अवसाद में सकारात्मक सोच का स्थान

Afeias
24 Jul 2018
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Date:24-07-18

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दुनिया में अवसाद जितना बढ़ रहा है, उतना ही सकारात्मक सोच को बढ़ावा देने का प्रचलन भी बढ़ रहा है। आपकी नकारात्मकता की बात सुनते ही आस-पड़ोस का हर एक व्यक्ति सकारात्मक सोच नामक जादू की उस छड़ी की बात करता है, जिसे घुमाते ही आपकी परेशानियां छू-मंतर हो जाएंगी। क्या सचमुच ऐसा संभव है ? भारत का राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण बताता है कि 15 करोड़ लोग मानसिक बिमारियों के शिकार हैं। इनमें से केवल 3 करोड़ लोग ही उपचार ले रहे हैं।

  • लोगों को यह समझना बहुत जरूरी है कि हमारा मस्तिष्क भी शरीर के अन्य अंगों की तरह ही एक अंग है। इसे भी देखभाल की आवश्यकता होती है। विशेष परिस्थितियों में इसका संतुलन भी गड़बड़ा सकता है। यह भी बीमार पड़ सकता है। इसे भी उपचार की आवश्यकता पड़ सकती है। मस्तिष्क से जुड़ी बीमारी की स्थिति में सकारात्मक सोच एक स्वस्थ पक्ष माना जा सकता है। परंतु यह कहना कि यह दवाइयों की जगह ले सकता है, गलत है।
  • डिप्रेशन या अवसाद एक सामान्य सा शब्द है, जो अपने आप में कई प्रकार की मानसिक स्थितियों को समेटे रहता है। वास्तव में प्रत्येक व्यक्ति का डिप्रेशन अलग प्रकार का होता है, और उसकी उपचार-पद्धति भी अलग होती है। यह मेडिकल और मनोचिकित्सकीय उपचारों में अलग-अलग होती है। हर एक व्यक्ति में अलग लक्षण होने के कारण यह इतनी जटिल होती हैं कि इन्हें समझकर इनका उपचार करना, अनुभवी एवं प्रशिक्षित चिकित्सक के ही वश में होता है।
  • यदि हम सकारात्मक मानसिकता या सकारात्मक सोच पर किए गए शोध के डाटाबेस को देखें, तो अवसाद के मामलों में कोई भी ऐसा क्लीनिकल साक्ष्य नहीं है, जो यह सिद्ध कर सके कि इससे केस को नियंत्रित किया गया हो। इसके लाभ टर्मिनल कैंसर और हृदय रोग के मरीजों में जरूर प्राप्त किए गए हैं।
  • सकारात्मक सोच के आवरण को ओढ़कर अक्सर नकारात्मक विचारों को दबा दिया जाता है। इस प्रक्रिया में गुस्से, चिड़चिड़ाहट या दुख की कोई जगह नही होती। अधिकतर नकारात्मक विचार समय के साथ-साथ मन में घर बनाते जाते हैं। अगर इन्हें बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं मिलता, तो एक दिन ये विस्फोटक स्थिति में पहुँच जाते हैं। इस अवस्था में लगातार रहने से भी आगे चलकर अवसाद हो जाता है।

हारवर्ड की मनोवैज्ञानिक सुसान डेविड ने भी भावनात्मक ऊहापोह को नकारकर लगातार सकारात्मक सोच को ही महत्व दिए जाने को चुनौतीपूर्ण बताया है। इन तथ्यों की अनदेखी करते हुए भारत सरकार ने हाल ही में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े पोस्टर निकाले हैं, जिनमें अवसाद से निपटने की दिशा में ‘सकारात्मक सोच‘ को एक रणनीति के तौर पर लिया गया है। इस पोस्टर में इलाज के अनेक तरीकों के बीच मनोचिकित्सक का कोई उल्लेख नहीं किया गया है, जो कि एक अनिवार्यता है।

  • अवसाद से पीड़ित व्यक्ति को संज्ञानात्मक रूप से ठीक करने वाला उपचार दिए बिना सकारात्मक सोच जैसे कौशल पर निर्भर कर देना प्रभावशाली तकनीक नहीं है।
  • अवसाद से पीड़ित व्यक्ति पहले ही सामाजिक रूप से अलग कर दिया जाता है। ऊपर से परिवार और दोस्तों की सकारात्मक सोच की सलाह उसे सजा की तरह लगती है।

सरकार को चाहिए कि मानसिक स्वास्थ्य के उचित देखभाल एवं इसके बारे में जागरूकता फैलाने के लिए बुनियादी ढांचे का विकास करे। इस प्रकार का प्रचार किया जाए, जिससे मानसिक रोगियों और उनके परिजनों को इसके सही उपचार की दिशा मिल सके।

‘द इंडियन एक्सप्रेस‘ में प्रकाशित सीमांतिनी घोष के लेख पर आधारित। 9 जुलाई, 2018

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