आधिकारिक तौर पर माँ को बराबरी का स्थान दिया जाए

Afeias
22 Sep 2021
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Date:22-09-21

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हमारे समाज की कुछ प्रतिगामी प्रथाएं परंपरा के माध्यम से इतनी गहरी घुसी हुई हैं कि वे किसी दूसरे विचार को स्वीकार ही नहीं करती हैं। केवल इस परंपरा से घायल व्यक्ति ही आमतौर पर परिवर्तन के लिए सवाल उठाते हैं। उनके प्रश्न कभी-कभी संस्थानों को विचार करने पर मजबूर कर देते हैं।

आधिकारिक दस्तावेजों में पिता के नाम की ही प्रधानता रही है। इस संदर्भ में एकल माताओं ने लगातार कानूनी चुनौती दी हैं। हाल में ही मद्रास उच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका के जवाब में केंद्र और राज्य सरकारों को नोटिस जारी करते हुए, ऐसे सभी आधिकारिक दस्तावेजों में संशोधन की मांग की है, जो माता के नाम को कोई स्थान नहीं देते हैं।

2015 में उच्चतम न्यायालय ने निर्देश दिया था कि जन्म प्रमाण पत्र जारी करने के लिए नगर निकायों को पिता के नाम पर जोर देने की जरूरत नहीं है। लेकिन अभी भी यह प्रथा चल रही है। विभिन्न शिक्षा विभागों के परिपत्रों में भी स्कूल में प्रवेश के लिए पिता के नाम की अनिवार्यता यथावत चल रही है।

इन सबके बीच महिलाओं के लिए कानूनी चुनौती से ज्यादा सामाजिक पूर्वाग्रह परेशान करने वाला होता है। बच्चे के लिए एक माँ की भूमिका प्राथमिक होती है। परंतु सरकारी कागजों और घर की नेमप्लेट पर से गायब माँ को पिता के सामने वह गौण समझने लगता है। ये धारणाएं तब से चली आ रही हैं, जब एकल स्त्रियों या पत्निओं को अधिकांश अनुबंधों में हिस्सेदार नहीं बनाया जाता था। संपत्ति में भी उनका मालिकाना हक नहीं होता था।

उम्मीद है कि मद्रास उच्च न्यायालय का सुधार के लिए किया गया यह प्रयास पितृसत्तात्मक समाज को एक नई दिशा दे सकेगा।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 8 सितंबर, 2021

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