08-04-2023 (Important News Clippings)

Afeias
08 Apr 2023
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Date:08-04-23

Remove Bumps on The Learning Curve

ET Editorials

Writing a textbook is a challenging task. It requires the author(s) to be able to explain complex issues in a simple and interesting manner without dumbing things down to the lowest-commondenominator level — that, too, to young, impressionable minds. Syllabus reading is about instilling a sense of reasoning, context and ‘truthfulness’. This is especially true of ‘subjective’ subjects like history and political science that are habitually contested by adults (sic). The latest controversy about textbook excisions becomes especially problematic when the very process of syllabus-making seems to be shrouded in opaqueness and fanciful improvisation.

History being the most contentious of subjects — ‘Who controls the past controls the future’ being George Orwell’s operative words from his ‘off-syllabus’ 1949 novel ‘Nineteen EightyFour’ — a better understanding of the past requires bringing different perspectives together within the covers of the textbook, which is not to be confused, or passed on, as a manifesto. In the context of the National Council of Educational Research and Training (NCERT) excisions, the most worrying aspect is not the excisions themselves — they can be put back — but the process by which they were taken out, if any.

What is required of a liberal, open, democratic society — no matter what pointers to past ‘statist censorship’ under various regimes may have been — is to establish and nurture a transparent, dialogue-based process that ensures that any charge of ideological bias, or fashionable ad-hocism pegged to ‘ideology’, is not just avoided but seento be avoided. One must spare young minds the usual whataboutery of contemporary politics and let them learn about the world, with its warts and all. It is hard enough.


Date:08-04-23

नई शिक्षा नीति का फोकस नौकरियों के निर्माण पर

पंकज बंसल, ( डिजिटल रिक्रूटमेंट प्लेटफॉर्म और वर्क यूनिवर्स के सह-संस्थापक )

भारत के शिक्षा तंत्र की लम्बे समय से यह कहकर आलोचना की जाती रही है कि वह तोता-रटंत की प्रणाली का पालन करता है, उसका पाठ्यक्रम आउटडेटेड है और उसमें शोध व इनोवेशन के ज्यादा अवसर नहीं हैं। इस पृष्ठभूमि में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2022 एक स्वागतयोग्य कदम है। शिक्षा मंत्री डॉ. धर्मेंद्र प्रधान कहते हैं, नई शिक्षा नीति का ध्यान इस पर केंद्रित है कि स्कूलों में विद्यार्थियों को इस तरह से प्रशिक्षण दें कि उनके रोजगार पाने की सम्भावनाओं में वृद्धि हो। साथ ही भारतीय भाषाओं को भी महत्व दिया जाए। तो देखते हैं मौजूदा परिदृश्य में नई शिक्षा नीति क्या प्रभाव डाल सकती है।

शिक्षा प्रणाली को रीस्ट्रक्चर करना

नई शिक्षा नीति का लक्ष्य भारत की शिक्षा प्रणाली को सिरे से बदलकर उसे उसकी पुरानी परिपाटी से बाहर लाना है। इसके लिए उसे मौजूदा पाठ्यक्रमों में अहम बदलाव करना होंगे, शिक्षा की परम्परागत रीतियों को बदलना होगा और छात्रों में क्रिटिकल-थिंकिंग और समस्याओं को सुलझाने वाले कौशल का विकास करना होगा।

डिजिटल एजुकेशन व स्किल्स पर फोकस

कोविड के दौरान डिजिटल शिक्षा की जरूरत पर सबका ध्यान गया था। यही कारण है कि नई शिक्षा नीति में टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल को महत्व दिया गया है। यह नीति उच्च-गुणवत्ता के डिजिटल संसाधनों- जिनमें ई-बुक्स, ई-कंटेंट और ऑनलाइन कोर्स शामिल हैं- तक सबकी पहुंच सुनिश्चित करने पर ध्यान केंद्रित करती है। वह राष्ट्रीय शैक्षिक प्रौद्योगिकी फोरम नामक एक स्वायत्त संस्था के विकास पर भी जोर देती है। साथ ही उसका फोकस नए जमाने की डिजिटल स्किल्स पर भी है, जिससे विद्यार्थी जॉब-रेडी बन सकें। व्हीबॉक्स के सीईओ निर्मल सिंह के मुताबिक डिजिटल स्किल्स पर फोकस से टीयर-2 और टीयर-3 शहरों में माइक्रो-आंत्रप्रेन्योर्स के सृजन में मदद मिलेगी, जिससे 2030 तक पांच करोड़ अतिरिक्त नौकरियां निर्मित हो सकती हैं।

कौशल-आधारित पाठ्यक्रम

नई शिक्षा नीति उद्योग और शिक्षा के सहयोग के महत्व को समझती है और उनके बीच के अंतराल को पाटने के लिए ऐसे कौशल-आधारित पाठ्यक्रम का विकास करना चाहती है, जो उद्योग-केंद्रित हो। इससे उच्च शिक्षा संस्थान विद्यार्थियों को नौकरियों के लिए तैयार बना सकेंगे। शिक्षा नीति का सुझाव है कि प्रोफेसरों के रूप में इंडस्ट्री-प्रोफेशनल्स और विशेषज्ञों को नियुक्त किया जाए, ताकि कक्षाओं में उनके वास्तविक अनुभवों का लाभ विद्यार्थियों तक पहुंचाया जा सके।

विविधतापूर्ण शिक्षा

नई शिक्षा नीति यह भी प्रस्ताव रखती है कि विद्यार्थियों को वैसी विविधतापूर्ण शिक्षा दी जाए, जिसमें कला, मानविकी, विज्ञान और कौशल-आधारित पाठ्यक्रमों का समावेश हो। सनस्टोर यूनिवर्सिटी के सीईओ आशीष मुंजाल ने एक चर्चा में कहा था कि क्रिटिकल थिंकिंग स्किल्स 21वीं सदी के जॉब-मार्केट में सफल होने के लिए बहुत जरूरी हैं। नई शिक्षा नीति का विज़न यह है कि पेशेवर संस्थानों को 2030 तक उच्च शिक्षा के मल्टीडिसिप्लिनरी संस्थानों में परिवर्तित कर दिया जाए। स्टेम प्रोग्राम्स के अंडरग्रैजुएट्स व पोस्ट-ग्रैजुएट्स को सलाह दी जाती है कि वे अपनी पढ़ाई में 8 से 18 प्रतिशत तक सामाजिक विज्ञानों और मानविकी अध्ययन की शाखाओं का भी समावेश करें, ताकि उन्हें बुनियादी महत्व के विषयों की जानकारी मिले।

चयन-आधारित क्रेडिट प्रणालियां और प्रवेश व निर्गम के एकाधिक विकल्प

नई शिक्षा नीति ने जो चयन-आधारित क्रेडिट प्रणाली और प्रवेश व निर्गम के एकाधिक विकल्पों को सामने रखा है, उससे एक लचीली प्रणाली का विकास हुआ, जो क्रेडिट के ट्रांसफर की सुविधा दे सके और कुछ अनिवार्य व कुछ चयनित विषयों के सामंजस्य से अधिक विकल्प प्रस्तुत करे। मुंजाल कहते हैं, इससे विद्यार्थी अपनी पसंद के कोर्स चुन सकेंगे और अपने कॅरियर के लक्ष्य तय कर सकेंगे। इससे हमारी उच्च शिक्षा प्रणाली अधिक प्रगतिशील बन सकेगी।

रिसर्च और इनोवेशन को बढ़ावा

सरकार एक ऐसा इकोसिस्टम बनाना चाह रही है, जो शिक्षा में उद्यमिता, रचनात्मकता और इनोवेशन को बढ़ावा दे। नई शिक्षा नीति ने एक राष्ट्रीय शोध फाउंडेशन के गठन का प्रस्ताव रखा है, जिसे आगामी पांच वर्षों में 50 हजार करोड़ की वित्तीय मदद दी जाएगी, ताकि भारतीय शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों में रिसर्च को बढ़ावा दिया जा सके।


Date:08-04-23

विराम का अर्थ

संपादकीय

भारतीय रिजर्व बैंक के रेपो दरों को अपरिवर्तनीय रखने के फैसले पर कुछ लोगों को हैरानी है। इसलिए कि जिस तरह उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित महंगाई छह फीसद से ऊपर बनी हुई है और दुनिया के बैंक अपनी ब्याज दरों में लगातार बदलाव कर रहे हैं, उसे देखते हुए उम्मीद की जा रही थी कि भारतीय रिजर्व बैंक भी अपनी दरों में कम से कम पच्चीस आधार अंक की बढ़ोतरी करेगा। मगर रिजर्व बैंक का कहना है कि फिलहाल महंगाई काबू में है, विदेशी निवेश आ रहा है, आर्थिक विकास दर अनुमान के मुताबिक सुदृढ़ बनी हुई है, इसलिए अभी रेपो दरों में किसी प्रकार के बदलाव की जरूरत नहीं है। इस फैसले को रिजर्व बैंक ने विराम बटन दबाना बताया है। यानी आगे स्थितियों के मुताबिक रेपो दरों में बदलाव संबंधी कदम उठाए जाएंगे। रिजर्व बैंक ने दरअसल यह फैसला उद्योग परिसंघ की सलाह पर किया है। इस फैसले से निस्संदेह उन लोगों ने राहत की सांस ली है, जिन्होंने घर, वाहन, कारोबार आदि के लिए बैंकों से कर्ज लिया है। पिछले वित्तवर्ष में महंगाई पर काबू पाने के मकसद से रेपो दरें छह बार बढ़ाई गई थीं। इससे कर्ज लेने वालों पर पहले ही बोझ बढ़ गया है।

दरअसल, रेपो दरों में बदलाव से बाजार में पैसे का प्रवाह प्रभावित होता है। अगर रेपो दरें कम हैं, तो बाजार में पैसे का प्रवाह बढ़ जाता है। ब्याज दरें बढ़ने से लोग खर्च कम करने का प्रयास करते हैं, इस तरह महंगाई पर काबू पाया जा सकता है। रिजर्व बैंक के रेपो दरों में बढ़ोतरी से इस मामले में सकारात्मक नतीजे नजर आए हैं। इसके अलावा जो लोग भविष्य की सुरक्षा के लिहाज से बैंकों में पैसे जमा रखते हैं, उन्हें ब्याज अधिक मिलता है। इस तरह सेवानिवृत्त और वरिष्ठ नागरिकों के लिए ऊंची ब्याज दरें अच्छी मानी जाती हैं। मगर उद्योग जगत के लिए यह अच्छा नहीं होता, क्योंकि उन्हें न सिर्फ कर्ज पर अधिक ब्याज चुकाना पड़ता है, बल्कि उनकी उत्पादन लागत बढ़ जाती है, वस्तुओं की कीमतें बढ़ने से लोग खरीद-फरोख्त कम करते हैं। इस तरह उन पर दोहरी मार पड़ती है। इसलिए उद्योग समूह रेपो दरों को यथावत रखने के पक्ष में था। मगर वैश्विक आर्थिक स्थितियों को देखते हुए यह दावा करना मुश्किल है कि रिजर्व बैंक अपने इस फैसले पर कब तक कायम रह पाएगा।

रिजर्व बैंक ने आर्थिक विकास दर के अपने अनुमान में मामूली बढ़ोतरी कर साढ़े छह फीसद कर दिया है। हालांकि दुनिया की तमाम रेटिंग एजेंसियां इस अनुमान को घटा रही हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने कहा है कि चालू वित्तवर्ष में दुनिया की आर्थिक विकास दर तीन फीसद रहने का अनुमान है। जाहिर है, ऐसी स्थिति में भारत को निर्यात के मोर्चे पर काफी संघर्ष करना पड़ेगा। अभी तो आयात में कटौती करके वह अपना व्यापार घाटा पाटने में सफल रहा है, मगर यह लंबे समय तक व्यवहार में नहीं लाया जा सकता। फिर, जब अमेरिकी फेडरल और दूसरे देशों के बैंक अपनी ब्याज दरें इसलिए बढ़ा रहे हैं कि उनकी बाहर गई पूंजी वापस लौट आए, तो भारत के सामने रुपए की कीमत को स्थिर रख पाने की चुनौती बनी रहेगी। जहां तक महंगाई की बात है, अब भी वह रिजर्व बैंक द्वारा तय सहन क्षमता के मानक से ऊपर है। इसलिए देखने की बात है कि रिजर्व बैंक का यह विराम बटन कब तक दबा रहता है।


Date:08-04-23

सरकार का सही फैसला

संपादकीय

ऑनलाइन गेमिंग पर रोक लगाकर केंद्र सरकार ने वाकई बेहद प्रशंसनीय काम किया है। गुरुवार को इलेक्ट्रिानिक्स व आईटी मंत्रालय ने इस संबंध में अधिसूचना जारी की। अब सभी ऑनलाइन गेम को सेल्फ रेगुलेटरी आग्रेनाइजेशन (एसआरओ) की अनुमति लेनी होगी। यानी सभी ऑनलाइन गेम को अपनी साइट पर यह बताना होगा कि उनकी साइट एसआरओ से मंजूरी प्राप्त है। रमी, तीन पत्ती और फ्री फायर गेम को लेकर विवाद ज्यादा था। ऑनलाइन गेम ने पिछले कुछ वर्षो में आमजन खासकर युवाओं में अपनी पैठ बना रखी थी। एक रिपोर्ट के अनुसार ऑनलाइन गेम्स बच्चों के व्यवहार पर काफी असर डाल रहे हैं। खासकर हिंसक प्रवृत्ति वाले गेम्स मस्तिष्क पर ज्यादा बुरा असर डाल रहे हैं। कई बार ये तथ्य भी प्रकाश में आए कि बच्चे गेमिंग के चक्कर में पैसे चुरा रहे हैं। दरअसल, देश में ऑनलाइन गेमिंग और ऑनलाइन गैंबलिंग के बीच कोई स्पष्ट कानूनी अंतर नहीं है। अधिकांश ऑनलाइन गेमिंग पोर्टल, जिनमें सट्टेबाजी या गैंबलिंग (जुआ) शामिल हैं, वो अपने ऐप या उत्पाद को ‘कौशल वाले खेल’ के तौर पर बतात हैं। देशभर में इसके अभूतपूर्व तरीके से फैल जाने के कारण ज्यादातर राज्य सरकारें ऑनलाइन गेमिंग पर प्रतिबंध लगाने के समर्थन में हैं। तमिलनाडु सरकार का तर्क है कि इन ऑनलाइन सट्टेबाजी खेल में किशोर और वयस्क अपनी पूरी कमाई और बचत का नुकसान कर रहे हैं। इसके कारण वैवाहिक संबंधों में खटास और अलगाव की घटनाओं को रोका नहीं जा सकता है। बहरहाल, इन सबके केंद्र में भारी-भरकम कमाई है। अनुमान है कि वर्ष 2027 तक ऑनलाइन गेमिंग का कारोबार भारत में 8.6 अरब डॉलर तक पहुंच जाएगा। 2022 में ऑनलाइन गेमिंग का कारोबार 2.6 अरब डॉलर से अधिक का है। अलबत्ता, ऑनलाइन गेमिंग को लेकर अस्पष्टता और नीति के अभाव में यह साफ नहीं हो पा रहा था कि किस प्रकार के गेम को इजाजत मिलनी चाहिए और किसे नहीं। कुछ समय पूर्व कई सारे सेलिब्रिटी का गेमिंग को लेकर प्रचार करने पर भी सवाल खड़े हुए थे। देखना है, अब सरकार की सख्ती के बाद इस पर पूर्ण रूप से रोक लग पाती है या चोरी-छिपे यह ‘ खेल’ चलता रहेगा।


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