अपने लिए स्थान मांगती नदियां

Afeias
21 Aug 2019
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Date:21-08-19

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पिछले एक दशक में भारत ने बाढ़ प्रबंधन के क्षेत्र में बहुत प्रगति की है। खासतौर पर चेतावनी और क्षेत्र को खाली कराने का सफल उदाहरण ओडिशा में आए फानी तूफान के दौरान देखने को मिला है। इस दिशा में सरकार को मैदानी बाढ़ क्षेत्रों में हो रहे विकास कार्यों को नियमित करने का काम युद्धस्तर पर करने की आवश्यकता है। पिछले 45 वर्षों में अनेक एजेंजिसों और संसदीय समिति की अपील के बावजूद इसके नियमितिकरण में ढील बनी हुई है।

चुनौतियां – महानगरों की भूमि बहुत किमती है, और नगर निकाय इसको अधिक-से-अधिक उपयोग में लेना चाहती है। वेटलैण्ड्स, मैदानी बाढ़ क्षेत्र और नदी के किनारे; जो भारी वर्षा को समाहित करने की क्षमता रखते हैं, पर बेतहाशा निर्माण कार्य चलाए जा रहे हैं। मुंबई में बार-बार आने वाली बाढ़ का कारण यही है। यही मामला श्रीनगर, कोच्चि और चेन्नई का भी है।

बाढ़ के मैदानों की रक्षा का ज्ञान, जल-विज्ञान में सदियों से चला आ रहा है। 1975 में केंद्रीय जल बोर्ड ने इस पर क्षेत्रीकरण का एक मॉडल बनाकर राज्यों को भी भेजा था। केरल, मणिपुर, राजस्थान और उत्तराखंड ने इस कानून को संज्ञान में लिया। लेकिन जमीनी स्तर पर इन तीनों राज्यों ने भी कोई काम नहीं किया है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने बाढ़ दिशा-निर्देश में राज्यों के इस विरोधी रवैये पर ध्यान देते हुए बताया है कि कई बाढ़ क्षेत्रों में योजना अधिकारियों की बाकायदा अनुमति के साथ ही निर्माण कार्य किए जा रहे हैं।

बाढ़ के मैदानी क्षेत्रों के संबंध में एक नई नीति 2016 में बनीं थी, जिसमें बाढ़ भूमि की सरहदबंदी और विकास कार्यों के लिए इन क्षेत्रों को निबद्ध किया गया था।

पर्यावरण वन और जलवायु परिवर्तन की 2016 की नीति का अनेक राज्यों ने विरोध किया है। इसका कारण यही है कि अनेक नदियों के किनारे भारी आबादी वाले क्षेत्र हैं, और नीति का पालन करने में वहाँ अनेक राजनैतिक और व्यावहारिक चुनौतियां सामने आ रही हैं।

 कुछ उपाय –

  • बाढ़ के मैदानी क्षेत्रों को बचाने में स्थानीय समुदायों की मदद ली जानी चाहिए।
  • संयुक्त राष्ट्र दिशा निर्देश बताते हैं कि किस प्रकार से बाढ़ के मैदानी भू-भागों का मत्स्य पालन जैसी गतिविधियों के माध्यम से विवेकपूर्ण इस्तेमाल किया जा सकता है। इससे भूजल स्तर को बढ़ाने में भी मदद मिलेगी।
  • बाढ़ के खतरे की मैपिंग और उसका प्रकाशन होना चाहिए।
  • बिल्डर को अपने विज्ञापनों में बाढ़ के खतरे के प्रतिशत का भी उल्लेख करना जरूरी किया जाना चाहिए।
  • अमेरिका की तर्ज पर बाढ़ के खतरे के लिए बीमा योजना शुरू की जानी चाहिए।
  • यूरोप में बांध और तटबंधों को बाढ़ का कारण न बनने देने के लिए इनके पारंपरिक रखरखाव में भारी बदलाव किया जा रहा है। इन दिशा निर्देशों को अन्य देशों में भी फैलाने का प्रयत्न किया जा रहा है।
  • भारत की नदियों को रियल एस्टेट की गतिहीन या अचल संपत्ति न मानकर, ऋतुओं के अनुसार उसके विस्तार और संकुचन के लिए पर्याप्त जगह दी जाए।

बाढ़ की अनेक आपदाओं को सहने के बाद भी हमारी राज्य सरकारें चेत नहीं रही हैं। जल-संकट से जूझ रहे महाराष्ट्र ने नदी नियमन जोन नीति को 2015 में अपने एजेंडे से पूरी तरह हटा दिया है। उल्हास नदी के इर्द-गिर्द रहने वालों के विरोध के बावजूद नवी मुंबई विमानतल के लिए निचले भूमि-क्षेत्र को खोल दिया गया है।

लगातार होते जलवायु परिवर्तन ने हमें पर्यावरण को नजरअंदाज किए जाने के आर्थिक पक्षों को दिखा दिया है। प्रकृति को बांधने और नियंत्रित करने की सीमाओं का भी ज्ञान करा दिया है। इसके बाद भी अगर हम लगातार इससे खिलवाड़ करते हैं, तो परिणामों के लिए तैयार भी रहना होगा।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित वैष्णवी चंद्रशेखर के लेख पर आधारित। 1 अगस्त, 2019

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