बैंकों के निजीकरण की आवश्यकता

Afeias
20 Apr 2018
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Date:20-04-18

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देश के बैंकिंग सेक्टर में आई गिरावट का कारण नया नहीं है। यह पिछली सरकारों के समय से चली आ रही नीतियों का नतीजा है। आर्थिक विशेषज्ञों को इस बात की पहले से ही आशंका थी कि व्यापक स्तर पर ऋणों के पुनर्गठन का परिणाम गैर निष्पादित सम्पत्ति के रूप में सामने आएगा। वित्त मंत्रालय एवं रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने इस दिशा में समाधान ढूंढने में बहुत देर कर दी।

  • सरकार ने इस दिशा में जो उपाय किए, उनमें सबसे पहला बैंक नियमन (सुधार) अधिनियम, 2017 है।
  • गैर निष्पादित संपत्तियों के समाधान के लिए सरकार ने दिवालिया व शोधन, अक्षमता संहिता 2016 के अंतर्गत आरबीआई को और भी शक्ति दी है। 40 प्रतिशत गैर निष्पादित संपत्तियां अब इस संहिता के दायरे में हैं।
  • बैंकों के पुनर्पूंजीकरण का प्रावधान किया गया है।
  • आर बी आई ने गैर निष्पादित संपत्ति समाधान प्रक्रिया को अमेरिका एवं अन्य देशों की तर्ज पर पारदर्शी दिवालिया कानून की तरह संरेखित कर दिया है।
  • आर बी आई ने अलग प्रवर्तन निदेशालय की स्थापना की है।

सरकार के ये सभी प्रयास सराहनीय हैं। परन्तु बैंकों का निजीकरण किए बिना बैंकिंग का वर्तमान ढांचा लंबे समय तक काम नहीं कर सकेगा। इसके कई कारण हैं।

  • अनेक शोधों से यह सिद्ध हो चुका है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की तुलना में निजी बैंक अधिक उत्पादकता का परिचय देते हैं।
  • निजीकरण से बैंकों के प्रशासन में बहुत सुविधा होती है। बैंकों के लिए बनाई गई अनेक समितियों ने इस बात की आवश्यकता पर बल दिया है कि बैंकों के बोर्ड को शक्तिशाली बनाने के लिए सुधारों की आवश्यकता है। वर्षों से इस सुधार की मांग के बावजूद अभी तक इस पर कोई काम नहीं किया गया है।
  • सार्वजनिक बैंकों के निर्माण के पीछे तर्क दिया जाता रहा है कि ये सामाजिक लक्ष्यों की पूर्ति बेहतर ढंग से कर सकते हैं। इनमें से अधिकांश लक्ष्य ऐसे हैं, जिन्हें निजी बैंक, आर बी आई के नियमन एवं दिशानिर्देश में पूरा कर सकते हैं। दशकों से निजी बैंक देश के प्राथमिकता वाले क्षेत्रों के अपने सामाजिक लक्ष्यों को संतोषजनक ढंग से पूरा करते आ रहे हैं।

अगर यह मान भी लिया जाए कि सामाजिक लक्ष्यों की पूर्ति के लिए सार्वजनिक बैंक ही सर्वश्रेष्ठ हैं, तब भी हमें दो दर्जन सार्वजनिक बैंकों की कतई आवश्यकता नहीं है। इसके लिए अकेला स्टेट बैंक आफ इंडिया ही पर्याप्त है। सार्वजनिक बैंक के सामाजिक लाभों की तुलना सामाजिक लागत से करके ही समझा जा सकता है कि वे करदाता को कितने भारी पड़ते हैं।

पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सामाजिक लक्ष्यों की पूर्ति के लिए बैंकों का राष्ट्रीयकरण नहीं किया था, वरन् इसके पीछे राजनीतिक कारण थे।

किसी भी देश की अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए बैंकों के निजीकरण की आवश्यकता होती है। इससे क्रेडिट में तेजी से वृद्धि होती है। इस वृद्धि का सीधा प्रभाव सामाजिक लक्ष्यों की पूर्ति पर पड़ता है। अतः बैंकों का निजीकरण किया जाना चाहिए।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित अरविंद पनगढ़िया के लेख पर आधारित।

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