कॉर्पोरेट राष्ट्रवाद का खतरनाक प्रभाव

Afeias
07 Jan 2021
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Date:07-01-21

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हाल ही में अमेजॉन-रिलायंस का एक ऐसा कार्पोरेट विवाद सुर्खियों में है, जो भारत में विदेशी कंपनियों के बढ़ते व्यापारिक निवेश के भविष्य को भी निर्धारित कर सकता है। इस विवाद से उत्पन्न होने वाली कानूनी समस्याओं में आपातकालीन मध्यस्थाता के अधिकार की वैधता, अल्पसंख्यक शेयरधारकों के अधिकार और ऋण संरचना आदि हैं। इसमें भारत के सभी नियामकों और अदालतों के समक्ष कार्यवाही पर हावी होने वाला मुख्य मुद्दा अमेजॉन का विदेशीपन है। साथ ही, इस मामले से मल्टी-ब्रांड रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की जगह केवल एक राजनीतिक दल के ले लेने की आशंका है। ऐसे में कंपनी का विदेशी होना ही सभी प्रासंगिक कानूनी मूल्यांकन को प्रभावित कर सकता है। अमेजॉन पर ’21वीं सदी की ईस्ट इंडिया कंपनी’ जैसा व्यवहार करने का भी आरोप लगाया जा रहा है।

विदेशी कंपनी के पांव पसारने को चुनौती देने वाला यह कोई पहला मामला नहीं है। भारतीय डिजीटल भुगतान संबंधी कई ऐप काम कर रहे हैं। परंतु व्हाट्सएप पे का मामला उच्चतम न्यायालय में अभी भी अटका हुआ है। इसके विरूद्ध कई याचिकाएं दायर की जा चुकी हैं, जिसमें विदेशी भुगतान एप को देश के वित्तीय डेटा के लिए खतरा बताया जा रहा है। इस हेतु नेशनल पेमेन्ट कार्पोरेशन ने भी व्हाट्सएप को अनुमति दे रखी है। यह भारतीय राजनीति की राष्ट्रवादी भावना की अपील करने की चाल ही है, जो इस प्रकार की आशंका को जन्म दे रही है। नेताओं को यह समझने की जरूरत है कि किसी राष्ट्रवादी तर्क से कार्पोरेट क्षेत्र की प्रतिरक्षा नहीं की जा सकती है।

पिछले कुछ महीनों में विदेशी एप स्टोरों ने भारतीय एप के उनके प्रति रवैये को लेकर नाराजगी दिखाई है। इस प्रतिस्पर्धा ने विश्व का ध्यान भी अपनी तरफ खींचा है। साथ ही, इससे एप स्टोरों की ऐसी नीतियों की ओर पूरे विश्व का ध्यान आकर्षित किया गया है कि वे किस प्रकार देश के स्थानीय कानूनों को धता बताकर काम कर रहे हैं।

बहरहाल, कार्पोरेट राष्ट्रवाद का मुद्दा चीनी कंपनियों के संदर्भ में और भी मुखर होता दिखाई दे रहा है। चीनी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में पूर्व अनुमति की अनिवार्यता अनेक चीनी एप को प्रतिबंधित करना, चीनी लोगों को सार्वजनिक खरीद से दूर रखने के साथ-साथ भारतीय सरकार ने पिछले कुछ महीनों में चीनी निवेश पर कठोर प्रतिबंध लगा दिए हैं।

संप्रभुता का स्वागत किया जाना चाहिए। जब यह आर्थिक आत्मनिर्भरता और घरेलू उद्योगों को प्रोत्साहित करने के लिहाज से प्रयोग में लाई जाती है, तब तो ठीक है, लेकिन निजी क्षेत्र में जब यह आत्मनिर्भरता या पूंजी के स्थानीय बंटवारे के लिहाज से कार्पोरेट राष्ट्रवाद का जामा पहनाकर थोपी जाती है, तो यह देश के विकास में बाधक बन जाती है।

विडंबना यह भी है कि जो स्टार्टअप या कंपनियां इनके प्रति आशंका व्यक्त कर रहे हैं, उनमें ही विदेशी कंपनियों का भारी निवेश है। अमेजॉन को विदेशी बताने वाला रिलायंस, स्वयं गूगल से भारी निधि प्राप्त करता है। ऐसा लगता है कि ये घरेलू कंपनियां, मूल कानूनी विवादों को विदेशी बनाम घरेलू कंपनियों के विवाद का रूप देकर, नियमन के सारे परिदृश्य में अपने लिए ही ढील बढ़वाना चाहती हैं। इससे भारत में व्यापार की छवि को विदेशी निवेशकों की नजर में धूमिल ही किया जाएगा।

अच्छा तो यह है कि विदेशी कंपनियों को विदेशीपन के नाम पर नहीं, बल्कि वैध कानूनी मामलों में कसकर रखा जाए, जिससे वे देश हित में अधिक-से-अधिक काम कर सकें।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित माधवी सिंह और गणेश खेमका के लेख पर आधारित। 16 दिसम्बर, 2020

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