बढ़ते तलाक : स्त्रियों के प्रति न्याय की शुरूआत

Afeias
06 Mar 2020
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Date:06-03-20

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समाज में महिलाओं की स्थिति को ऊपर उठाने के अनेक प्रयास समय-समय पर चलते रहे हैं। आज महिलाएं प्रत्येक क्षेत्र में आगे आ रही हैं। उच्चतम न्यायालय ने सेना में महिलाओं को स्थायी कमीशन देने का आदेश देकर, उनके विकास की दिशा में एक बड़ा कदम उठाया है। ग्रामीण महिलाएं भी शिक्षित हो रही हैं। उनमें जागरूकता आ रही है। फिर भी महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों में कमी नहीं आई है। इसका कारण वे लोग हैं, जो आज भी मध्ययुगीन मानसिकता में जीते हैं, और महिलाओं को द्वितीय दर्जे का समझते हैं, और वहीं रखना चाहते हैं।

हाल ही में आरएसएस प्रमुख ने समाज में बढ़ने वाले तलाक को शिक्षित और समृद्ध परिवारों में अधिक प्रचलित बताया है। उनका मानना है कि शिक्षा और सम्पन्नता के साथ दम्भ बढ़ता है, जिसके कारण तलाक की स्थिति बनती है। वे यह भी मानते हैं कि प्राचीन काल के भारत में शिक्षित और समृद्ध पुरूष हुआ करते थे, परन्तु महिलाओं की स्थिति ऐसी नहीं थी। उन्हें समान शिक्षा और उत्तराधिकार का अधिकार प्राप्त नहीं था। वे अपने पुरूष स्वामियों की दया पर आश्रित रहती थीं। सामाजिक प्रथा ही कुछ ऐसी थी कि स्त्री अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो सकती थी। इसलिए तलाक जैसा कोई विकल्प ही नहीं था।

शिक्षा से लोगों में आत्म-सम्मान की भावना आती है, और वे अपने अधिकारों की मांग करते हैं। इससे सत्तासीन लोगों को परेशानी होती है। अमेरिका में गुलाम-प्रथा के दौर में ऐसे कानून बनाए गए थे, जो गुलामों की शिक्षा प्राप्त करना दण्डनीय अपराध बनाते थे, क्योंकि शिक्षा से स्वतंत्रता और समानता जैसे विचार जन्म लेते हैं। लंदन में मैकाले और अन्य सभ्रांत लोगों ने उपनिवेश को चलाने के लिए शिक्षित भारतीयों का एक विशेष वर्ग तैयार कर लिया था। भारत में रहने वाले ब्रिटिश अधिकारियों को यह अच्छा नहीं लगा, क्योंकि दमनपूर्ण शासन के लिए उन्हें अशिक्षित भारतीय ही चाहिए थे।

प्राचीन हिन्दू धर्म में तलाक के लिए कोई औपचारिक प्रक्रिया नहीं थी। एक स्त्री को कभी भी उसका पति घर से बाहर निकाल सकता था।

हमारे नेताओं को इस बात के लिए प्रसन्न होना चाहिए कि भारतीय संविधान ने क्रूरता की सीमा तक फैली असमानता को दूर कर दिया है। संविधान में स्पष्ट लिखा गया है कि धर्म, जाति, जन्म-स्थान, नस्ल, लिंग और रंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। दुर्भाग्य यह है कि ईसाई, मुस्लिम और हिन्दू जैसे सभी प्राचीन धर्मों में अनेक प्रकार के भेदभाव किए जाते रहे हैं। संविधान बनाने वाले व्यक्ति इतने शिक्षित, सम्पन्न और दम्भी थे कि उन्होंने धर्मों में प्रचलित भेदभाव वाली परंपराओं का निषेध ही कर दिया।

हिन्दू परंपरा में तो सम्पत्ति, विवाह, व्यवसाय आदि के समस्त अधिकार पुरूषों को दिए गए थे। विवाहादि संबंधों में दहेज संबंधी वार्ता दोनों ओर के पुरूष तय कर लिया करते थे। बाल-विवाह खूब प्रचलित थे। कैथरीन मेयो की ‘मदर इंडिया’ में ऐसी छः वर्षीय कन्याओं की मार्मिक तस्वीर खींची गई हैं, जिनमे जबरर्दस्ती यौन संबंध बनाने के बाद उनके पतियों ने जननांगों को बुरी तरह से हानि पहुंचाई कि वे भविष्य में अपनी कामेच्छा पूरी न कर सकें। सति प्रथा से तो हम सब परिचित ही हैं। पुरूषों को अपनी पत्नी के शव के साथ जिंदा जलने को कभी बाध्य क्यों नहीं किया गया ?

सौभाग्यवश, महिलाएं शिक्षित और सम्पन्न हो रही हैं। वे अब असहाय प्यादा नहीं रह गई हैं। वे अपने बारे में सोच सकती हैं, और अपने बेकार पतियों को छोड़ने की हिम्मत कर सकती हैं। समाज में तलाक के बढ़ते मामले यह बताते हैं कि पुरूष आधिपत्य को चुनौती और दण्ड दिया जाने लगा है। यह न्याय है, कोई दम्भ नहीं है।

एक परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण से पता चलता है कि 15 वर्ष से ऊपर की एक तिहाई महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार होती हैं। किसी के दांत और हड्डियां तोड़ी जाती हैं, तो किसी की आंख को चोट पहुँचाई जाती है। इनमें से मात्र 14 प्रतिशत ने ही इसे रोकने का प्रयत्न किया है। दुख की बात यह है कि जिन लड़कियों ने शिक्षा प्राप्त करने का प्रयास किया है, उन पर यह कहर कहीं अधिक बरसा है।

प्रत्येक आस्था और परंपरा में महिलाओं के प्रति क्रूर कृत्य किए जाने के प्रमाण मिलते हैं। इस्लाम में स्त्री का बलात्कार होने पर उसे चार गवाह लाने को कहा जाता है। तीन तलाक की सच्चाई किसी से छुपी नहीं है। आज भी अनेक इस्लामिक देशों में औरत को घर पर ही रहने का आदेश होता है। वह अपने किसी पुरूष संबंधी के साथ बाहर नहीं जा सकती। ईरान में महिलाओं को फुटबाल मैच देखने की छूट नहीं है, क्योंकि अगर वे पुरूषों के खुले पैरों को देखेंगी, तो इस्लामिक समाज पर बुरा प्रभाव पड़ेगा।

मानवाधिकार की एक रिपोर्ट बताती है कि 2010 के पाकिस्तान में लगभग 800 ‘आॅनर किलिंग’ के मामले सामने आए हैं। परंपरानुसार गांव के बुजुर्गों को अधिकार दे दिया जाता है कि वे प्रेम करने वाली महिलाओं को बलात्कार, हत्या या सौदेबाजी का कोई भी दण्ड दे सकते हैं। भारत में भी ‘ऑनर किलिंग’ के मामले कम नहीं हैं।

ईसाई धर्म भी महिलाओं के प्रति अत्याचार में पीछे नहीं रहा है। इतिहास के पन्ने पलटने पर पता चलता है कि इसमें भी पुरूषों को ही सम्पत्ति व अन्य अधिकार दिए जाते रहे हैं। संत थॉमस एग्नेस, जो एक प्रसिद्ध दार्शनिक भी रहे हैं, ने कहा था कि बलात्कार हस्तमैथुन की अपेक्षा कम बड़ा पाप है, क्योंकि बलात्कार में फिर भी उत्पत्ति की संभावना रहती है।

ईसाई रोमन साम्राज्य में किसी स्त्री के किसी पुरूष के साथ भाग जाने को बलात्कार समझा जाता था, और दोनों को जिंदा जला दिया जाता था।

एक अन्य ईसाई परंपरा में विधवाओं को दुष्ट और चुडै़ल मानकर जला दिया जाता था। इस प्रकार के लांछन अक्सर पुरूष संबंधियों द्वारा लगाए जाते थे, जो उनकी सम्पत्ति हड़पना चाहते थे।

सौभाग्यवश, यूरोपीय अब इतने सम्पन्न और शिक्षित हो गए हैं कि परंपरावादी लोग उन्हें दम्भी मान सकते हैं। वे प्राचीन परंपराओं को जघन्य अपराध मानते हैं।

उम्मीद की जा सकती है कि हमारे नेता भी हिन्दू परंपरा के नाम पर महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों को जागृत दृष्टि से देखने का प्रयास करेंगे, और उनकी निंदा करेंगे।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित स्वामीनाथन अंकलेश्वर अय्यर के लेख पर आधारित। 23 फरवरी, 2020

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