यह भारत का आंतरिक मामला है

Afeias
09 Mar 2020
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Date:09-03-20

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किसी भी संप्रभु राष्ट्र को यह अधिकार है कि वह अपने देश में काम करने और बसने हेतु आने वाले प्रवासियों का चयन कर सके। राष्ट्रों के इस अधिकार को अभी तक किसी ने गंभीरता से ललकारा भी नहीं है।

गत सप्ताह, यूनाइटेड किंगड़म, जो अब यूरोपियन यूनियन के नियमों से मुक्त हो चुका है, ने अपनी नई प्रवासी नीति जारी की है। यह आस्ट्रेलिया में प्रचलित प्वाइंट सिस्टम जैसी ही है, और उन लोगों के आगमन का स्वागत करती है, जो कौशल रखते हों, लेकिन देश के कल्याणकारी कार्यक्रम पर बोझ न डालें। इस नीति में प्रवासियों का अंग्रेजी भाषा जानना जरूरी रखा गया है। अंग्रेजी भाषा जानने की अनिवार्यता की आलोचना भी की गई है। यह नीति प्रजातांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार ने तैयार की है, और उसके घोषणा-पत्र में ऐसा करना शामिल था।

इसी प्रकार इजरायल ने अपनी ‘राइट टू रिटर्न’ नीति के अंतर्गत समस्त संसार के यहूदियों के वापस आकर बसने का प्रबंध किया है। ब्रिटेन, आयरलैंड और जर्मनी ने भी ऐसे व्यक्तियों को बसने की अनुमति दी है, जो इन देशों के मूल वंशज हैं।

इसके विपरीत, प्रवासियों के चयन के अधिकार में अनुमति प्रदान नहीं करने की भी छूट है। हंगरी ने लगातार यूरोपियन यूनियन के दिशा-निर्देशों को दरकिनार करते हुए ईराक, सीरिया और उत्तरी अफ्रीका के किसी भी शरणार्थी को इस आधार पर पनाह देने से इंकार कर दिया कि वे लोग उनके देश में व्यवस्थित नहीं हो सकते। पोलैण्ड, चेक गणराज्य और स्लोवाकिया ने भी शरणार्थियों को लेकर नाराजगी दिखाई हैं

2015 में जर्मनी ने शायद अपनी ऐतिहासिक क्रूरता का पश्चाताप करते हुए लगभग 8 लाख शरणार्थियों को शरण दी थी। इसमें वे प्रवासी भी थे, जिन्हें दुनिया को ज्ञान का पाठ पढ़ाने वाले अमेरिका ने भी शरण देने से मना कर दिया था। 1990 में अमेरिकी सीनेट ने फ्रैंक लॉटेनबर्ग द्वारा प्रस्तावित एक संशोधन पारित किया था, जिसने तत्कालीन सोवियत संघ से यहूदियों और ईसाई संप्रदायों के आव्रजन में तेजी लाई। 2004 में इसी प्रस्ताव को ईरान के बहाई सदस्यों के लिए भी विस्तृत कर दिया गया था। उस समय हिटलर के शासन में यहूदियों को बहुत सताया गया था। 1930 में इस समुदाय के लोगों को अमेरिका जाने के लिए बहुत लंबी कतारों में खड़े रहना पड़ता था। इनमें से बहुत से तो गैस चैंबरों में मार दिए गए। अगर अमेरिका ने सोवियत संघ के ईसाईयों और यहूदियों के आव्रजन जैसी तत्परता दिखाई होती, तो शायद नाजी शासन की क्रूरता से इतनी हताशा न फैली होती।

भारत के नागरिकता संशोधन विधेयक के संदर्भ में अमेरिका के कमीशन ऑन इंटरनेशनल रिलीजस फ्रीडम का ऐलान असंगत प्रतीत होता है। धार्मिक अल्पसंख्यों को अपने विश्वास की रक्षा की लड़ाई लड़नी ही पड़ी है।  पाकिस्तान में ईसाईयों के उत्पीड़न पर पश्चिम में काफी चर्चाएं हुई हैं, और उन्हें यूरोप, कनाड़ा और अमेरिका में शरण भी दी गई है। अमेरिकी राष्ट्रपति की भारत यात्रा ने सीएए पर अमेरिका के रूख को स्पष्ट कर दिया है कि यह भारत का आंतरिक मामला है।

सीएए पर अन्य देशों की प्रतिक्रियाएं और उनमें संशोधन की मांगें, राजनीतिक रूप से अत्यधिक विवादास्पद है, जो भारत के राष्ट्रवाद और संप्रभुता के सिद्धाँतों के विरूद्ध जाती हैं।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित स्वप्न दासगुप्ता के लेख पर आधारित। 23 फरवरी, 2020