दक्षिण-एशियाई उपग्रह का प्रक्षेपण: कूटनीति की दिशा में तकनीक का प्रयोग

Afeias
31 May 2017
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Date:31-05-17

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जैसे-जैसे तकनीकी क्षमताएं और नवोन्मेष आधारित विकास आर्थिक और सैन्य शक्ति के प्रतिबिंब बनते जा रहे हैं। देशों में अपनी अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक परिदृश्य में तकनीक पर आधारित कूटनीति को जोड़ना शुरू कर दिया है। तकनीकी क्षमता से हार्ड पावर और सॉफ्ट पावर दोनों को साधा जा सकता है।हालांकि यह कोई नई प्रक्रिया नहीं है। लगभग पिछले एक दशक से परमाणु तकनीक सैन्य सामग्री और हथियार तंत्र की कूटनीति में सिविल तकनीक का इस्तेमाल बहुतायत में होने लगा है। अभी तक तकनीकी और कूटनीतिक बाधाओं के कारण भारत ऐसा करने में असमर्थ रहा है। लेकिन अब 5 मई 2017 को इसरो द्वारा प्रक्षेपित किए गए उपग्रह से यह संभव हो सकेगा।

इस योजना का प्रस्ताव 2014 के सार्क सम्मेलन में हमारे प्रधानमंत्री ने रख दिया था। इसमें उन्होंने एक ऐसे सामूहिक उपग्रह की बात कही थी, जिससे पाकिस्तान के अलावा अन्य सभी सार्क देशों का हित सध सके। अनेक चर्चाओं और डाटा पहुँच जैसी समस्याओं को सुलझाने के बाद अंततः यह संभव हो सका है।इस उपग्रह का निर्माण इसरो ने किया है, और इसके खर्च का वहन भारत ने किया है। प्रधानमंत्री ने इसे अपने पड़ोसी देशों को भारत की ओर से ‘तोहफे‘ की तरह दिया है।यह उपग्रह 12 क्यू-बैंड ट्रांसपोन्डर ले गया है, जिसको शामिल देशों के बीच अलग-अलग बांटा जाएगा। प्रत्येक देश अपने हिस्से के ट्रांसपोन्डर का उपयोग दूरसंचार और आपदा प्रबंधन के लिए कर सकेगा। यह उपग्रह इसरो द्वारा पूर्व में बनाए गए डिजाइन जैसा ही है। कूटनीतिक दृष्टि से देखें, तो दक्षिण-एशियाई उपग्रह तीन कारणों से महत्व रखता है:

  • यह भारत की उन्नत होती तकनीकी क्षमता का प्रदर्शन करता है। चंद्रयान और मंगलयान के सफल मिशन के बाद अब दक्षिण-एशियाई उपग्रह भारत की स्वदेशी तकनीकी क्षमता के विकास में मील का पत्थर साबित हुआ है। यद्यपि इस उपग्रह में किसी तरह की तकनीकी विलक्षणता नहीं है, परंतु दो वर्ष के कम समय में इसे तैयार करके प्रक्षेपित करना अपने आप में विलक्षण है।
  • दूसरे, उपग्रह के प्रक्षेपण के साथ भारत ने ऐसा कोई स्पष्ट संकेत नहीं दिया कि वह अपनी तकनीकी क्षमता का प्रयोग कूटनीति के लिए करना चाहता है। यह जरूर है कि इस प्रक्षेपण से भारत को यह आत्मविश्वास आ गया है कि उसकी स्वदेशी तकनीक एक परिपक्व स्तर तक पहुँच चुकी है, और इसके माध्यम से वह अन्य देशों का मुकाबला कर सकता है। इस प्रक्षेपण को अंतरराष्ट्रीय उपग्रह प्रक्षेपण बाज़ार में सौदे का साधन भी माना जा रहा है।
  • तीसरे, इस प्रक्षेपण से पूरे विश्व को भारत का यह संदेश जाता है कि भारत तकनीक को साझा करने का महत्वकांक्षी भी है और सक्षम भी है। इस उपग्रह को पड़ोसियों के लिए उपहार की तरह देकर भारत ने उनकी घरेलू समस्याओं के लिए रास्ता निकाल दिया है। इस प्रकार की साझेदारी से पूरे क्षेत्र में एक-दूसरे की समस्याओं का हल ढूंढने के साथ-साथ अनुसंधान, नवोन्मेष और आर्थिक विकास में एक-दूसरे की मदद करने की एक संस्कृति विकसित करने को बढ़ावा मिलेगा।

वर्तमान में तकनीक तुरूप के पत्ते की तरह है। भारत को अधिक प्रयास से अपनी तकनीक के आयाम का विस्तार करना चाहिए, जिसे वह समय आने पर कूटनीतिक शास्त्र की तरह काम में ला सके। भारत को हरित ऊर्जा और बायोतकनीक के क्षेत्र में भी कार्य करना चाहिए। दुर्भाग्यवश देश में ऐसे संस्थाओं के लिए धन की बहुत कमी है। दक्षिण-एशियाई उपग्रह का प्रक्षेपण यकीनन एक आत्मविश्वासी और दृढ़निश्चयी भारत का द्योतक है, लेकिन हमें आगे बढ़ते जाना है।

इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित शशांक रेड्डी और अनंत पद्मनामम् के लेख पर आधारित।

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