भारत के लिए दक्षिण एशियाई देशों का महत्व

Afeias
12 Nov 2018
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Date:12-11-18

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किसी भी देश की सफल विदेश नीति की कसौटी, उसके पड़ोसी देशों से संबंध होते हैं। भारत जैसी उभरती हुई शक्ति के लिए यह और भी मायने रखते हैं। वर्तमान प्रधानमंत्री के 2014 में शपथ ग्रहण के साथ ही पड़ोसी देशों को प्राथमिकता देने की नीति की शुरूआत हो गई थी। तब से लेकर आज तक भारत सरकार लगातार इस पर अमल करती आ रही है। इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए वर्ष के अंत तक प्रधानमंत्री का नेपाल, भूटान और मालदीव जैसे पड़ोसी देशों की यात्रा का कार्यक्रम तय किया गया है।

पड़ोसी देशों के प्रति सौहार्दपूर्ण नीति को बनाए रखने में चीन एक बड़ी चुनौती के रूप में सामने आ रहा है। चीन की वन बेल्ट, वन रोड़ नीति का कई दक्षिण एशियाई देश विरोध कर रहे हैं, क्योंकि इससे हिन्द महासागर में उसकी जगह बन जाएगी। यही कारण है कि इस क्षेत्र में चीन अपने लिए कुछ मित्र तैयार करना चाह रहा है। इस नीति के तहत उसने नेपाल को अपनी क्षेत्रीय प्राथमिकताएं बदलने के लिए किसी प्रकार से प्रभावित कर लिया है। इसका साक्ष्य इस बात से मिलता है कि नेपाल ने अगस्त में सम्पन्न बिम्सटेक (बे ऑफ बंगाल इनिशिएटिव फॉर मल्टी सेक्टोरल टेक्निकल एण्ड इकॉनॉमिक कॉर्पोरेशन) सम्मेलन के बाद, इन देशों के पूना में होने वाले सैन्य अभ्यास के लिए अपने दल को नहीं भेजा।

पड़ोसियों को प्राथमिकता देने की भारत की विदेश नीति के साढ़े चार वर्षों के दौर में पाकिस्तान एक ऐसा देश रहा, जिसने भारत की दोस्ती के प्रति दुश्मनी का रवैया अपनाया है। इस मामले में सार्क संगठन भी अप्रभावी सिद्ध हुआ है। अतः पाकिस्तान को छोड़कर, भारत ने अन्य सभी पड़ोसी देशों को अपनी आर्थिक प्रगति का भागीदार बनाते हुए, उनके लिए न्यूनतम ब्याज दर पर ऋण उपलब्ध कराने; संपर्क साधनों का जाल बिछाने एवं बंगाल की खाड़ी में सुरक्षित बाजार उपलब्ध कराने के अथक प्रयास किए हैं। इसके साथ ही प्रधानमंत्री मोदी ने दक्षिण एशियाई देशों की नियमित यात्राएं की हैं, और इन देशों में प्रमुखों की आवभगत भी की है।

प्रत्येक देश को अपने अंतरराष्ट्रीय संबंधों को चुनने की संप्रभुता होती है। चीन के आर्थिक कौशल और विकास की रफ्तार ने अनके दक्षिण एशियाई देशों को उसकी ओर आकर्षित किया है। इसी के चलते 2014 में श्रीलंका ने चीनी पनडुब्बियों का स्वागत किया था। अब नेपाल भी चीन की ओर झुकता दिखाई दे रहा है। मालदीव ने भी चीन के दोस्ताना रवैये का स्वागत किया है।

चीने के साथ हुआ डोकलाम विवाद भारत के लिए एक अग्नि परीक्षा थी। चीन ने चाल चलते हुए भूटान के माध्यम से भारत को संदेश देना चाहा था। परन्तु भूटान ने चीन की प्रभुता के सामने घुटने नहीं टेके। इसी प्रकार बांग्लादेश ने भी चीन के साथ संबंधों में चतुराई दिखाते हुए उससे दूरी बनाए रखी।

म्यांमार ने चीन की बेल्ट रोड़ नीति का विरोध किया है। श्रीलंका ने भी अपनी विदेश नीति को अपेक्षाकृत संतुलित कर लिया है। लेकिन चीन के ऋण से दबे होने के कारण उस पर अभी भी दबाव है।

अफगानिस्तान तो अतिवादियों से दूर ही रहना चाहता है। मालदीव से संबंध और बेहतर होने की उम्मीद की जा सकती है।

दक्षिण एशियाई देशों के साथ इतिहास और जड़ों की समानता ही भारत का स्थान बनाए रखने के लिए पर्याप्त नहीं है। भारत को राजनीतिक, कूटनीतिक और आर्थिक स्तर पर ऐसे समाधान और विकल्प ढूंढने होंगे, जो इन देशों में उसकी सफलता को बनाए रख सके।

‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित दीपांजन रॉय चैधरी के लेख पर आधारित। 11 अक्टूबर, 2018

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