कृषि नीति में बुनियादी समस्याओं पर ध्यान देना जरूरी

Afeias
30 Nov 2017
A+ A-

Date:30-11-17

To Download Click Here.

2018 के बजट की तैयारियाँ प्रारंभ हो गई हैं। पूरे देश के किसान दिल्ली की सड़कों पर इस बात की चिंता करते हुए धरना दे रहे हैं कि आने वाले बजट में कृषि के क्षेत्र में बुनियादी परिवर्तन किए जाते हैं या नहीं। दरअसल, पूरे देश के लिए एक सी कृषि नीति बनाना ही सरकार की सबसे बड़ी गलती है। इसकी संरचना और कार्यक्रम स्वयं में ही हानिकारक है। सोचने की बात यह है कि ऐसी नीतियों के साथ किसानों की आय को किस प्रकार बढ़ाया जा सकेगा ?प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में कुछ शर्तों के साथ प्रीमियम का एक भाग केंद्र सरकार वहन करती है। केंद्र सरकार से हिस्सा लेने के लिए राज्य सरकारों को उसकी शर्तों के अनुसार चलना पड़ता है। लेकिन कृषि में मौसम के अनुकूल स्थितियाँ बदलती रहती हैं। इसके लिए राज्य सरकारों को अपने राज्य की स्थितियों के अनुकूल बीमा योजना बनाते हुए केंद्र सरकार से अपना हिस्सा लेने की छूट दी जानी चाहिए।

केंद्र सरकार प्रत्यके बाज़ार को ई-नाम (E-NAM,वस्तु-विनिमय के लिए इलैक्ट्रॉनिक मंच) से जोड़ने के लिए एक मंडी पर 75 लाख रुपए देती है। इसमें दर्ज किया जाने वाला कारोबार मात्र दिखावा होता है।

हरियाणा जैसे राज्य फूड कार्पोरेशन ऑफ़ इंडिया के साथ होने वाले अधिकतर लेन-देन को ई-नाम में दिखाते हैं। केंद्र सरकार को चाहिए कि ई-नाम को राज्यों पर थोपने की बजाय राज्यों को ऐसे इलैक्ट्रॉनिक प्लेटफॉर्म बनाने के लिए प्रौत्साहित करे, जो अन्य राज्यों के साथ उसकी पारस्परिकता को बनाने में मदद करे।

  • भारतीय संविधान के अनुसार कृषि को राज्यों का मामला माना गया है। परंतु “व्यापार समझौता” केंद्र का क्षेत्र है। फिलहाल, एशिया की रीजनल इकॉनॉमिक क्रॉम्प्रिहेन्सिव पार्टनरशिप का स्वरूप जैसा आकार ले रहा है, वह सोचनीय है। होता यह है कि केंद्र सरकार राज्य सरकारों की सहमति लिए बिना ही कृषि उत्पादों के अंतरराष्ट्रीय समझौते कर लेती है।हम देखते हैं कि जैसे ही देश में खाद्यान्न की कीमतें बढ़ती हैं, केंद्र सरकार मुद्रा स्फीति को नियंत्रण में रखने के लिए कृषि उत्पादों का आयात शुरू कर देती है।जब कीमतें एकदम से गिरने लगती हैं, तो केंद्र सरकार उदासीन हो जाती है। इस प्रकार की हानियों की मार का जिम्मा केंद्र सरकार को उठाना चाहिए। अभी इसका सारा भार राज्य और किसान उठाते हैं। सरकार को चाहिए कि वह वास्तविक कीमत एवं बाज़ार की कीमत के बीच के अंतर को पाटने के लिए एक कोष तैयार करे।
  • किसानों को वैश्विक कृषि व्यापार से जोड़ने के लिए राष्ट्रीय कृषि विज्ञान एवं कृषि के मशीनीकरण पर होने वाले कार्यक्रमों की धनराशि को बढ़ाया जाना चाहिए। इसमें केंद्र और राज्य सरकारों के 60: 40 व्यय के अनुपात में केंद्र सरकार का हिस्सा 80 प्रतिशत कर दिया जाना चाहिए।
  • किसानों की कर्ज माफी के लिए जब उनके कर्ज संबंधी दस्तावेजों की जाँच-पड़ताल की गई, तो पता चला कि बैंकों ने भोले-भाले किसानों को उनकी आर्थिक स्थिति के अनुकूल कर्ज न देकर उनकी संपत्ति के हिसाब से कर्ज दे रखा है। प्राथमिकता पर कर्ज देने के अपने वार्षिक लक्ष्य को पूरा करने के लिए बैंकों ने ऐसा किया है। उन्होंने किसानों द्वारा व्यक्तिगत स्तर पर बेची गई फसल को ध्यान में रखकर कर्ज नहीं दिया। ऐसी स्थिति में कर्ज का भुगतान किया जाना असंभव सा हो जाता है। अब सरकार के लिए समस्या खड़ी है कि वह गरीब किसान की तरफदारी करे या बैंकों की ?
  • किसानों की दशा सुधारने के लिए भारतीय रुपये का अवमूल्यन करना अत्यंत आवश्यक है।
  • 15 वें वित्त आयोग को चाहिए कि वह राज्यों को हस्तांतरित की जाने वाली निधि का नए सिरे से आकलन करे। राज्यों को दी जाने वाली निधि का हर जगह सदुपयोग नहीं होता है। इसके लिए पारदर्शिता की आवश्यकता है। इसके लिए राज्यों को एक डाटा बैंक बनाने के लिए प्रोत्साहित करना जरूरी है।
  • ‘वल्र्ड फूड डे‘ पर खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय की फिजूलखर्ची ही सामने दिखाई दी। सरकार को चाहिए कि इस मंत्रालय को कृषि मंत्रालय के साथ जोड़ दे। इससे शायद किसानों का कुछ कल्याण हो सके।

इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित अजय वीर जाखड़ के लेख पर आधारित।

Subscribe Our Newsletter