सोवरेन बांडः लाभ या खतरे

Afeias
06 Sep 2019
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Date:06-09-19

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बजट में सोवरेन बांड की घोषणा के साथ ही आर्थिक जगत में एक आशंका सी बनी हुई है। चर्चा में लगातार यही कहा जा रहा है कि इस सरकारी बांड से कोई लाभ नहीं है। लेकिन खतरा अवश्य ही हो सकता है। सवाल उठता है कि भारत जैसे देश को सोवरेन बांड की आवश्यकता है भी या नहीं? ऐसे सवालों के साए में सरकारी बांड की शुरूआत से पहले यह जानना जरूरी है कि भारत तो पहले ही पूंजी की कमी से जूझ रहा है।

वैश्विक प्रगति के नाजुक दौर में हम पूंजी कहाँ से जुटा पाएंगे? क्या हमें विदेशों से पूंजी लेनी चाहिए? लेकिन साथ ही साथ राजकोषीय अनुशासन से विचलित भी नहीं होना चाहिए। या हमें अपनी ही प्रगति का इंतजार करना चाहिए कि हम स्वयं अपनी पूंजी की आवश्यकताओं की पूर्ति कर लें?

इतना सब होने से पहले हमें सोवरेन बांड से जुड़े खतरों पर एक नजर डालनी चाहिए।

1. यह सत्य है कि सकल घरेलू उत्पाद का 3.8 प्रतिशत का सोवरेन ऋण, पिछली सरकारों के सघन नीति निर्णय को दर्शाता है। साथ ही यह हैरानी वाली बात है कि इस तरह की अनुकूल नीति का लाभ अब भारत क्यों नहीं उठा रहा है। राजकोषीय मोर्चे पर इसकी 3 प्रतिशत की यात्रा प्रशंसनीय है।

राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन अधिनियम ने शायद अन्य स्रोतों से ऋण लेने पर विचार नहीं किया। परन्तु इसे भविष्य में कभी भी किया जा सकता है। दक्षिणी अमेरिकी और एशियाई देशों से इसकी तुलना करना भी गलत है। भारत के मैक्रो नंबर (सकल घरेलू उत्पाद में विदेशी ऋण आदि) इन देशों से 3-13 गुणा औसतन कम हैं।

2. आलोचक यह भी कहते हैं कि रुपए में ऋण लेने से डॉलर में ऋण लेना सस्ता है। विनिमय दर को देखते हुए यह गलत दलील है। विनिमय दर को देखते हुए ही कम दर पर ऋण लेने का प्रत्यक्ष लाभ कोई महत्व नहीं रखता। अप्रत्यक्ष लाभ अवश्य ही प्रभावशाली हो सकता है। बांड की प्राप्ति नरम होने से बैंकों के धनकोष में लाभ जुड़ेगा। इससे वे जमीनी स्तर पर मजबूत हो सकेंगे। इससे बैंकों के ऋण-चक्र पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।

3. सरकार चाहे तो विदेशी मुद्रा निवेश पर सरकारी रुपये के बांड में वर्तमान सीलिंग को बढ़ा सकती है। उसका प्रभाव बराबर ही पड़ेगा। विदेशी संस्थागत निवेश पर सीलिंग को बढ़ाकर निवेशक को एक ही मंच पर विस्तृत आधार दिया जा सकता है। परन्तु रुपये के बांड पर सीलिंग को बढ़ाने से निवेशक-आधार में विविधता लाई जा सकती है। इसका अर्थ है कि अगर निजी क्षेत्र चाहे तो घरेलू उधार भी प्राप्त कर सकता है।

4. विदेशी डॉलर के जारी किए जाने से घरेलू बांड की संख्या कम नहीं होती है। आर बी आई डॉलर की खरीद करके और इनसे जुड़ी सरकारी बांड की होल्डिंग बेचकर विदेशी विनिमय दर को स्थिर रखने का प्रयत्न करता है। यह उचित नहीं है, क्योंकि रुपये की तरलता और स्थिरता, ऑनशोर और ऑफशोर बांड के लिए एक जैसा काम करती है। ऑनशोर बांड के संदर्भ में पोर्टफालियो निवेशकों के द्वारा डॉलर की तरलता, रुपये की तरलता में परिवर्तित कर दी जाती है। ऑफशोर बांड में यह परिवर्तन सरकार द्वारा किया जाता है। इसी प्रकार से तरलता में स्थिरता का प्रयास आरबीआई को करना चाहिए।

5. इस प्रकार का फ्लो, विनिमय ब्याज दरों में ऊथल-पुथल पैदा कर देता है। लेकिन यह तभी होता है, जब अर्थव्यवस्था की अवशोषण शक्ति कम हो। हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि ऑनशोर और ऑफशोर बांड के द्वारा विनिमय दर पर पड़ा प्रभाव, प्राथमिक और सहायक बाजारों पर अलग-अलग होता है।

सहायक बाजारों में फ्लो के साथ, ऑनशोर का विनिमय दर पर तात्कालिक प्रभाव पड़ता है। ऐसा कई बार देखा गया है। ऑफशोर सहायक बाजारों पर यह प्रभाव देर से पड़ता है। ब्याज दर के लिए भी यही नियम काम करता है।

इससे बाहर निकलने का एक ही रास्ता है कि जारीकत्र्ता प्राधिकरण विदेशों में ही राशि को रोके रखे और उसे अंतरराष्ट्रीय भुगतान के लिए उपयोग में लाएं। इससे दोनों ही तरफ के विनियम दर की बचत होगी।

6. रुपये और डॉलर, दोनों के ही निवेशक आधार में अस्थिरता हो सकती है।

7. अगर विकल्प के तौर पर भारतीय रुपये के अंतरराष्ट्रीयकरण की बात की जाए, तो यह अप्रवासी भारतीयों द्वारा अपने छोटी अवधि के फंड निकाल लेने से, विनिमय दर को बढ़ा सकता है।

क्या इन सब खतरों को देखते हुए सोवरेन बांड को जारी करना उचित नहीं है? इसी की एक सकारात्मक सोच यह है कि समस्याओं के साथ समाधान भी होते हैं।

नोट- सोवरेन बांड या सरकारी बांड केन्द्र सरकार द्वारा जारी किए गए ऐसे बांड हैं, जो कूपन पेमेंट के रूप में समय-समय पर ब्याज देने का वायदा करते हैं। मैच्युरिटी पर ये फेस वेल्यू देते हैं। सरकार द्वारा इन बांडों की बिक्री बाजार में उनकी साख पर निर्भर करती है।

‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित सौम्य कांति घोष के लेख पर आधारित। 1 अगस्त, 2019

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