कृषि की स्थिति को सुधारना बहुत जरूरी है।

Afeias
14 Feb 2017
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Date:14-02-17

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कृषि एक अद्वितीय व्यवसाय है, क्योंकि इसका उद्देश्य खाद्य उत्पादन है। इतना ही नहीं बल्कि यह उत्पाद को संसाधित करता है और उसका वितरण भी करता है। हर स्तर पर यह लाभकारी समाज-हितकारी और पारिस्थितिक रूप से सार्थक है। हमारी वर्तमान कृषि प्रणाली किसी भी मानदण्ड पर खरी नही उतरती और इसलिए कृषि अरक्षणीय है। अगर हमारे छोटे किसान आधुनिक फूड सप्लाई चेन का हिस्सा बनना चाहें तो यह उनके लिए बहुत महंगी है। वे इसका खर्च नहीं उठा सकते। परिवहन, भंडारण और दूरसंचार सुविधाओं की भारी कमी, भूमि की कमी, सूचना एवं विशेषज्ञता का अभाव, राजनीतिक दांव- पेचों का खतरा और आर्थिक सहायता की कमी कुछ ऐसे मुद्दे हैं, जिन्होंने कृषि को अलाभकारी बना दिया है।

विमुद्रीकरण के कारण किसान भी मुद्रारहित भुगतान और डिजीटल तरीके से काम करने को मजबूर हो गए हैं। सरकार को चाहिए कि वह किसानों का हित साधने के लिए ‘ईज- ऑफ -डूईंग-बिज़नेस‘ के साथ-साथ अन्य कुछ तरीकों पर भी ध्यान दे।

  • काश्तकारी कानून में मजबूती लाई जाए

खेतों का आकार छोटा हो जाने के कारण किसानों को काश्तकारी के लिए बाध्य होना पड़ता है। अधिकतर राज्यों में काश्तकारी गैरकानूनी है। लेकिन उद्योगपतियों की तरह किसान उन राज्यों में स्थानांतरित नहीं हो सकते, जो काश्तकारी की अनुमति देते हैं। कानून के अभाव में भू-मालिक काश्तकारी के लिए कोई अनुबंध नहीं बनवाते हैं। इस प्रकार काश्तकार बने कृषक के पास किसी प्रकार के अधिकार नहीं होते। काश्तकार का अधिकार देने की अपेक्षा भू-मालिक उसे परती छोड़ देना ज़्यादा पसंद करते हैं।

काश्तकारी को कानूनी जामा पहनाए जाने से भू-मालिकों को कोई हानि पहुँचे बगैर ही काश्तकारों को लाभ मिल जाएगा। काश्तकार-कृषकों को बैंक से ऋण मिल सकेगा। भूमि का रिकार्ड रखने से संपति अधिकारों को दृढ़ता मिलेगी। इससे ग्रामीण-भूमि को भी बैंक में गिरवी रखा जा सकेगा।

  • कृषि के सहयोगी उद्योगों को छूट दी जाए

निर्माण उद्योगों की तरह किसान आधुनिक तकनीकों का आयात या उपयोग नहीं कर सकते हैं। फिलहाल 1.4 करोड़ हेक्टेयर भूमि में से 1.2 करोड़ हेक्टेयर भूमि जुताई योग्य नहीं है। मिट्टी को फसल योग्य बनाने की आवश्यकता है। इसके लिए “हैल्थ कार्ड” की योजना लाई गई है। यह तब तक सफल नहीं हो सकती, जब तक खाद, मशीन और बीज किसानों को सही समय और सही मूल्य पर ये साधन उपलब्ध नहीं कराते जाते हैं। खाद कंपनियों का गला सब्सिडी ने घोंट रखा है। तिलहन और दालों की नवीनतम तकनीकों का उपयोग राजनीति के कारण नहीं हो पा रहा है। अब, जबकि विक्रय मूल्य या व्यावसायिक जगत में दाल की कीमतों का निर्धारण विज्ञान पर छोड़ दिया जाना चाहिए, तब भी उसमें राजनीतिक दखल लगातार बना रहता है। जब तक ऊपर से ही बिज़नेस मॉडल नहीं सुधरेगा, तब तक किसानों का काश्तकारों के रूप में यूं ही दोहन होता रहेगा।

  • उत्पादक और उपभोक्ता के हितों को अलगअलग रखा जाए

जिस प्रकार का खतरा हर वर्ष किसान उठाते हैं, वैसा अन्य कोई उद्य़ोग या व्यवसाय नहीं उठाते। हर किसान कृषि में 80%  पूंजी अपनी लगाता है। वह अच्छा-बुरा सब कुछ सोचकर अपनी पूँजी  को फसल के दांव पर लगाता है। उसके बाद अचानक बाज़ार की चाल बदल जाती है, क्योंकि राजनीतिज्ञों को अपने मतदाताओं को खुश करने के लिए कीमतों में बदलाव करना पड़ता है। जब पूंजी की इस प्रकार बर्बादी होती हो, तो निवेशक तो पीछे हटेगा ही हटेगा।मतदाताओं या उपभोक्ताओं के हितों का ध्यान अवश्य रखा जाना चाहिए। परंतु इनके हितों को सर्वोपरि रखते हुए ग्रामीण जनता की प्रमुख जीविका को कोई झटका नहीं लगना चाहिए। इस बात का ध्यान रखना सरकार का दायित्व है कि वह दोनों के बीच संतुलन स्थापित करे।

  • पैदावार पर ऋण को प्रोत्साहन दिया जाए

किसान के लिए तो उसकी उपज ही उसकी एकमात्र पूंजी होती है। खासतौर पर महिला कृषकों के पास और किसी प्रकार की सम्पति नहीं होती। समस्या यह है कि कम मात्रा की फसल पर बैंक ऋण देने को तैयार नहीं होते। खासतौर पर तब तो बिल्कुल भी नहीं, जब वह किसी दूरदराज गांव की हो। ऐसी स्थिति में किसान को दलाल की सहायता लेनी पड़ती है।इसके लिए किसानों को अपनी उपज की गुणवत्ता सुधारने का काम युद्धस्तर पर सिखाया जाना चाहिए।इसके साथ ही इलैक्ट्रॉनिक भंडारघरों की व्यवस्था की जाए, जो किसान की उपज का रिकार्ड रखें। इन इलैक्टॉनिक रिकार्ड के अनुसार ऋणदाता कंपनियां किसानों को ऋण दें।

  • सक्षम एवं सुरक्षित बाज़ार हों

एक बाज़ार की सार्थकता तब है, जब कृषक को उसकी उपज का सही मूल्य मिल सके और उपभोक्ताओं पर भी भार न पड़े। ऐसे इलैक्ट्रॉनिक बाज़ार बन गए हैं, जिसमें खरीददारों की कमी नहीं है। इसके कारण मूल्यों की प्रतिस्पर्धा बढ़ती है। ये बाज़ार लागत, पारदर्शिता और नियमन की दृष्टि से उपयुक्त हैं। किसानों को इन बाजारों से जोड़ने की जरुरत है। इसके लिए उन्हें स्मार्ट फोन और इलैक्ट्रॉनिक उपकरणों की जानकारी देनी होगी।किसानों को बाजार-मूल्य से जुड़ा सुरक्षा कवच भी देना होगा। होता यह है कि उपज का मूल्य कम होने पर उपभोक्ता न तो खरीद ज्यादा करते हैं और न ही किसान नुकसान के डर से फसल की मात्रा कम करता है। कभी-कभी मूल्यों में थोड़ी-बहुत बढ़त के साथ लंबे समय तक दाम गिरे ही रहते हैं।

दरअसल, सरकारी खरीद के पुख्ता इंतज़ाम नहीं हैं। इसका भुगतान पिछली गर्मियों में किसानों को दालों के संदर्भ में करना पड़ा था। खाद्य मंत्रालय का डाटा दिखाता है कि गेंहू और चावल की खरीद के सबसे ज़्यादा केंद्र बिहार में हैं, जबकि बिहार में इन फसलों की खरीद नहीं के बराबर दिखाई जाती है। होना यह चाहिए कि ऐसे खरीद केंद्रों को अधिक से अधिक किसानों और अधिक से अधिक फसलों को जोड़ते जाना चाहिए।सरकार के ‘फील-गुड‘ या ‘अच्छे दिन‘ वाले नारे को सफल बनाने के लिए कृषि और किसानों के जीवन को आगे बढ़ाने की बहुत जरुरत है।

इकॉनॉमिक  टाइम्स में प्रकाशित निधिनाथ श्रीनिवास के लेख पर आधारित।