इंक्वायरी एक्ट (1968) के अधीन जांच कमेटी बनाई गई थी। प्रस्ताव पर्याप्त साक्ष्य के अभाव में निरस्त हो गया। 2017 में आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के न्यायमूर्ति सीबी नागार्जुन रेड्डी के विरुद्ध भी राज्यसभा सदस्यों ने महाभियोग प्रस्ताव रखा था । 2018 में विपक्षी दलों ने प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा के विरुद्ध भी महाभियोग के प्रस्ताव का प्रयास किया था । सिक्किम हाई कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश पीडी दिनाकरन के विरुद्ध आए प्रस्ताव पर राज्यसभा के सभापति ने आरोप जांचने के लिए समिति गठित की थी। दिनाकरन ने इसी दौरान त्यागपत्र दे दिया।

भारतीय संविधान के प्रवर्तन के 75 वर्ष के भीतर महाभियोग के सिर्फ पांच प्रस्ताव सिद्ध करते हैं कि महाभियोग प्रक्रिया बहुत जटिल है। संविधान निर्माताओं ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता अक्षुण्ण रखने के लिए विशेष सुरक्षा कवच उपलब्ध कराए हैं। कायदे से न्यायपालिका को स्वयं अपने तंत्र के भीतर भ्रष्टाचार और लोक शिकायतों की जांच का कोई ढांचा विकसित करना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। संविधान निर्माता स्वतंत्र न्यायपालिका एवं सबको न्याय की गारंटी चाहते थे । संविधान सभा में (छह जून 1949) सी. दास ने कहा था, ‘विश्वास है कि डा. आंबेडकर एवं सदन के अन्य विधि विद्वान ऐसी व्यवस्था करेंगे, जिसमें लोगों को न्याय मिले।’ सभा में सुप्रीम कोर्ट के कार्य आवंटन पर बहस चल रही थी। दस ने कहा, ‘मेरे मित्र ब्रिटिश प्रणाली के न्याय निर्वचन पर क्यों मुग्ध हैं? प्रस्तावित उपबंधों के अनुसार एक न्यायालय से दूसरे एवं अंत में सर्वोच्च न्यायालय में अपील जाएगी। ऐसी हालत में जनसाधारण को न्याय कैसे मिलेगा ?’

न्याय सबकी अभिलाषा थी और है। सभा में एम. श्रीरुमल राव ने कहा, ‘न्यायालयों का जाल बिछ गया है, लेकिन इन न्यायालयों में वही जा सकते हैं जो संपन्न हैं।’

संप्रति न्यायिक प्रक्रिया बहुत महंगी है। संपन्न के लिए सर्वसुलभ है और गरीबों के लिए महादुर्लभ है। यह स्थिति उस देश की है, जहां हजारों वर्ष पहले भी सर्वसुलभ राजव्यवस्था एवं न्यायव्यवस्था थी । ऋग्वेद के रचनाकाल में ‘ग्राम्यवादिन’ न्याय की छोटी इकाई अवधेश राजपूत थी। उत्तर वैदिक काल में न्यायाधीश को स्थपति बताया गया है। बुद्ध काल की न्याय व्यवस्था बहुत लोकप्रिय थी । चंद्रगुप्त मौर्य (320 ईस्वी) के कार्यकाल में ग्राम न्यायालय, जनपद न्यायालय एवं केंद्रीय न्यायालय थे। गुप्त काल (पांचवीं सदी) की प्रशंसा में चीनी यात्री फाह्यान ने लिखा है कि ‘कानून सरल और उदार थे। अपराधों की गुद्यता के आधार पर दंड व्यवस्था है।’ आखिरकार चूक कहाँ हो रही है? निचली अदालतों से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक मुकदमों का अंबार है। विचारणीय प्रश्न है कि भ्रष्टाचार में प्रथमदृष्टया लिप्त पाए गए न्यायाधीश के विरुद्ध महाभियोग लाने के लिए सत्ता पक्ष को क्यों विवश किया जा रहा है? ज्यादातर मामलों में उच्च अदालतें यही वाक्य दोहराती हैं कि सरकारें अपना काम नहीं करतीं तो क्या हम चुप बैठें। यहां स्थिति उल्टी है। सरकार अपना पूरा काम करने को तत्पर है और न्यायपालिका मौन है।


Date: 09-06-25

भारत के समक्ष दुर्लभ खनिजों की चुनौती

प्रसेनजित दत्ता, ( लेखक बिजनेस टुडे और बिजनेसवर्ल्ड के पूर्व संपादक और संपादकीय सलाहकार संस्था प्रोजेक व्यू के संस्थापक हैं )

भारतीय इलेक्ट्रिक वाहन निर्माता कंपनियां चीन द्वारा दुर्लभ खनिज मैग्नेट पर लगाई पाबंदियों का दंश महसूस करने लगी हैं। ये मैग्नेट इलेक्ट्रिक मोटर वाहन एवं अन्य वाहन पुर्जों के लिए काफी महत्त्वपूर्ण होती हैं चीन ने 4 अप्रैल को मैग्नेट के निर्यात पर पाबंदी लगा दी थी और समाचार पत्रों की खबरों के अनुसार भारतीय वाहन पुर्जा एवं वाहन कंपनियों के पास इनका उपलब्ध भंडार समाप्त होने की कगार पर पहुंच गया है। वाहन एवं सहायक उद्योग का एक प्रतिनिधिमंडल संभवतः चीन जाकर इस बात का पता लगाना चाहता है कि दुर्लभ खनिज की आपूर्ति की राह में रोड़ा बनने वाली नई प्रक्रियात्मक बाधाओं का बातचीत के जरिये समाधान निकल सकता है या नहीं। भारतीय ईवी कंपनियां मदद के लिए केंद्रीय वाणिज्य मंत्रालय के अधिकारियों से भी गुहार लगा रही हैं।

आपूर्ति से जुड़ी यह समस्या स्पष्ट संकेत है कि भारत के ईवी एवं स्वच्छ ऊर्जा से जुड़े बड़े लक्ष्य किस तरह आयात (ज्यादातर ) पर निर्भर हैं। केवल मैग्नेट ही नहीं बल्कि भारत दुर्लभ तत्त्वों ( 17 खनिजों का समूह जिसे आवर्त सारणी में लैंथेनाइड के रूप में वर्गीकृत किया गया है) के लिए आयात पर निर्भर है। दुर्लभ खनिज कई महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों जैसे हरित ऊर्जा इलेक्ट्रॉनिक्स (रक्षा इलेक्ट्रॉनिक्स सहित) एवं कई अन्य के लिए अति आवश्यक माने जाते हैं। हालांकि, इन खनिजों की काफी कम मात्रा की जरूरत होती है मगर तब भी वे काफी जरूरी होते हैं।

भारत के लिए मुश्किलें यहीं खत्म नहीं होतीं । स्वच्छ ऊर्जा की तरफ कदम बढ़ाने के लिए जरूरी खनिज जैसे लीथियम, कोबाल्ट, ग्रेफाइट और निकल की आपूर्ति में आने वाली बाधाएं भी भारत को पीछे धकेल सकती हैं। भारत महत्त्वपूर्ण धातु एवं खनिजों की आपूर्ति व्यवस्था सुनिश्चित करने में कामयाब नहीं रहा है और इस बात को नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता। यह स्थिति तब है जब भारत में उन खनिजों के बड़े भंडार हैं जिनका वह आयात करता है। केंद्र एवं राज्य सरकारें खनिजों की खोज एवं उनके खनन में पिछले कई दशकों से सुस्त रही है और लालफीताशाही का शिकार रही हैं। सबसे अफसोसनाक बात यह रही है। कि सरकार ने महत्त्वपूर्ण खनिजों के प्रसंस्करण की पूरी तरह अनदेखी की है। इसका सीधा असर यह होगा कि भारत जब तक युद्ध स्तर पर इस दिशा में आगे नहीं बढ़ेगा तब तक आयात पर उसकी निर्भरता बनी रहेगी। हाल में सरकार ने दुर्लभ धातुओं सहित खनिजों की खोज एवं उनका खनन तेज करने के लिए कुछ घोषणाएं की हैं। मगर ये सब सामान्य घोषणाएं हैं जिनसे बड़ा फर्क पड़ता नहीं दिखाई दे रहा है इसलिए सरकार को नए सिरे से सोचने की जरूरत है। लीथियम, दुर्लभ खनिजों, ग्रेफाइट और कोबाल्ट सहित कई खनिजों के प्रसंस्करण में भारत को एकदम नए सिरे से काम करना होगा ।

पिछले कुछ वर्षों से वैश्विक स्तर पर लीथियम, दुर्लभ खनिज तत्व, कोबाल्ट, निकल और ग्रेफाइट पर चीन की पकड़ बढ़ती ही जा रही है। अमेरिका ब्रिटेन, यूरोपीय संघ और भारत सहित अधिकांश देश चीन से आपूर्ति तंत्र में आने वाले व्यवधानों के जोखिम से अछूते नहीं रहे हैं। अब वे धीरे-धीरे चीन पर निर्भरता कम करने के लिए कदम उठा रहे हैं मगर इसमें कई वर्ष लग जाएंगे।

भारत जिन महत्त्वपूर्ण खनिजों का आयात करता है उनमें कुछ (जैसे कोबाल्ट और दुर्लभ खनिजों) के विशाल भंडार यहां उपलब्ध हैं। बताया जा रहा है कि भारत में कोबाल्ट का एक चौथाई या पांचवां सबसे बड़ा अनुमानित भंडार उपलब्ध है। दुर्लभ खनिजों में दिलचस्पी बढ़ने के बाद देश के कई हिस्सों में इन तत्त्वों की खोज हुई है। लीथियम जैसे दूसरे खनिजों की बात करें तो भारत और चीन दोनों में कहीं भी ज्ञात विशाल भंडार नहीं है। ऑस्ट्रेलिया, अर्जेन्टीना, बोलीविया और चिली में लीथियम के बड़े भंडार उपलब्ध हैं और अमेरिका में भी इसकी कमी नहीं हैं मगर चीन की इसलिए तूती बोलती है क्योंकि उसने लीथियम और कोबाल्ट दोनों के ही सबसे बड़े प्रसंस्करण संयंत्र स्थापित किए हैं। डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कॉन्गो में कोबाल्ट का सबसे बड़ा ज्ञात भंडार है मगर चीन ने वहां बड़े खदानों पर नियंत्रण कर एक मजबूत आपूर्ति व्यवस्था विकसित कर ली है। इसके साथ ही चीन ने कोबाल्ट के परिष्करण के लिए एक बड़ी प्रसंस्करण क्षमता भी स्थापित कर ली है। दुर्लभ खनिजों और ग्रेफाइट में चीन खनन और प्रसंस्करण दोनों में ही आगे है।

पिछले कई दशकों के दौरान भारत ने जरूरी खनिजों की खोज एवं उनके खनन पर काफी कम ध्यान दिया है। इन खनिजों की खोज एवं उनके खनन की जिम्मेदारी कुछ गिनी-चुनी सरकारी कंपनियों को दी गई है। हालांकि, भारत में भी अब नीलामी के जरिये निजी क्षेत्र को अनुमति देने का सिलसिला शुरू हो गया है मगर इस प्रक्रिया को बहुत अधिक सफलता नहीं मिली है। वैश्विक निजी कंपनियां खोज एवं अन्वेषण में बड़े जोखिम लेने के लिए अधिक मुनाफे की मांग कर रही हैं और अब तक भारत में नीलामी का ढांचा उन्हें आकर्षित करने में कामयाब नहीं लग रहा है।

यह भी सच है कि भारत ने प्रसंस्करण क्षेत्र पर भी ध्यान नहीं दिया है। प्रसंस्करण क्षेत्र पर ध्यान देने से आयात पर निर्भरता कम करने में मदद मिलेगी। हमें इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक सुनियोजित उत्पादन- संबंधी प्रोत्साहनों (पीएलआई) योजना की जरूरत है। इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि प्रसंस्करण कार्यों से देश में उत्सर्जन बढ़ता है मगर उपयुक्त नीतियों के जरिये इस समस्या का असर कम किया जा सकता है। लीथियम, कोबाल्ट या दुर्लभ खनिजों के साथ प्राकृतिक हाइड्रोजन भंडारों और थोरियम (परमाणु ऊर्जा में इसकी उपयोगिता को देखते हुए) को भी खोज एवं खनन की प्राथमिकताओं में शामिल किया जाना चाहिए। ये अगले कुछ दशकों में ऊर्जा उत्पादन क्षमताओं को नई दिशा देंगे। पहला थोरियम आधारित बिजली संयंत्र चीन में तैयार हो चुका है और अमेरिका भी थोरियम आधारित परमाणु ऊर्जा में शोध कर रहा है। यह खनिज भविष्य में काफी उपयोगी होगा और अच्छी बात यह है कि भारत में थोरियम का बड़ा भंडार मौजूद है।

प्राकृतिक हाइड्रोजन किसी भी हरित हाइड्रोजन परियोजना की तुलना में काफी सस्ता होगा। इसमें आत्मनिर्भरता सुनिश्चित नहीं करने की स्थिति में भारत को चीन एवं उन दूसरे देशों पर निर्भर रहना होगा जो इन क्षेत्रों में प्रसंस्करण एवं खनन क्षमता विकसित कर रहे हैं। वर्ष 2030 तक दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की राह पर आगे बढ़ता दिख रहा भारत दूसरे देशों पर निर्भर रहने का जोखिम मोल नहीं ले सकता।


Date: 09-06-25

तरक्की का पुल

संपादकीय

सड़कें और रेल पटरियां किसी भी देश की विकास रेखा मानी जाती हैं। यही आधारभूत ढांचे का सबसे मजबूत पक्ष होती हैं। इसलिए हर देश द्रुतगामी मार्गों और रेल पटरियों के विकास तथा विस्तार पर विशेष ध्यान देता है। जम्मू-कश्मीर की चिनाब नदी पर बने मेहराबदार पुल को इस अर्थ में देखा जा सकता है। जम्मू-कश्मीर अभी तक देश के रेल संजाल से कटा हुआ था। इस पुल के चालू हो जाने के बाद वह भी देश की मुख्यधारा रेल यातायात से जुड़ गया है। यह दुनिया का सबसे ऊंचा पुल है, एफिल टावर से भी ऊंचा। इसे बनाना निस्संदेह बड़ी चुनौती थी। जिस इलाके में इसे बनाया गया है, वह भूकम्प की दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील है। यहां हर समय भूकम्प का खतरा बना रहता है। फिर, ऊंचाई अधिक होने के कारण इस पर पड़ने वाले वायुदाब और मौसम के प्रकोप से बचाव के उपाय करना भी कठिन था। मगर काबिल अभियंताओं ने इन तमाम चुनौतियों को स्वीकार किया और एक मिसाल के रूप में इसे खड़ा कर दिया। इसे बनाने में लंबा समय लग गया। इस दौरान कई तरह की अड़चनों का भी सामना करना पड़ा। मगर अब इसके बन कर तैयार हो जाने से अनेक कठिनाइयां दूर हो जाने की उम्मीद जगी है।

हालांकि कश्मीर और लद्दाख सड़क मार्ग से अच्छी तरह जुड़े हैं। इन क्षेत्रों में नई सुरंगें बन जाने से सड़कों पर वाहनों की गति भी बढ़ गई है, मगर पहाड़ी क्षेत्रों में सड़कों के जरिए आवागमन उस तरह कभी आसान और सुविधाजनक नहीं रहता, जिस तरह रेल पटरियों से होता है। रेल मार्ग के जरिए न केवल मुसाफिरों की आवाजाही सुगम हो जाती है, बल्कि माल ढुलाई में बहुत आसानी होती है। रेल मार्गों का विकास औद्योगिक उन्नति के लिहाज से बहुत जरूरी माना जाता है इस अर्थ में चिनाब पुल के खुल जाने से कश्मीर में औद्योगिक विकास और रोजी-रोजगार के नए अवसर पैदा होने की संभावनाएं खुल गई हैं। वहां के हस्तशिल्प और कृषि उत्पाद अब आसानी से देश के बाजारों तक पहुंच सकेंगे। जो कश्मीरी युवा और बहुत सारे स्थानीय लोग आमतौर पर पर्यटन पर निर्भर थे और वर्ष के कुछ महीनों में ही कारोबार कर पाते थे, उन्हें अब पूरे साल कारोबार का अवसर मिल सकेगा। स्वाभाविक ही, इस तरह वहां बेरोजगारी कम होगी और जो युवा आतंकी संगठनों के बरगलाने से गुमराह हो जाया करते थे, उन्हें तरक्की का रास्ता नजर आएगा।

चिनाब पुल शुरू हो जाने के बाद इस पर तेज रफ्तार गाड़ियों की आवाजाही बढ़ेगी, तो वहां सैलानियों का पहुंचना भी तेज होगा। पाकिस्तान की कोशिश रही है कि कश्मीर को किसी तरह भारत के दूसरे हिस्सों से अलग-थलग रखा जाए। इस तरह चिनाब पुल एक तरह से उसकी कोशिशों पर पानी फेरने में मददगार होगा। दूसरी बात कि यह पुल बन जाने से कश्मीर घाटी और लद्दाख तक सैन्य साजो-सामान और सैनिकों की पहुंच तेज हो जाएगी। अभी रोज ही लगभग पूरा दिन लगा कर सैन्य टुकड़ियां श्रीनगर से जम्मू और जम्मू श्रीनगर पहुंचती हैं। प्रधानमंत्री ने पुल के साथ-साथ तेज रफ्तार वंदे भारत गाड़ी को भी हरी झंडी दिखाई। यानी अब बहुत कम समय में श्रीनगर तक पहुंचना संभव हो गया है। इस तरह यह पुल न केवल इंजीनियरिंग का एक अद्भुत शाहकार, बल्कि तरक्की की नई राह खोलने का माध्यम भी बन गया है।


Date: 09-06-25

विवेक ही कारगर

संपादकीय

प्रधान न्यायाधीश बी आर गवई का यह कहना कि न्यायिक निर्णय लेने में प्रौद्योगिकी को मानव मस्तिष्क का स्थान नहीं लेना चाहिए अत्यंत विचारणीय तथ्य है, प्रौद्योगिकी मानव मस्तिष्क का स्थान भला कैसे ले सकती है जबकि उसकी भूमिका सहायक से अधिक नहीं हो सकती । न्यायमूर्ति गवई लंदन विश्वविद्यालय से संबद्ध स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज (एसओएएस) में ‘भारतीय कानूनी प्रणाली में प्रौद्योगिकी की भूमिका’ विषय पर आयोजित व्याख्यान को संबोधित कर रहे थे । उनका यह कहना बिल्कुल उचित है कि स्वचालित वाद सूचियों, ‘डिजिटल कियोस्क ‘ और आभासी सहायकों जैसे नवाचारों का स्वागत किया जा सकता है। पर विवेक, सहानुभूति और न्यायिक व्याख्या बेशकीमती हैं। प्रौद्योगिकी इनका स्थान कभी नहीं ले सकती। भारत के पास तकनीकी दक्षता, दूरदर्शिता और लोकतांत्रिक जनादेश है, जिससे समानता, सम्मान और न्याय के हमारे मूल्यों को प्रतिबिंबित करने वाली प्रणालियां विकसित की जा सकती हैं। प्रधान न्यायाधीश का पद ग्रहण करते ही न्यायमूर्ति गवई ने न्यायपालिका में कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) और उभरती प्रौद्योगिकियों के नैतिक उपयोग पर उच्चतम न्यायालय के अनुसंधान और योजना केंद्र के साथ चर्चा की शुरुआत की थी। प्रधान न्यायाधीश की इस बात से सहमत हुए बिना नहीं रहा जा सकता कि प्रौद्योगिकी का उपयोग मानवीय विवेक का स्थान लेने के लिए न किया जाए। हालांकि कुछ मामलों में न्यायपालिका ने प्रौद्योगिकी को अपनाना शुरू किया है, लेकिन एआई के इस्तेमाल के मामले में केस प्रबंधन से लेकर कानूनी अनुसंधान, और दस्तावेज के अनुवाद तक भरपूर सावधानी जरूरी है। दुनिया भर में कानूनी प्रणालियों में एआई के नैतिक उपयोग पर गंभीर बहस चल रही है। एल्गोरिदम संबंधी पूर्वाग्रह, गलत सूचना, आंकड़ों में हेरफेर और गोपनीयता जैसे मामलों ने सबकी चिंता बढ़ाई हुई है। पीड़ित की पहचान उजागर होने का खतरा भी बना रहता है। इस मामले में स्पष्ट प्रोटोकॉल नहीं है। दूसरे, एआई उपकरणों के उचित विनियमन और निगरानी के अभाव में वे मनगढ़ंत उद्धरण या पक्षपातपूर्ण सुझाव दे सकते हैं। न्याय तक पहुंच केवल न्यायपालिका की जिम्मेदारी नहीं है। यह एक साझा राष्ट्रीय प्रतिबद्धता है। सुलभ, पारदर्शी और समावेशी न्याय सबकी जरूरत है।


Date: 09-06-25

विज्ञान पर विपत्ति

संपादकीय

शिक्षा, विज्ञान और शोध की दुनिया में चिंता की लहर तेज होती जा रही है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अन्य देशों के छात्रों, वैज्ञानिकों के खिलाफ जिस तरह के कदम उठा रहे हैं, उससे खुद अमेरिका के वैज्ञानिक चिंतित हैं। भारत जैसों देशों से ‘ब्रेन ड्रेन’ या प्रतिभा पलायन से अमेरिका को लंबे समय से लाभ होता रहा है, पर अब यह स्थिति पलटने लग रही है। ट्रंप चाहते हैं कि विदेशी छात्र अमेरिका पढ़ने के लिए नहीं आएं या कम आएं, ताकि अमेरिकी विश्वविद्यालयों में जो जगह खाली , वे अमेरिकी छात्रों को हासिल हो सकें। ट्रंप ने अनेक देशों के नागरिकों के अमेरिका में प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया है। ये ऐसे उपेक्षित और गरीब देश हैं, जहां भांति-भांति की बीमारियों का प्रकोप रहा है। इन देशों पर लगे प्रतिबंध से बीमारियों के अध्ययन में परेशानी होगी, जिसे लेकर खुद अमेरिकी वैज्ञानिक चिंतित हैं। नेचर की रिपोर्ट के अनुसार, कैलिफोर्निया के विकासवादी जीव विज्ञानी क्रिस्टियन एंडरसन का कहना है कि यात्रा प्रतिबंध संक्रामक रोग अनुसंधान, समाधान और सहयोग के लिए बेहद बुरा साबित होगा।

ट्रंप प्रशासन द्वारा शिक्षा व शोध खर्च में कटौती और विदेशी छात्रों पर प्रतिबंध के कारण वहां से प्रतिभा पलायन शुरू हो चुका है। अमेरिकी शोधकर्ताओं की आशंकाएं सच साबित हो रही हैं। अमेरिका की समृद्ध विज्ञान धारा सूख रही है और चीन जैसे देश अवसर का पूरा लाभ उठा रहे हैं। नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज की अध्यक्ष मार्सिया मैकनट कहती हैं, यह विज्ञान की महाशक्ति बने रहने की ऐसी दौड़ है, जो कभी खत्म नहीं होती है। अब जो नुकसान अमेरिका को हो रहा है, उसकी भरपायी बहुत मुश्किल होगी। ध्यान देने की बात है कि साल 2022 में चीन से 48 प्रतिशत से ज्यादा पेटेंट आवेदन प्राप्त हुए थे, जबकि अमेरिका से पांच प्रतिशत आवेदन भी नहीं मिले थे। नेशनल साइंस फाउंडेशन, जो अमेरिका में मौलिक विज्ञान अनुसंधान के लिए बहुत अधिक धन मुहैया कराता है, पहले से 35 वर्षों में सबसे धीमी गति से अनुदान दे रहा है। विश्वविद्यालय भी स्तब्ध देख रहे हैं, क्योंकि प्रशासन अमेरिका में पढ़ने वाले विदेशी छात्रों की संख्या को सीमित करने की कोशिश कर रहा है। इससे अमेरिका को न केवल ज्ञान, बल्कि धन के स्तर पर भी नुकसान होगा। अकेले भारत कोही अगर देखें, तो साल 2023-24 में 3,30,000 से ज्यादा भारतीयों ने अमेरिका में पढ़ाई की, जिससे अमेरिकी अर्थव्यवस्था में करीब 10 अरब डॉलर का निवेश हुआ। अफसोस, ट्रंप प्रशासन को न विज्ञान की चिंता है और न आर्थिक नुकसान की।

ट्रंप प्रशासन की नीतियों से कनाडा, यूरोप, चीन इत्यादि देशों की और प्रतिभा का पलायन बढ़ रहा है। अमेरिकी नौकरियों के लिए कनाडा से 13 प्रतिशत और यूरोप से 41 प्रतिशत कम आवेदन आए हैं। मतलब, अमेरिका आकर्षण खोने लगा है। इधर, भारतीयों को वीजा देते समय उनके पांच साल के सोशल मीडिया अकाउंट को खंगाला जा रहा है। जिन लोगों में थोड़ी भी आक्रामकता है या अमेरिका के प्रति विरोध भाव है, उनके लिए अमेरिका के रास्ते बंद हो गए हैं। अमेरिका में विज्ञान के समग्र बजट में 40 प्रतिशत से 70 प्रतिशत तक की कटौती कर दी गई है। ट्रंप और एलन मस्क के बीच विवाद से भी अमेरिका की वैज्ञानिक प्रगति में अड़चनें बढ़ेंगी। खुद अमेरिकी वैज्ञानिक भी मानने लगे हैं कि दुनिया की सफलतम अंतरिक्ष एजेंसी नासा के बजट में भारी कटौती होने से पूरी दुनिया के वैज्ञानिक विकास पर असर पड़ेगा


Date: 09-06-25

शहरी विकास ने मानसून को खलनायक बना दिया

शालिनी उमाचंद्रन, ( एडिटर मिंट लॉन्ज )

पिछला पखवाड़ा मेरे लिए बारिश से हुए नुकसान की बुरी खबरों से भरा रहा। मानसून की शुरुआत बाढ़ और भूस्खलन की डरावनी सुर्खियों के साथ हुई। मैं तमिलनाडु में ऊटी-मेट्टूपलायम मार्ग पर मोटरसाइकिल से सफर कर रही थी। चारों ओर समुद्र सरीखा मंजर था । बारिश का पानी घरों, सड़कों, यहां तक कि एक्वा लाइन मेट्रो स्टेशन पर भी भर गया था।

भारत में गर्मी चाहे जैसी भी पड़े, बारिश का मौसम आते ही बदलाव आ जाता है। बारिश में हम चाय-पकौड़े के साथ इसका लुत्फ उठाते हैं, हमारी त्वचा पर ठंडी हवा के स्पर्श हमें रोमांचित करते हैं और बादलों से भरा आसमान हमें आनंदित करता है।

बचपन में हमें मौसम की पहली बारिश में भींगने को कहा जाता था, ताकि हम अपने चेहरे और हथेलियों पर बूंदों को महसूस कर सकें। महीनों से तप रही धरती पर जब बारिश की पहली बूंद पड़ती, तो उसे उठी सोंधी खुश्बू के साथ हम बरसात के मौसम का आनंद उठाते रहे हैं। बादलों को लेकर हमारे यहां न जानें कितनी कविताएं रची गई होंगी । कालिदास ने मेघदूतम् में घुमड़ते बादलों को लेकर विरह के सौ से अधिक श्लोक लिखे हैं। मेघों को लेकर हिन्दुस्तानी में मेघ और मल्हार से लेकर कर्नाटक में अमृतवर्षिणी तक कई शास्त्रीय राग स्त्रीय राग हैं। बारिश के दृश्य पुरानी फिल्मों का जरूरी हिस्सा हुआ करते थे। तब मूसलाधार बारिश में हमारी सारी झिझक भी बह जाया करती थी। देश भर में मानसून के आगमन के साथ ही त्योहारों के मौसम भी आ जाते हैं। देश की हर भाषा में क्षेत्र विशेष की विशिष्ट बारिश के प्रकारों का वर्णन करने के लिए कई-कई शब्द हैं।

लेकिन रुकिए। भारत की अर्थव्यवस्था और हमारे जीवन में मानसून की इतनी महत्वपूर्ण भूमिका के बावजूद इसकी शुरुआती राहत अब जल्दी ही चिंता में बदल जाती है, जब बारिश के साथ जीवन की वास्तविकता सामने आती है। प्रकृति से बिल्कुल कटे और बेढब बुनियादी ढांचे वाले शहरों में हम अब आसमान को घबराहट के साथ देखने लगे हैं। अच्छे- खासे बसाए गए शहरों की वायरिंग को शॉर्ट सर्किट करने के लिए बस कुछ घंटों की बारिश ही काफी है। शहरों के बीच प्राकृतिक रूप से मौजूद ताल-तलैयों को कंक्रीट के जंगल से भर दिया गया है। सड़कों के चौड़ीकरण के लिए पहाड़ों को काट दिया गया है और पानी के कुदरती प्रवाह और पानी को सोखने वाले स्रोतों को नष्ट कर दिया गया है। बारिश के पानी को पहले धरती सोख लेती थी। लेकिन यह अब सड़कों पर भरता है और उनको तालाब बना देता है। सड़कों पर भरा पानी यातायात को भी रोकता है।

देश के शहरों में बड़ी संख्या में लोग जर्जर और छोटे मकानों में रहते हैं। बारिश का पानी उनके सामान पर टपकता है, जो उनके मन की शांति के साथ-साथ कीमती सामान को भी नष्ट कर देता है। पहाड़ों की पारिस्थितिकी पर ध्यान दिए बिना हमने उनको छुट्टियां मनाने की जगह और रिसॉट्स के तौर पर उपयोग करना शुरू कर दिया है। लेकिन इस मौसम के दौरान पहाड़ों में भूस्खलन और बाढ़ का खतरा बढ़ गया है। इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन ने भी मानसून की चाल को बिगाड़ा है। पहले जो बारिश हफ्तों में हुआ करती थी, वह जलवायु परिवर्तन के कारण अब कुछ ही घंटों में हो जा रही है। 2009 के बाद इस साल मानसून समय से बहुत पहले आया है। यह 24 मई को केरल में प्रवेश कर गया। हाल के वर्षों में सामान्य वर्षा होने के बावजूद इसका वितरण विभिन्न क्षेत्रों में अनिश्चित रहा है। कई बार अत्यधिक बारिश, तो कई बार सूखे ने जान-माल और आजीविका के साधनों को अपूरणीय क्षति पहुंचाई है।

मानसून कभी हमारे लिए प्रेरणा और चिंतनशील विचारों का स्रोत था। लेकिन हमने इसे एक विनाशकारी, अप्रत्याशित शक्ति में बदल दिया है। बारिश एक तरफ पेड़ों और झाड़ियों पर जमी गंदगी को धो देती है, तो दूसरी ओर यह प्रकृति के प्रति हमारी घोर लापरवाही, शहरी नियोजन के प्रति आपराधिक शिथिलता और पर्यावरण के प्रति घोर उपेक्षा को भी उजागर करती है। मानसून अभी भी हमारे जीवन के केंद्र में है, लेकिन एक खलनायक के रूप में। और इसे खलनायक बनाने के जिम्मेदार हम ही हैं।