न्याय आधारित एकजुटता की आवश्यकता

Afeias
30 Apr 2020
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Date:30-04-20

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किसी महामारी से निपटने के लिए उच्च स्तर की एकजुटता की आवश्यकता होती है। हालांकि, यह भी स्पष्ट हो रहा है कि एकजुटता के भाव, भावुकता में बदलते रहते हैं। समाज के विभिन्न वर्गों में ऐसे लोगों की संख्या बहुत है, जिन्होंने कठिन परिस्थितियों में खतरा उठाते हुए, हमें महामारी से लड़ने के लिए तैयार किया है, और इस मानवीय आपदा की तीव्रता को कम करने में हमारी मदद की है। कुछ स्थितियों में तो लॉकडाउन की अनिवार्य जरूरतों के साथ व्यापक सहयोग को भी एकजुटता के भाव के रूप में देखा जा सकता है। फिर भी, हमें इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं रहना चाहिए कि सही मायने में हमें जिस एकजुटता की जरूरत हैं, उसमें हम विफल हो रहे हैं।

हम असफल इसलिए हो रहे हैं कि एकजुटता का मूल विचार दया, सहानुभूति और देखभाल पर आधारित नहीं हैं। यह न्याय पर आधारित है। दुख और अन्याय के उभरते कठोर दृश्य तत्काल प्रतिक्रिया की माँग कर रहे है। दया, करूणा और किसी की देखभाल जैसे गुण भावनाओं के तौर पर गिने जा सकते हैं, परंतु ये एकजुटता से संबंधित नहीं है। एकजुटता की भावना बहुत कुछ अभिज्ञान, पहचान और समानता पर आधारित होती है। दया, करूणा और देखभाल की भावनाएं अनुकंपा के अंतर्गत आती हैं, जो अक्सर दूरी और शक्ति को निर्धारित कर सकते हैं। यहां तक कि किसी की मदद करने का काम भी किसी के विशेषाधिकार को कम आंकने सा हो सकता है। यही कारण है कि सामान्य परिस्थितियों में किसी की दया पर किसी को निर्भर करने की बात किसी की गरिमा के प्रति अपमानजनक हो सकता है। एकजुटता के रूप में दया की अभिव्यक्ति शक्ति प्रदान करती है, क्योंकि इसका संबंध दायित्व से नहीं बल्कि विवेक से है।

राज्य के संबंध में करूणा की भाषा का प्रयोग करना कुछ विषम सा लगता है। राज्य से हमें जो चाहिए वह करूणा नहीं, बल्कि न्याय की आस है। वास्तव में करूणा या दया के लिए की गई अपील तो सरकार की सामाजिक नीति के मर्म को ही नष्ट कर देती है।

इसके विपरीत, वास्तविक एकजुटता, न्याय की भाषा बोलती है। वह अधिकारों, संस्थागत दायित्वों, प्रक्रियाओं और जवाबदेही के बारे में कठोर प्रश्न करती है। करूणा विषय से जुड़ी भाषा बोलती है, जबकि न्याय नागरिकता से जुड़ी भाषा। अन्याय के दौरान आपको सरकार पर नाराजगी दिखाने का अधिकार दिया जाता है। करूणा किसी की सत्ता के लिए एक अपमानजनक अपील है।

एक न्याय आधरित एकजुटता कुछ अलग सवाल पूछती है। वह यह नहीं पूछती कि भूख या सामाजिक असंतोष से बचने के लिए हम कम-से-कम क्या कर सकते है ? वह यह पूछेगी कि इन परिस्थितियों में सरकार का क्या दायित्व होना चाहिए ? सरकार चाहे तो और अधिक निधि वाले आर्थिक पैकेज की घोषणा कर सकती है। परंतु इतने लंबे समय तक प्रतीक्षा करने के बाद और असंख्य नागरिकों के लिए टाली जा सकने वाली करूणा पर निर्भरता के द्वारा सरकार ने कठिन समय में एक गहरी चोट दे दी है। अन्न का वितरण आवश्यक था। साथ ही अनेक राजनीतिक दलों और विशेषज्ञों द्वारा प्रस्तावित धन का वितरण भी किया जाना था। जब सरकार को बाध्य होकर मजबूरी में ऐसा करना पड़े, तो उसे न्याय नहीं कहा जा सकता।

दूसरे, एक वास्तविक एकजुटता, अर्थव्यवस्था के बारे में विभिन्न प्रकार के संरचनात्मक प्रश्न पूछती है। इस पर अभी तक कोई विश्वसनीय डेटा प्राप्त नहीं है। फिर भी एक बात तो स्पष्ट रूप से कही जा सकी है कि भारत के कम से कम 50% परिवारों के पास कोई जमा पूंजी नहीं होगी, जिससे वे आर्थिक गतिविधियां बंद होने की स्थिति में गुजारा कर लें। पिछले दो दशकों से गरीबी में आई गिरावट ने हमें अधिकांश घरों की निश्चितता से विमुख कर दिया है। कुछ विश्वसनीय स्रोतों से प्राप्त आंकड़े चैंकाने वाला दृश्य प्रस्तुत करते हैं। किसी अर्थव्यवस्था में 36% श्रम भागीदारी के साथ केवल 23.4% रोजगार का  उपलब्ध होना।

कुल मिलाकर कहें, तो व्यापक बेरोजगारी भारतीय अर्थव्यवस्था की विशेषता बनी रहेगी। इन परिस्थितियों में सामाजिक एकजुटता कैसे दिखेगी ? हमें एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना के लिए बहुत महत्वकांक्षी बुनियादी ढांचे की आवश्यकता है। इसमें न्यूनतम बुनियादी आय की गारंटी भी एक साधन हो सकता है। जहां तक न्याय का प्रश्न है, तो सर्वप्रथम हमें ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि हमारे नागरिकों को करूणा का पात्र न बनना पड़े।

तीसरे, न्याय के लिए आवश्यकता होगी कि करूणा की अपील, नीति का विकल्प न बने। सरकार ने पहले ही अपील की है कि कर्मचारियों को फिलहाल नौकरी से न निकाला जाए। इससे सभी निजी संगठनों में, खासतौर पर न्याय की दृष्टि से यह सुनिश्चित हो जाता है कि संगठनों के कठिन समय के दर्द को उचित रूप से साझा किया गया है। वैसे तो वास्तव में यह संगठन की प्रकृति पर निर्भर करता है। सरकार की ओर से निजी संगठनों को बिना वित्तीय सहायता दिए ऐसी अपील किए जाने को एक भावनात्मक जुमलेबाजी माना जा सकता है। इससे एकजुटता की भावना को थोपा नहीं जा सकता।

चैथे, एकजुटता के लिए सार्वजनिक व निजी क्षेत्र के संबंधों को नया रूप देने की आवश्यकता होती है। वर्तमान परिस्थितियों में, इसे स्वास्थ्य से जोड़कर देखा जाना चाहिए। हमने तो सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली को मजबूत करने की जगह एक जोखिम भरी बीमा प्रणाली का विकल्प चुना है। बीमा में हम अपने निजीहितों के लिए जोखिम साझा करते हैं। जबकि सार्वजनिक प्रणाली में, हम समान उद्देश्यों और लक्ष्यों को साझा करते हैं। निजी बीमा करके खतरे को साझा करने वाली प्रणाली में सामूहिक एकजुटता की भावना कहीं नहीं है। इस संकट की घड़ी में यह पूरी तरह से स्पष्ट हो गया है कि हमारी तैयारी सामूहिक स्तर पर नहीं है।

पाँचवा, अर्थव्यवस्था के लिए बड़े पैमाने पर प्रोत्साहन होना चाहिए। इसके लिए विकास दर अच्छी होना आवश्यक है। इस प्रोत्साहन के परिणाम भी कई क्षेत्रों में देखने को मिलेंगे। ये गहरे होंगे, और तमाम प्रश्न लेकर उपस्थित होगे। इसमें किसको राहत मिलेगी ? इसकी भरपाई कौन करेगा ? अमीरों पर कितना कर भार बढ़ाया जा सकता है ? आदि-आदि।

बड़े पैमाने पर ये प्रश्न संरचनात्मक लग सकते हैं। ये प्रश्न वर्तमान समय की मांग है। अगले कुछ सप्ताह में ऐसे कुछ निर्णय लिए जा सकते हैं, जिनका भारतीय अर्थव्यवस्था पर दूरगामी प्रभाव पड़ सकता है।

निकट अवधि में, इसे करूणा का आह्यन और लंबी अवधि में इसे शायद मूलभूत अन्याय माना जाए। ऐसा भी हो सकता है कि इस अवसर का उपयोग शुद्ध एकजुटता के प्रति प्रश्न उठाने में किया जा सके। करूणा का सीधा संबंध लोगों के दिलों में झांकने से है, जबकि शुद्ध एकजुटता का संबंध धन और शक्ति के प्रवाह से है। उन प्रवासी मजदूरों और बेरोजगारों की शांति, जिसे हम यूं ही ले लेते है; हमसे दया की नहीं, अधिकारों की मांग करती दिखाई देगी।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित प्रताप भानु मेहता के लेख पर आधारित। 18 अप्रैल, 2020