‘अनेकता में एकता’ में दिया है समृद्धि का सूत्र
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भारत में पारा बढ़ने के साथ ही सांप्रदायिक तापमान भी बढ़ रहा है। नफरत भरे भाषण, बुलडोजर की राजनीति, सड़क का नाम बदलना, अज़ान पर विवाद, हनुमान चालीसा और यहाँ तक कि ताजमहल को लेकर भी गहरे धार्मिक विभाजन हैं, जिसे नेता प्रोत्साहित कर रहे हैं।
नफरत की इस महामारी से निपटने के लिए कुछ बिंदु –
- तथ्यों पर जाएं, मिथकों पर नहीं। यदि हम इसे उदाहरण लेकर समझें, तो देश में एक धारणा तेजी से फैल रही है कि तेजी से प्रजनन करने वाले मुसलमानों के कारण हिंदू समाप्त होते जाएंगे। यह प्रचार असत्य है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के नवीनतम आंकड़ें प्रजनन क्षमता में कुल गिरावट के साथ ही मुसलमानों में सबसे तेज गिरावट दर्शाते हैं। इस समुदाय में 1992-93 में 4.4 की प्रजनन दर 2019-2021 में गिरकर 2.3 हो गई है। सच्चाई यह है कि भारत में मुसलमान कभी भी हिंदुओं से आगे नहीं बढ़ेंगे।
- विविधता को बढ़ावा देना – सार्वजनिक संस्थानों, स्कूलों, कॉलेजों तथा आवासीय कॉलोनियों को धर्मों, नस्लों और जातीय समूहों की विविधता को प्रोत्साहित करना चाहिए। दुनिया के सर्वोत्कृष्ट शहरों और विश्वविद्यालयों की सफलता के पीछे यह भी एक तथ्य है। विभिन्न प्रभावों के आपस में मिलने के कारण बच्चे तेजी से सीखते हैं, भविष्य के लिए बेहतर ढंग से तैयार होते हैं, और कला, संगीत, व्यंजन जैसी सांस्कृतिक रचनाओं की विविधता से जीवंत बनते हैं।
- व्यावसायिक मुद्दे पर धार्मिक सामंजस्य जरूरी है – हमारी अर्थव्यवस्था, विभिन्न समुदायों की एक-दूसरे पर निर्भरता से चलती है। मुरादाबाद में मुस्लिम कारीगर पीतल के बर्तन बनाते हैं, जिन्हें हिंदू व्यापारी बेचते हैं। पश्चिमी भारत में, बोहरी और खोजा मुसलमानों ने हिंदुओं के साथ आपसी संबंधों को बहुत मजबूत रखा है। यही उनकी समृद्धि का राज है।
- अध्यात्म का अनुसरण – हम सक्रिय नागरिक बनकर न केवल अपने धार्मिक ग्रंथों से बल्कि अन्य धर्मों के ग्रंथों से आध्यात्मिक उत्तर प्राप्त करने के लिए विभिन्न मंचों पर अंतर-धार्मिक संवाद का आयोजन करने का प्रयत्न क्यों नहीं कर सकते?
- संविधान का ज्ञान – हममें से कितने लोग उस पथ-प्रदर्शक दस्तावेज को जानते हैं, जिस पर हमारा लोकतंत्र आधरित है ? भगवदगीता, को यदि विभिन्न स्कूलों में अनिवार्य किया जा सकता है, तो संविधान को क्यों नहीं ? बच्चों को संवैधानिक सिद्धांतों की व्याख्या से जुड़े नाटकों के मंचन के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है।
- विविध त्योहारों का आनंद लेना – देश में ईद, होली और दीवाली पास्स्परिक सौहार्द और सद्भावना से मनाई जाती रही है। राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने इन्हें आक्रामक सांप्रदायिक रंग देना शुरू कर दिया है। रामनवमी और हनुमान जयंती को हथियार बनाने का आखिर क्या कारण है? त्योहारों को मनाने के लिए सामुदायिक-भोज एक सामंजस्यपूर्ण तरीका है।
- रूढ़िवादी सोच पर लगाम – भारत के सभी समुदायों के आकांक्षी मानव अपने-अपने क्षेत्रों में उत्कृष्ट प्रदर्शन कर रहे हैं। इस वर्ष आईपीएल क्रिकेट में जम्मू के फल विक्रेता के बेटे उमरान मलिक चमक रहे हैं। ये उत्कृष्ट लोग सभी रूढ़ियों की सीमाओं को तोड़कर आगे बढ़ रहे हैं।
- घृणास्पद संभाषण पर नियंत्रण – घृणा, हिंसा और द्वेष जगाने वाले मामलों का पर्दाफाश करना पत्रकारों का दायित्व है। मशहूर हस्तियां सद्भाव फैलाने के लिए अपने प्रभाव का उपयोग कर सकती हैं।
- मीडिया पर संयम बरतना – सोशल मीडिया पर संयम का प्रदर्शन किया जाना चाहिए। टीआरपी के लिए द्वेष भड़काने वाली खबरों पर विवेकी दृष्टिकोण रखा जाना चाहिए।
- कट्टरता का विरोध करें – मौन कोई विकल्प नहीं है। अगर आपके इर्द-गिर्द या सोशल मीडिया पर भड़काऊ संदेश प्रसारित किए जा रहे हैं, तो उनका विरोध करें। ‘अनेकता में एकता’ की भावना को सभी के भीतर जागृत करने की आवश्यकता है।
भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति ने देश को कोई हानि नहीं पहुंचाई है। सभ्यता की दृष्टि से और समृद्धि की आकांक्षा से अगर हम इसे बनाए रखने में सफल हो सके, तो देश का कल्याण ही होगा।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित सागारिका घोष के लेख पर आधारित। 15 मई, 2022
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