समाजोन्मुख चिकित्सकों की आवश्यकता

Afeias
04 Jun 2020
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Date:04-06-20

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सार्वजनिक स्वास्थ्य  के लिए हमेशा से दवा ही केन्द्रीय रही है। चिकित्सा शिक्षा को सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए कभी भी प्रमुखता नहीं दी गई। अभी तक हुए कई नीतिगत विचार-विमर्श ने सामाजिक रूप से उन्मुख चिकित्सकों को सामुदायिक और सार्वजनिक स्वास्थ्य आवश्यकताओं के लिए जिम्मेदार ठहराने की बात कही है। भारतीय चिकित्सा पाठ्यक्रम में सामाजिक उत्तरदायित्व के भाव की बहुत बड़ी कमी है।

कोविड-19 जैसी महामारी ने चिकित्सा-शिक्षा की इस कमी को उजागर कर दिया है। यह आपदा न केवल चिकित्सकीय है, बल्कि सामाजिक भी है। इस महामारी ने अभी तक निजी और सार्वजनिक गरीब और अमीर एक व्यतक्तिगत रोगी और समुदाय जैसे भेद को खत्म  कर दिया है। इस माध्यम से एक जोरदार संदेश दिया जा रहा है कि जब किसी राष्ट्र के स्वास्थ्य की बात आती है, तो निजी देखभाल सार्वजनिक चिंता का विषय बन जाती है, और सार्वजनिक स्वास्थ्य पूरी चिकित्सा विज्ञान की चिंता का विषय बन जाता है।

यह चर्चा का विषय रहा है कि क्यों  शीर्ष मेडिकल कॉलेज जैसे कुलीन पेशेवर संस्थान कभी भी राजनीतिक हंगामे का केन्द्र नहीं बनते। क्यों  वे कला संस्थानों के विपरीत, मजबूत वैचारिक झुकाव से मुक्त रहते हैं। चिकित्सा शिक्षा के बारे में यह धारणा है कि यह वैज्ञानिक और व्यावसायिक उत्कृष्टता की दौड़ में इतना अधिक उलझी हुई है कि राजनीति जैसे सामाजिक मंच से इसे कोई सरोकार नहीं रहता।

मानविकी शिक्षा में वामपंथी प्रभुत्व को इस आधार पर समझा जा सकता है कि वह सामाजिक शिक्षा ही है, जो मानविकी का विकास करती है। अपनी शिक्षा के आधार पर ही मानविकी के विद्यार्थी समाज में फैली असमानता, वर्गीकरण और अभाव को समझ पाते हैं। यह तत्व  तकनीकी और मेडिकल जैसी व्यावसायिक शिक्षा में गायब रहता है। मेडिकल कॉलेजों और अस्पतालों में नियमित रूप से जैसे भावनात्मक अनुभव होते हैं, वैसे किसी अन्य शैक्षणिक संस्थान में नहीं होते। 2019 से लागू चिकित्सा स्नातक पाठ्यक्रम में संवाद-कौशल और सहानुभूति को विकसित करने संबंधी कुछ पृष्ठ जोड़े गए हैं। उम्मीद की जा सकती है कि इससे चिकित्सा के विद्यार्थियों को भविष्य की अपनी प्रैक्टिस में मदद मिल सकेगी।

यह सब कहने और करने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि मेडिकल कॉलेज को राजनीति मे लिप्तन मानविकी संस्थानों जैसा बना दिया जाए। इस विचार का आधार शुध्दि रूप से सामाजिक झुकाव उत्पन्न करना है। जो सहानुभूति किसी एक मरीज के प्रति दिखाई जाती है, उसका विस्तार करके उसे सामाजिक स्तर पर लाया जाना ही इस विचार का उद्देश्य है। इससे ही सार्वजनिक स्वास्थ्य  के क्षेत्र में फैली असमानता और कमियों को दूर किया जा सकेगा। आज के समय में सार्वजनिक स्वास्थ्य सबसे उपेक्षित क्षेत्रों में से एक है। हमारे चिकित्सकों ने अपने दुर्व्य‍वहार से इस सामाजिक कमी को और भी बढ़ा दिया है।

इस हेतु चिकित्सा-शिक्षा की नींव को सामाजिक रेखाओं पर तैयार करना होगा। इसके स्नातक और स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में सामाजिक संपर्क को बढ़ाने की आवश्यकता है। इसके लिए चिकित्सकीय प्रशिक्षण को शहरों के मेडिकल कॉलेजों से दूर, निचले स्तर की स्वास्थ्य सुविधाओं और सामुदायिक स्वास्थ्य में स्थानांतरित करना होगा। साथ ही मेडिकल कॉलेज और स्वास्थ्य सेवा तंत्र को एकीकृत करना होगा। इसके अलावा, सामुदायिक चिकित्सा पाठ्क्रम को तैयार करना होगा, जो समाजशास्त्रीय और राजनीतिक-आर्थिक क्षेत्रों पर जोर देने वाला हो। चिकित्सा  छात्रों को स्वास्थ्य नीति का ज्ञान देना होगा। इन सभी को लेकर गंभीर विश्लेषण किया जाना चाहिए, जिससे स्वास्थ्य और दवा की एक बड़ी तस्वी सामने आ सके। समाजोन्मुख चिकित्सक तैयार हो सकें, जो सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़ी वृहद् चुनौतियों का सामना करने में सक्षम हों।

ऐसी मान्यता है कि चिकित्सा का व्यावसायीकरण कर दिया गया है। लेकिन यह याद रखा जाना चाहिए कि यह पेशे से ही उत्प्न्न होने वाला तत्वर है। इसे देखते हुए सुधारात्मक उपायों की घुसपैठ अंदर तक करनी पड़ेगी।

महामारी के मद्देनजर हमने निजी अस्पतालों के राष्ट्रीयकरण और वैकल्पिक चिकित्सा को मुख्यधारा में लाने के विचार को अपनाया है। बेहतर सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए समाजोन्मुख चिकित्सकों की अनिवार्यता को स्वीकार किए बिना कोई उपाय दिखाई नहीं देता।

‘द हिन्दू‍’ में प्रकाशित सोहम डी. भादुड़ी के लेख पर आधारित। 20 मई 2020

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