युवा विरोध की प्रबल शक्ति

Afeias
21 Jan 2020
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Date:21-01-20

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2019 के आम चुनावों के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने भारत के आकार और विविधता के लोकतंत्र में अपनी चढाई के लिए लगभग हर संभावित राजनीतिक चुनौती को नकारकर, अकल्पनीयता को प्राप्त कर लिया है। भारत की अपनी विशेषताओं से युक्त लोकतंत्र में संभावित चुनौती विपक्ष के अलावा, मीडिया और कार्पोरेट से मिलती है। आश्चर्य की बात यह है कि सत्ता पक्ष द्वारा की गई यह अवहेलना, लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को परे रखकर नहीं की गई है। इसे या तो संसदीय बहुमत से या राज्य की वैध शक्तियों का उपयोग करके हासिल किया गया है।

सच तो यह है कि लोकतंत्र में ऐसा भी बहुत कुछ समाहित है, जो अलिखित है। विपक्ष को प्रतिक्रया के लिए पर्याप्त समय देना, संसद में विधेयकों को पारित करने की जल्दबाजी न करना या इसके लिए किसी प्रकार की आपराधिक जांच का डर न दिखाना वगैरह कुछ ऐसे कदम हैं, जिनकी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को सुचारू रूप से चलाने में अपेक्षा की जाती है। मोदी सरकार के लिए ऐसे दो क्षेत्र रहे हैं, जिनमें उसने अपने कार्यों की आलोचना-विवेचना को अभेद बना दिया है। ये दो क्षेत्र कश्मीर और अर्थव्यवस्था से जुड़ी उसकी नीति हैं।

संविधान की धारा 370 से जुडी मोदी की नीति के प्रति किसी को असहमति नहीं होनी चाहिए। इसके कुछ कारण हैं। पहला तो यह कि किसी राज्य की संवैधानिक स्थिति को बदलना चाहे कितना ही अप्रासंगिक रहा हो, लेकिन उसके लिए किसी नोटिस की जरूरत नहीं थी। दूसरे, इस राज्य का विभाजन कर दिया गया, और इसे संघ शासित प्रदेश बना दिया गया। तीसरे, इसके राजनीतिक नेतृत्व को बिना किसी गलत काम के आरोप के नजरबंद कर दिया गया, और संचार चैनलों की नाकेबंदी की गई। इन सब निरंकुश कदमों के प्रति किसी को असहमत होने का अधिकार कैसे हो सकता है ?

अर्थव्यवस्था की धीमी वृद्धि में आज बेरोज़गारों की गिनती नहीं की जा सकती। इस बात के भी प्रमाण हैं कि उपभोक्ता की व्यय शक्ति में गिरावट आई है। इन सारे प्रकरणों से बेपरवाह मोदी ने जोर देकर कहा है कि अर्थव्यवस्था 5 खरब डॉलर तक पहुँचने के लिए तैयार है। उनकी सरकार ने उपभोग में आई कमी का खंडन इस बात पर कर दिया है कि “प्रतिकूल निष्कर्ष” निकाले जा रहे हैं। कुछ प्रधानमंत्री इन मुद्दों पर आसानी से बच निकलते हैं। 1950 में गरीबी में कमी न आने के राममनोहर लोहिया के आरोप के जवाब में प्रधानमंत्री नेहरू ने प्रमुख सांख्यिकीविदों की अध्यक्षता में एक समिति गठित कर दी थी।

फिलहाल ऐसा कुछ दिखाई नहीं दे रहा है, जो भारत के नेताओं को अस्थिर कर सके। यह तब तक लगता रहा, जब तक कि देश के युवा वर्ग ने बोलना शुरू नहीं किया था। अब उन्होंने मोर्चा संभाल लिया है, और यह प्रजातंत्र के रूपांतरण का समय हो सकता है। दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया के युवा लगातार विरोध दिखा रहे है। राजनीतिक आंदोलनों में हमेशा से छात्रों की भागीदारी रही है। परंतु यह सीमित रही है। 1960 में मद्रास में हिंदी को आधिकारिक भाषा बनाने के विरोध में वहाँ के विद्यार्थीयों ने आंदोलन किया था। उसके बाद हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय ने अलग तेलंगाना राज्य के लिए आंदोलन किया था। असम आंदोलन ने असम समझौते का रास्ता तैयार किया। वर्तमान में विद्यार्थी लोकतांत्रिक प्रजातंत्र के लिए संघर्ष करते हुए नागरिकता संशोधन विधेयक का विरोध कर रहे हैं, क्योंकि यह उन्हें सांप्रदायिक लग रहा है।

हम नहीं जानते यह हमें कहाँ ले जाएगा परंतु उनके विरोध में कहीं कोई सच्चाई है। यह इस धारणा को खारिज करता है कि वर्तमान पीढ़ी केवल पात्रता से संबंधित है। जिन परिसरों में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं, वे सामान्य हैं। विद्यार्थियों का विरोध वहाँ सुविधाएं जुटाने को लेकर नहीं है। वे तो लोकतंत्र के उल्लंघन का विरोध कर रहे हैं। जिन परिसरों में विरोध हो रहे हैं, वे जामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से बहुत दूर हैं। विद्यार्थियों का विरोध स्वतः स्फूर्त है। राष्ट्रवादी तथा धर्मनिरपेक्षतावादी जैसे विभिन्न राजनीतिक दलों ने शायद इस तथ्य का संज्ञान ही नहीं लिया है।

‘द हिंदू‘ में प्रकाशित पुलाप्रे बालकृष्णन् के लेख पर आधारित। 2 जनवरी, 2020

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