मामूली जमानत पर दिया गया निर्भीक निर्णय

Afeias
12 Jul 2021
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Date:12-07-21

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हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने अनलॉफुल एक्टिवीटीज प्रिवेन्‍शन एक्ट (यूएपीए) के अंतर्गत बंदी बनाए गए तीन युवाओं को जमानत दी है। इन तीनों को गत वर्ष दिल्‍ली के उत्तरपूर्वी क्षेत्र में हुए दंगों के षड़यंत्र के आरोप में बंदी बनाया गया था। इस फैसले को लोकतंत्र का ध्वजवाहक  बताया जा रहा है। आखिर जमानत के इस निर्णय में ऐसा क्या विशेष है कि यह एक मुख्य खबर बन गया।

यह निर्णय असाधारण तो नहीं कहा जा सकता, परंतु मौलिक अवश्य कहा जा सकता है। न्‍यायाधीशों ने गैर कानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के तहत की गई ‘आतंकवादी अधिनियम’ की असाधारण व्यापक परिभाषा को इस मामले में गलत ठहराया। देश की पुलिस इस समय साधारण अपराधों को भी आतंकवादी अपराधों में शामिल कर गिरफ्तारियां कर रही है। इस मामले में भी ये तीनों ही युवा उस व्हाट्सएप ग्रुप का हिस्‍सा थे, जो सीएए के विरोध-प्रदर्शन का आयोजन कर रहा था। यह प्रदर्शन बाद में उग्र हो गया था। शायद इसलिए पुलिस ने आतंकवाद के अपने आरोप को सही ठहराने के लिए “अशांत परिणामें की संभावना” और “राज्य की सुरक्षा को कमजोर करने” के साथ “एक बड़ी साजिश” का हवाला दिया था।

न्यायाधीशों ने समझदारी से तथ्‍यों का सावधानीपूर्वक विश्‍लेषण करके पुलिस द्वारा लगाए गए अस्‍पष्‍ट आरोपों से प्रभावित होने से इंकार कर दिया। निर्णय में यह भी कहा गया कि इन युवाओं के कार्यों को तब तक आतंकवादी कृत्‍य नहीं माना जा सकता है, जब तक कि वे समाज पर लंबे समय तक मनोवैज्ञानिक दुष्‍प्रभाव नहीं डालते हैं। व्‍हाट्सएप ग्रुप का हिस्‍सा होना कोई अपराध नहीं है।

निर्णय के माध्‍यम से पूरे तंत्र को एक बार फिर से यह याद दिलाया गया है कि आपराधिक मामलों में जमानत की सुनवाई का उद्देश्‍य मामूली होता है। इसका उद्देश्‍य सिर्फ इतना ही आकलन करना होता है कि क्‍या मुकदमें की सुनवाई शुरू होने तक आरोपी को मुक्‍त किया जा सकता है। न्‍यायाधीशों ने महामारी की दूसरी लहर के चलते न्‍यायिक संस्‍थानों में धीमें कामकाज के कारण इस मुकदमे में और देरी की संभावना है। इसलिए मुकदमें के शुरू होने के लिए जेल में प्रतीक्षा करने की सजा नहीं दी जा सकती। खासकर उन मामलों में जहाँ अपराधी आदतन या पेशेवर न हो, और न ही जिसकी विदेश भाग जाने की आशंका हो।

जमानत से संबंधित मामले में हमेशा विवेक का प्रयोग करने की आवश्‍यकता होती है। सरकारें, वकील और न्‍यायाधीश अंतत : अपने संकेत, समाज के उचित-अनुचित की समझ से ही लेते हैं। दिल्‍ली उच्‍च न्‍यायालय का निर्णय स्‍वागतयोग्‍य है। परंतु इस बात का आत्‍मनिरीक्षण किए बिना इसे मानना अदूरदर्शी होगा कि हम ऐसी जगह कैसे पहुँच गए, जहाँ अब नियमित जमानत के आदेश जश्‍न का कारण बन रहे हैं।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित अर्घ्‍य सेनगुप्ता के लेख पर आधारित। 17 जून, 2021

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