आधुनिकता पर पुनर्विचार का समय

Afeias
29 Apr 2020
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Date:29-04-20

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कहावत है कि, ‘हर समस्या में एक अवसर छिपा होता है।‘ वर्तमान महामारी के इस नाटकीय परिदृश्य में गांधीजी का 1909 के “हिंद स्वराज” का घोषणा पत्र स्मरण हो आता है, जिसमें उन्होंने आधुनिकता के प्रति आकर्षण से दूर रहने की स्पष्ट अपील की थी। आधुनिकता से सामाजिक स्तर का आकलन करने को उन्होंने एक बीमारी माना था। इस कथन से हम गांधीजी को चाहे भविष्यवक्ता की दुष्टि से देखें या नहीं, परंतु उनके इस वाक्यांश से औपनिवेशिक शासन की रेलवे, न्यायालय, अंग्रेजी दवाईयों और अंग्रेजी शिक्षा के लिए एक प्रकार का अभियोगात्मक पुट मिलता है। स्पष्ट है कि अंग्रेजी शासनकाल में शुरू हुई रेलवे तत्कालीन महामारियों के संक्रमण का बहुत बड़ा कारण बन गई थी।

आधुनिकता की चमक एक भ्रामक मृगतृष्णा के रूप में बेपर्दा हो रही है। यह इस बात पर जोर दे रही है कि हमारी जीवन शैली ने हमें पहले से कहीं ज्यादा कमजोर बना दिया है (गांधीवादी दृष्टिकोण से नैतिक और शारीरिक रूप से)। जाहिर है, मुक्त व्यापार, सस्ती उड़ानों और सोशल मीडिया ने हमारी नजदीकी बढ़ा दी है। परंतु ये हमें और भी कमजोर बना रहे हैं। बड़े पैमाने पर हिस्टीरिया बढ़ रहा है, क्योंकि अफवाहें और गलत समाचार वायरस की तुलना में अधिक तेजी से फैल रहे हैं।

हम अपनी आधुनिकता के अभिमान में चूर, सभी तरह की बिमारियां को काबू में करने का दंभ रखने वाले लोग, मीडिया के अनुसार महाविनाश से एक-दो कदम ही दूर हैं। इस अशुभ परिदृश्य का सामना करते हुए गांधीजी द्वारा 5 अक्टूबर 1945 को जवाहरलाल नेहरू को लिखे एक पत्र को उद्घृत करना जरूरी सा लगता है। उन्होंने लिखा था, ‘जब कीट अपने अंत के निकट पहुंचता है, तो वह जलने तक तेजी से चक्कर लगाता है। ऐसा लगता है कि भारत भी इस पतंगे जैसे चक्कर से बच नहीं पाएगा। यह मेरा कर्तव्य है कि अपनी अंतिम सांस तक भारत को बचाने का प्रयत्न करूँ, और इस माध्यम से विश्व की भी रक्षा करूँ।‘

गांधीजी के पूर्वाभास से हमें एक नई मानसिकता को अपनाने के लिए तुरंत तैयार हो जाना चाहिए। उनके प्रेरणादायक उदाहरण से हमें राजनीति के व्यवहार्य वैकल्पिक मॉडल का संकेत मिलता है, जो हमें समकालीन गतिरोध से निकाल सकता है। नैतिकता के साथ अर्थशास्त्र, राजनीति और प्रौद्योगिकी को एकीकृत करने का उनका रोडमैप इस अनिश्चिीत समय में हमारे मस्तूल की तरह काम कर सकता है।

जब इस वायरस के लिए एलोपैथी में कोई दवा नहीं है, तब हम गांधीजी के नैचुरोपैथी का सहारा ले सकते हैं। इसमें सुरक्षात्मक उपचार; जैसे व्यक्तिगत स्वच्छता, सामुदायिक साफ-सफाई, अपने इलाके तक सीमित रहना, लंबी दूरी की यात्राओं को टालना, और सार्वजनिक सभाएं न करना जैसे तरीके अपना सकते हैं।

संक्षेप में, गांधीजी के स्वदेशी, स्वच्छता और सर्वोदय जैसे तीन मार्गदर्शनों को अपनाया जाना चाहिए। अधिक व्यापक रूप से एक वैश्वीकृत जीवन शैली में लिप्त होने के बजाय, हमें गांधीजी के आहृान पर ‘ग्लोकलाइजेशन‘ का एक अनूठा संस्करण प्रचलित करना चाहिए, जिसमें हमारे निकटवर्ती गांव या पड़ोस की सीमा के भीतर पूरी दुनिया को अनुभव करने के लिए, शोषणवादी नीतियों का यथासंभव त्याग करते हुए पर्यावरण के साथ सामंजस्य स्थापित करने का प्रयत्न करना चाहिए।

वैश्विक अर्थव्यवस्था में आए भयावह व्यवधान के मद्देनजर, हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में गांधीजी के ग्राम स्वराज के स्वप्न को साकार करने के लिए यह आदर्श क्षण हो सकता है। वास्तव में ‘अपने सामान्य जीवन और उच्च विचार‘ के माध्यम से गांधीजी ने दुनिया में जो बदलाव देखना चाहा, उसके लिए हममें से प्रत्येक, मानवता और पृथ्वी ग्रह के कल्याण के लिए अपना योगदान दे सकता है। यही हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित गीता धर्मपाल के लेख पर आधारित। 20 अप्रैल, 2020

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