विरोध में उठी छोटी-छोटी आवाजों से प्रेस की स्वतंत्रता बरकरार है

Afeias
09 Jun 2022
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वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स, 2022 के 180 देशों में से भारत का स्थान 142 से गिरकर 150 पर आ गया है। 2014 में भाजपा के सत्ता में आने से पहले भी 140वां स्थान लेकर भारत किसी अच्छी स्थिति में नहीं था। लेकिन यह गिरावट चिंतित करने वाली है।

देश में मीडिया का उत्पीड़न कोई नया नहीं है। गैर-भाजपा सरकारों ने भी मित्रों को पुरस्कृत करने और शत्रुओं को दंडित करने के लिए सरकारी विज्ञापन जारी किए हैं। साथ ही आलोचकों का मुँह बंद करने के लिए राजद्रोह और गैरकानूनी गतिविधियों पर कानूनों का दुरूपयोग किया है। पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया और उन्हें परेशान किया गया।

गोदी मीडिया – गत वर्ष ‘दैनिक भास्कर’ ने जब कोविड में हुई मौतों का असली ब्योरा दिया और गंगा में तैरती लाशों की असलियत बतानी शुरू की, तो उसके कार्यालय पर आयकर विभाग का छापा डाला गया। इसका कारण आक्रामक रिर्पोंटिंग को ही माना जा रहा था। सच्चाई यह है कि व्यवसायों पर छापे डालने और सरकारी विज्ञापन न देने से बहुत से समाचार पत्र या टी वी चैनल अपना अस्तित्व बनाए नहीं रख सकते हैं। इसलिए, अनेक समाचार पत्र और टीवी चैनल सरकार की गोद में बैठने को मजबूर हैं। इस प्रकार के आज्ञाकारी मीडिया को आलोचक ‘गोदी मीडिया’ कहते हैं।

गुरिल्ला मीडिया का उदय – इसके बावजूद कई मीडिया आलोचक जीवित हैं। विपक्षी दल, गैर-भाजपा मीडिया को समर्थन प्रदान कर रहे हैं। ऐसे कई पत्रकारों को नए टीवी और डिजिटल चैनलों के लिए वित्तीय सहायता दी जा रही है। इसे ‘गुरिल्ला मीडिया’ कहा जा सकता है।

इसके रिपोर्टर बहुत छोटे बजट में इंटरनेट के माध्यम से बड़े दर्शकों तक पहुंच सकते हैं। वायरल मीडिया क्लिप के प्रसार से ये सरकार का खुलासा कर देते हैं, और औपचारिक मीडिया नियंत्रण से बच भी जाते हैं।

मिस्र के शासक हुस्नी मुबारक ने सभी प्रिंट और टीवी मीडिया को अपने नियंत्रण में रखा था। फिर भी बिना किसी औपचारिक नेतृत्व के पूरी तरह से इंटरनेट से प्रेरित भीड़ ने शासक को हटाने में सफलता प्राप्त की थी। ऐसे विकेंद्रीकृत विरोध को आसानी से कुचला नहीं जा सकता है। यह लोकतंत्र के लिए अच्छा है।

पिछले साल सरकार ने डिजिटल मीडिया को विनियमित करने की शक्ति अपने हाथों में ले ली है। इसके बाद अब सरकार सोशल मीडिया और स्वतंत्र वेबसाइटों को सरकार द्वारा अवांछनीय समझी जाने वाली सामग्री हटाने का आदेश दे सकती है। एल्गोरिदम का उपयोग करके अपराधियों को पकड़ सकती है। इन विनियमों के संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई है। अंततः उच्चतम न्यायालय, डिजिटल मीडिया की ऐसी सेंसरशिप की सीमा तय करेगा। टैक्स के नाम पर छापे और देशद्रोह के मामले ऐसे ही चलते रहेंगे। सौभाग्य से छोटी-छोटी नई आवाजों के माध्यम से असहमति की अभिव्यक्ति की गारंटी अभी भी बनी रहेगी। हालांकि, यह प्रेस की पूर्ण स्वतंत्रता का विकल्प नहीं है।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित स्वामीनाथन एस अंकलेश्वरैया अय्यर के लेख पर आधारित। 15 मई, 2022

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