एक विवादास्पद निर्णय : बाबरी विध्वंस

Afeias
20 Oct 2020
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Date:20-10-20

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हाल ही में सी.बी.आई की विशेष अदालत ने बाबरी मस्जिद के ध्वंस के संबंध में आरोपियों को दोषमुक्त करार दिया है। इसी मामले को गत वर्ष घोर अनुचित करार दिया गया था। ज्ञातव्य हो कि 6 दिसम्बर 1992 को कार सेवकों ने अयोध्या में विवादित बाबरी मस्जिद ढांचे को काफी नुकसान पहुंचाया था। इसे एक षड्यंत्र का हिस्सा मानते हुए भाजपा के अनेक कार्यकर्ताओं पर मुकदमा चलाया जा रहा था।

इस हेतु सीबीआई को प्रमाणित करना था कि सभी आरोपियों ने साथ मिलकर एक समान नियत और एक समान उद्देश्य को लेकर उपद्रव किया था। इसके लिए अलग से यह प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं है कि एक अभियुक्त ने अति का प्रदर्शन किया था। इसके परिस्थितिजन्य साक्ष्य ही पर्याप्त होते हैं।

किसी को भी देश की न्यायिक प्रणाली में विश्वास रखना पड़ता है। फिर भी कई बार जब दाँव बड़े होते हैं, तो कभी-कभी न्यायालय भी कटघरे में आ जाता है। अभियुक्त के निर्दोष होने का अनुमान लगाया जाना ही आपराधिक न्याय प्रणाली का एकमात्र सुनहरा धागा होता है।

यह सच है कि अभियुक्त को उचित संदेह से परे उसके अपराध को सिद्ध करने से ऊपर कोई भी नियम महत्वपूर्ण नहीं हो सकता। यह सच है कि एक छोटे से संदेह का लाभ भी अभियुक्तों को मिलता है। फिर भी, इस मामले में सीबीआई विश्वसनीय साक्ष्य  प्रस्तुत नहीं कर सकी।

यह निर्णय विवादास्पद ही कहा जाएगा, क्योंकि न्यायालय ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया, और विध्वंस को अनजाने असामाजिक तत्वों की जिम्मेदारी मानकर उसे स्वतः स्फूर्त मान लिया।

बाबरी मस्जिद का यह मामला, दीवानी मुकदमों के साथ-साथ आपराधिक मुकदमों में भी अद्वितीय और अभूतपूर्व रहा है। इसमें उच्च न्यायालय ने प्रथम दृष्टया न्यायालय एवं उच्चतम न्यायालय ने प्रथम और अंतिम अपील-न्यायालय के रूप में कार्य किया। सिविल विवादों की तरह ही आपराधिक मामला भी विभिन्न प्रक्रियात्मक कमी, पेटेंट अवैधता और विभिन्न सरकारों के राजनीतिक हस्तक्षेप का निशाना बना। इस मामले के अलावा किसी भी अन्य आपराधिक मामले में 10 मिनट के अंदर ही दो एफ आई आर दर्ज नहीं की गई थीं, वह भी एक ही घटना के बारे में अलग-अलग अपराध का उल्लेख नहीं किए जाने से मुकदमा दो अदालतों में विभाजित हो गया।

आपराधिक कानून, विवेक के समुद्र में तकनीक का एक द्वीप है, और आरोपी को इसका लाभ मिला। ऐसे मामलों में पुलिस को गिरफतारी और जांच का विवेकाधीन अधिकार तथा सरकार को अभियोजन पक्ष को अनुज्ञाएं देने का अधिकार है। न्यायाधीश के पास विवेक, निर्वहन, दोषसिद्धि और दण्ड का प्रावधान होता है।

इस मामले में सभी आरोपियों को बरी करना सीबीआई की प्रतिष्ठा के लिए एक झटका है। उच्चतम न्यायालय ने इसे  “बंदी तोता’’ कहा है। इसे राजनैतिक प्रभाव से मुक्त किया जाना चाहिए। भारतीय आपराधिक प्रणाली में अभियोजन और जाँच के काम को पृथक किया जाना चाहिए। आपराधिक कानून सुधार समिति को चाहिए कि ऐसे बदलावों की जोरदार सिफारिश करे।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित फैजान मुस्तफा और आयमेन मोहम्मद के लेख पर आधारित। 1 अक्टूबर, 2020

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