कॉर्पोरेट समूहों को बैंकिंग क्षेत्र में प्रवेश

Afeias
15 Dec 2020
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Date:15-12-20

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हाल ही में आर.बी.आई ने इंटरनल वर्किग ग्रुप की एक रिर्पोट उजागर की है, जिसमें बैंकों के स्वामित्व से जुडे़ दिशा-निर्देशों की समीक्षा की गई है। आर.बी.आई समय-समय पर ऐसी समीक्षा करता रहता है। परंतु इस बार उसने कार्पोरेट समूहों को बैंकों के स्वामित्व का प्रस्ताव देकर हड़कंप मचा दिया है।

भारत में इस प्रकार की प्रक्रिया का होना अनेक प्रकार के सवाल और आशंकाएं उत्पन्न करता है। दरअसल, भारत में बैंक संस्कृति को लोगों के विश्वास से भी जोड़कर देखा जाता है। जब लोगों को लगता है कि फलां बैंक में हमारा धन सुरक्षित है, तभी वे उसमें निधि जमा करते हैं। हाल ही में यस बैंक और लक्ष्मी विलास बैंक की विफलता ने भी इस प्रस्ताव को कटघरे में खड़ा कर दिया है। इसके अलावा भी कुछ बिंदुओं पर नजर डाली जानी चाहिए –

(1) औद्योगिक समूहों को अपने ही बैंकों से बिना किसी शर्त पर प्राथमिकता पर लोन उपलब्ध कराया जाएगा। अगर ऐसा हुआ (जिसका होना निश्चित है), तो निष्पक्ष लोन का क्या होगा ? एक स्वतंत्र वित्तीय नियामक भी इस पर नियंत्रण रखने की स्थिति में नहीं हो सकता।

(2) इस प्रस्ताव के हिसाब से आगे चलकर समस्त आर्थिक शक्तियों का संकेंद्रण कुछ ही बिजनेस समूहों के हाथ में आ जाएगा। सत्ता से नजदीकी संबंध रखने वाले व्यवसायी- समूह लाइसेंस और सुविधांए लेने में अधिक सक्षम हो जाएंगे। इससे राजनीति में धन की शक्ति का बोलबाला हो जाएगा और यह याराना पूंजीवाद की चपेट में और अधिक आ जाएगी।

प्रस्ताव की आवश्यकता क्यों ?

भारत के जीडीपी अनुपात में क्रेडिट स्तर काफी कम है। इतने कम स्तर के बावजूद हमारे बैंक लोन डूबने के कारण नुकसान में है। इसका बोझ अंततः करदाता पर ही पड़ता है। हमें बैंकिग सेवाओं के विस्तार की जरूरत तो है, लेकिन वह करदाता के कंधे पर बोझ बढ़ाकर नहीं बढ़ाई जा सकती। इसके लिए क्यों न कम विवादास्पद व्यवसायी समूहों से लाइसेंस के लिए आवेदन हेतु प्रोत्साहित किया जाए ?

वैसे भी इंटरनल वर्किग ग्रुप के इस प्रस्ताव को एक के अलावा अन्य सभी विशेषज्ञों ने खारिज कर दिया था।

क्या किया जाना चाहिए ?

सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के प्रशासन को अधिक पेशेवर बनाने की जरूरत है। इसके शेयर को अधिक जनता को बेचा जाए। इस प्रकार शेयर होल्डर संस्कृति का विस्तार होने से सम्पत्तियाँ भी ज्यादा से ज्यादा लोगों में बांटी जा सकेगी। इसके अधिक शेयर वित्तीय संस्थाओं को बेचे जाएं। ये संस्थाएं बैंकों के प्रशासन के साथ-साथ वित्तीय और तकनीकी विशेषज्ञता प्रदान करें।

इंटरनल वर्किंग ग्रुप ने बैंकिंग नियमन अधिनियम, 1949 में सुधार करते हुए आर बी आई की शक्ति बढ़ाने की सिफारिश भी की है। नियमन और सुपरविजन में सुधार से शायद गैर निष्पादित सम्पतियों की समस्या पर लगाम लगाई जा सकती है। कुल मिलाकर, तकनीकी रूप से तार्किक प्रस्तावों को स्वीकार किया जा सकता है, परंतु कॉर्पोंरेट समूहों को किसी भी रास्ते बैंकिंग में प्रवेश देने का विचार ठीक नहीं है।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित रघुराम राजन और विरल आचार्य के लेख पर आधारित। 25 नवम्बर, 2020