एक प्रगतिशील कानून की दुर्गति

Afeias
22 Jan 2020
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Date:22-01-20

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जम्मू कश्मीर में धारा 370 के निरस्तीकरण को लेकर मोदी सरकार का दावा था कि इस धारा के चलते राज्य के लोगों को भारत के अन्य नागरिकों की तरह के अधिकारों से वंचित रहना पड़ रहा था। मोदी सरकार का यह दावा कई मायनों में गलत प्रमाणित होता है। यहाँ हम जम्मू-कश्मीर राज्य में सूचना के अधिकार (आरटीआई) की स्थिति पर चर्चा कर रहे हैं, जो धारा के निरस्त होने के बावजूद यहाँ के नागरिकों को संपूर्ण रूप से प्रदान नही किया जा सका है।

जम्मू-कश्मीर में सूचना का अधिकार

पूरे देश में आर.टी.आई. को लागू किए जाने से ठीक एक वर्ष पूर्व राज्य में 2004 में इसे अधिनियमित किया गया था। यह 2002 के सूचना की स्वतंत्रता अधिनियम की कार्बन कॉपी था। 2005 में जब इसे पूरे देश में लागू किया गया था, तब जम्मू-कश्मीर के लोगों ने राज्य के आरटीआई में भी कई प्रावधानों को जोड़ने की मांग की थी।

तत्पश्चात 2007 और 2008 में राज्य में आरटीआई संशोधन विधेयक लाए गए, परंतु इनमें भी उन प्रावधानों को जगह नहीं दी गई थी, जिनकी मांग थी।

अंततः 2009 में इसे पूर्ण स्वरूप प्राप्त हुआ।

केंद्रीय आरटीआई कानून से भिन्नता

कुछ मायनों में राज्य का आरटीआई कानून, केंद्रीय कानून से अधिक प्रगतिशील था।

  • केंद्रीय कानून में आरटीआई की दूसरी अपील के निपटान के लिए कोई निश्चित समय सीमा नहीं है जबकि राज्य के कानून में राज्य सूचना आयुक्त को इसे चार माह में निपटाना अनिवार्य है।

इस व्यवस्था से बेहतर न्याय तंत्र का वातावरण बनता है। साथ ही मामलों का लंबन नहीं होता।

वर्तमान स्थिति

  • धारा 370 के निरस्तीकरण के पश्चात राज्य में 2005 वाले आर टी कानून को ही मान्यता दी गई है। इसके कार्यान्वयन को लेकर स्थिति अस्पष्ट बनी हुई है।
  • संभावना है कि अन्य केंद्र शासित प्रदेशों की तरह यहाँ भी राज्य सूचना आयुक्त की नियुक्ति नहीं की जाएगी। 2006 में पुदुच्चेरी में आयुक्त की नियुक्ति की गई थी। परंतु 2007 में गृह मंत्रालय के आदेश पर इसे निरस्त कर दिया गया था। यह मामला मद्रास उच्च न्यायालय के विचाराधीन है।

फिलहाल इस पर विचार चल रहा है कि प्रदेश को केंद्रीय सूचना आयुक्त के अधीन रखा जाए या एक पृथक सूचना आयुक्त की नियुक्ति की जाए। अगर केंद्रीय सूचना आयुक्त के अधीन रखा जाता है, तो प्रदेशवासियों को न्याय के लिए दिल्ली की दूरी बहुत ज्यादा हो जाएगी।

जम्मू-कश्मीर कानून आयोग ने राज्य सूचना आयुक्त की नियुक्ति की सिफारिश की है। इसके संभव होने पर प्रदेशवासियों को कुछ राहत अवश्य मिलेगी। परंतु पिछले कुछ महीनों में केंद्र सरकार ने कानून को जो हानि पहुँचाई है, उसकी भरपाई संभव नहीं हो सकती।

‘द इंडियन एक्सप्रेस‘ में प्रकाशित रज़ा मुजफ्फर भट्ट के लेख पर आधारित। 27 दिसम्बर, 2019

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