उद्योगपतियों और बैंकों को अलग रखा जाए

Afeias
16 Dec 2020
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Date:16-12-20

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आर बी आई की एक समिति ने औद्योगिक समूहों को बैंकिंग क्षेत्र में प्रवेश का जो प्रस्ताव दिया है , उस पर ऋणदाताओं और उधार लेने वालो के बीच एक अंतर्निहित हितों का टकराव है। ऋणदाता यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि उनके ऋण वैध एवं सुरक्षित हों । वहीं उधार लेने वाला येन केन प्रकारेण ऋण लेना चाहता है। और अगर यह स्वयं ही बैंक का मालिक हो , तो वह लाखों जमाकर्ताओं की बचत के साथ खेल सकता है। हितों के इस टकराव को रोकने के लिए उद्योगपतियों और बैंकरों को अलग रहना चाहिए।

यही कारण है कि कई देश , अमेरिका को छोडकर बड़े उद्योगों को बैंकों का स्वामित्व नहीं देते। इससे उनकी वित्तीय प्रणाली के केंद्र में हितों का टकराव हो सकता है। मूल रूप से आर बी आई समिति बैंकिंग प्रणाली के विस्तार के लिए उपाय चाहती है। लेकिन इस प्रकार से विस्तार करने में आशंकाएं अधिक है।

वैसे भी भारत की सार्वजनिक क्षेत्र की बैंक संस्कृति ने लंबे समय तक राजनीतिक और व्यापारिक प्रभाव को बनाए रखा है। निजी क्षेत्र के बैंकों में स्थिति बेहतर है। लेकिन उनमें भी कुशासन की कोई कमी नहीं है। यस बैंक और आई सी आई सी आई इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।

भारत में कई बड़ी गैर-बैंकिंग वित्त कंपनियां (एन वी एफ सी) हैं , जिनमें से आई एल एंड एफ एस और दीवान हाउसिंग जैसी दो बड़ी कंपनियां डूब चुकी हैं।

भारतीय वित्तीय प्रणाली अभी भी उन ऋणों से उबर नहीं पाई है , जो 2008 के वित्तीय संकट के बाद सरकार के भारी प्रयास के बावजूद डूब गए थे। इसके बाद सार्वजनिक क्षेत्र के कई बैंकों को ‘त्वरित सुधारात्मक कार्रवाई’ के तहत रखा गया था। इन बैंकों के खराब प्रदर्शन का अर्थ यह नहीं कि बड़े उद्योगों को ही बैंक खोलने की अनुमति दे दी जाए।

बड़े उद्योगों में व्यापार घाटे का इतिहास भरा पड़ा है। इन्हें सुरक्षित स्वामी नहीं माना जा सकता। विजय माल्या का उदाहरण हमारे सामने है। आर बी आई समिति का मानना है कि कड़े नियम और निगरानी यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि वे अपने संबद्ध व्यवसायों को उधार न दें। व्यवहार में यह असंभव है। सेठ के कर्मचारी क्या उनकी कंपनियों , उद्योगों , मित्रों आदि को तकनीकी आधार पर ऋण देने से मना कर सकेंगे ? अभी तक के बड़े जालसाजों ने अपने स्वयं के बैंकों के बिना भी संदिग्ध नामों पर ऋण लेने में सफलता कैसे पा ली ?

भारत में गैर-औद्योगिक व्यवसायों के बैंक बनने का अच्छा रिकॉर्ड रहा है। एच डी एफ सी बैंक को विश्व का सर्वश्रेष्ठ बैंक माना जाता है। उन सभी गैर बैंकिग वित्तीय कंपनियों ; जिनका उद्योगों से कोई संबंध नहीं है, को बैंक बनने की अनुमति दी जा सकती है। हमारे सामने ऐसे कई उदाहरण हैं, जिनमें माइक्रोवित्तीय संस्थान छोटे स्तर से शुरू हुए और बैंक बन गए। इनमें से बंधन बैंक एक है। उज्जीवन और इक्विटास जैसे अन्य ने स्वयं को छोटे वित्त बैंकों में बदल दिया है। इनमें उधार की सीमा है। अतः भारत के पास बैंकिंग के विस्तार के कई विकल्प मौजूद हैं।

आर बी आई ने ‘भुगतान बैंकों’ को लाइसेंस दिया है, जिसमें कई दूरसंचार कंपनियां शामिल हैं, जो इलेक्ट्रॉनिक भुगतान को बढ़ावा दे सकती हैं। अभी इन भुगतान बैंकों को जमा लेने और ऋण देने की अनुमति नहीं है। आर बी आई समिति का मानना है कि हितों के टकराव के बावजूद भुगतान बैंकों को सार्वभौमिक बैंक बनने की अनुमति दी जानी चाहिए। समिति के विशेषज्ञों की सलाह को नजरअंदाज करके चलना सरकार और देश हित में नहीं हो सकता।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित स्वामीनाथन एस अंकलेशरिया अय्यर के लेख पर आधारित। 29 नवम्बर , 2020

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