भारत, क्वाड और अन्य गठबंधनों का महत्व
Date:21-10-20 To Download Click Here.
हाल ही में ‘क्वाड’ (भारत, अमेरिका, आस्ट्रेलिया और जापान का चतुर्भुज समूह) देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक हुई है। यह इन देशों के बीच एक ऐसा रणनीतिक वार्ता मंच है, जो मुक्त, खुले और समूह हिंद-प्रशांत क्षेत्र को सुनिश्चित करने और समर्थन करने के लिए साथ लाता है। यहाँ भारत के वैश्विक संबंधों के भविष्य पर नजर डालते हुए एक भ्रम की स्थिति बनी हुई है। दरअसल भारत ने अपनी पारंपरिक गुट निरपेक्षता की नीति को पीछे छोड़ते हुए अमेरिका के साथ एक सैन्य समझौता प्रस्ताव मान लिया है। ऐसा माना जा रहा है कि यह समझौता भारत की सीमा पर बढ़ते चीनी दबाव के मद्देनजर किया गया है। इस भ्रम की स्थिति को अन्य दृष्टिकोणों से भी देखा जाना चाहिए।
- सर्वप्रथम यह देखा जाना जरूरी है कि गठबंधन की प्रकृति कैसी है। हमारी विदेश नीति के संदर्भ में गठबंधन को हमेशा ही नकारात्मक अर्थों में लिया गया है। इनको शक्ति बढ़ाने या किसी के विरोधी को रोकने या हराने के एक साधन के रूप में देखा जाता रहा है। ये गठबंधन एक तीसरे पक्ष के खिलाफ दूसरे की रक्षा के लिए लिखित प्रतिबद्धता मानो जाते हैं।
- भारत के संदर्भ में एक समस्या यह भी है कि जब यह स्वतंत्र हुआ था उस दौरान अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस जो फासिस्ट जर्मनी को हटाने के लिए सोवियत रूस में शामिल हो गए थे, दूसरे विश्व युद्ध के बाद मास्को के खिलाफ हो गए। नव उदित भारत गठबंधनों से बंधे नही रहना चाहता था। इस धारणा को भारतीय विश्वदृष्टि के केंद्र के रूप में देखा जाता है। हालांकि व्यवहार में भारतीय कूटनीति अलग तरह से काम करती है।
- दूसरा दृष्टिकोण बनता है कि क्या भारत गठबंधन करता रहा है? भारत ने विभिन्न प्रकार के गठबंधनों के साथ प्रयोग किया है। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान कुछ राष्ट्रवादियों ने काबुल में पहली भारतीय सरकार को निर्वासित करने के लिए इंपीरियल जर्मनी के साथ गठबंधन किया था। द्वितीय विश्व युद्ध में नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने एक प्रांतीय सरकार के गठन के लिए जापान के साथ गठबंधन किया था। प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू ने अलग भूटान नेपाल और सिक्किम के साथ गठबंधन किया था जो चीन की बढ़ती शक्तियों के विरूद्ध उन्हें सुरक्षा देने के लिहाज से किया गया था। इंदिरा गांधी ने 1971 में पूर्वी पाकिस्तान के संकट के मद्देनजर सोवियत संघ से गठबंधन किया था।
- भारत ने गठबंधन किन स्थितियों में किए क्या वर्तमान में अमेरिका के गठबंधन का प्रस्ताव चीन की बढ़ती शक्तियों के विरूद्ध है? अमेरिका का वर्तमान परिदृश्य गठबंधनो का पक्षधर नहीं है। अगर क्वाड के शोर का गहराई से परीक्षण किया जाए तो अमेरिका का सैन्य गठबंधन प्रस्ताव सत्य नहीं लगता। न ही भारत कोई ऐसा संबंध चाहता है। उसे पता है कि अपनी लड़ाई स्वयं ही लडनी है। दोनों ही देश केवल समान हितों पर आधारित गठबंधन चाहते हैं।
- एक अन्य दृष्टिकोण गठबंधनों की सहायक प्रकृति पर आकर ठहरता है। आमतौर पर सुरक्षा संबंधी समझौते तब किए जाते हैं जब किसी देश को किसी विशेष प्रकार के खतरे की आशंका होती है। परिस्थितियों में परिवर्तन के साथ ही ऐसे समझौते बेमानी हो जाते हैं। 1950 की नेपाल के साथ की गई संधि चीन के खतरे से उसकी सुरक्षा को लेकर की गई थी। परंतु वर्तमान संदर्भ में नेपाल को चीन से कोई खतरा महसूस नहीं होता है। स्वयं भारत की मास्को के साथ 1971 में की गई संधि एक दशक भी नहीं चल सकी। 1970 के दशक में रशिया चीन के विरूद्ध भारत की मदद करना चाहता था। परंतु आज बीजिंग से ही रशिया की सबसे अधिक घनिष्ठता है।
इस मामले में चीन से अधिक अवसरवादी देश अन्य कोई नहीं है। भारत जैसा लोकतांत्रिक देश कम्युनिस्ट चीन जैसा लेन देन नहीं कर सकता। चीन से यह जरूर सीखा जा सकता है कि अपनी अर्थव्यवस्था और सुरक्षा के मद्देनजर भारत को गठबंधनों से जुडी धर्मशास्त्रीय सिद्धांतो में नहीं उलझना चाहिए। गुटनिरपेक्षता के प्रति भारत का जुनून उसे राष्ट्रीय क्षमताओं का तेजी से विस्तार करने की जरूरत से रोकता है। अपने सिद्धांतों से ऊपर हितों को प्राथमिकता देने वाले भारत के लिए ‘क्वाड’ जैसे गठबंधनों को संभालना उसे अंतरराष्ट्रीय संभावनाओं के परिप्रेक्ष्य में संकट में डाल सकता है।
‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित सी राजा मोहन के लेख पर आधारित। 6 अक्टूबर, 2020