देशद्रोह कानून पर पुनर्विचार हो

Afeias
18 Mar 2020
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Date:18-03-20

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हाल ही में नागरिकता संशोधन विधेयक के विरोध के दौरान बेंगलुरू में एक कार्यक्रम में पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाने वाली एक युवती को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया। दरअसल, यह लड़की कई देशों के जिंदाबाद के नारे लगा रही थी, जिनमें भारत, बांग्लादेश, नेपाल आदि भी थे। परन्तु उसने सबसे पहले पाकिस्तान से संबंधित नारा लगा दिया। इसके बाद मीडिया या उपस्थित जनसमूह ने उसकी आवाज ही नहीं सुनी और उसे दोषी करार दिया गया।

हम अपने बच्चों को यही सिखाते हैं कि राष्ट्र ही उनकी भूमि है। एक राष्ट्र का अर्थ, उनमें रहने वाले लोगों से है, और उसके सभी लोगों को मूलभूत सुविधाएं प्राप्त करने का अधिकार है। सरकार का यह दायित्व है कि वह अपने नागरिकों को सुविधाएं मुहैया कराए। इस हिसाब से उन सभी के लिए ‘जिंदाबाद’ जो लोगों के लिए काम करते हैं। 19 वर्ष की इस युवती के जज़्बे को सलाम किया जाना चाहिए कि वह घृणा और संदेह के इस वातावरण में अपने व पड़ोसी देशों की दीर्घायु होने की कामना करते हुए भावनाएं व्यक्त कर रही थी।

पुलिस का कहना है कि वह इस युवती के माक्र्सवादी संपर्क की जांच कर रही है। अगर वह माक्र्सवादी विचारधारा की है भी, तो इसमें बुराई क्या है। सैकड़ों नौजवान इस दृष्टिकोण को लेकर चलते हैं। इनकी विद्रोही प्रवृत्ति या बयानबाजी को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा मान लेना गलत है। शहरी नक्सलवादी तो भारतीय प्रजातंत्र से ज्यादा पाकिस्तान की सैन्यवादी परंपरा के विरोधी हैं। अतः ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ के नारे पर किसी को नक्सलवादी मान लेना बकवास है।

दूसरे, किसी भी राष्ट्र के जिंदाबाद की कामना करना कहाँ से गलत ठहराया जा सकता है ? भारतीय देशद्रोह कानून की शुरूआत ब्रिटिश राज में भारतीय असंतोष के दमन के लिए की गई थी। इसकी औपनिवेशिक कानून के उन्मूलन की आवश्यकता है।

उच्चतम न्यायालय ने बार-बार यह बात कही है कि इस कानून को सिर्फ गंभीर स्थितियों में उपयोग में लाया जाना चाहिए। 1995 के बलवंत सिंह के मामले में न्यायालय ने स्पष्ट कहा था कि ‘किसी व्यक्ति द्वारा एक दो बार नारे लगाए जाने को भड़काऊ या सरकार के विरूद्ध घृणा फैलाए जाने का प्रयास नहीं माना जा सकता।

एक समय पर अमेरिका और ब्रिटेन ने कश्मीर मुद्दे पर वर्षों पाकिस्तान का समर्थन किया था। तो क्या ‘अमेरिका या ब्रिटेन जिंदाबाद’ के नारों को गिरफ्तारी का आधार बना दिया गया ? जवाहरलाल नेहरू ने चीन को मित्र के रूप में देखने के प्रयास में ‘हिन्दी-चीनी भाई भाई’ का नारा दिया था। इसे तो जिंदाबाद के नारों से भी ज्यादा उग्र माना जाना चाहिए था। भाजपा के ही पूर्व पार्टी जनसंघ ने नेहरू की विदेश नीति की कठोर आलोचना की थी। परन्तु इस नारे को कभी देशद्रोह से जोड़कर नहीं देखा।

कुछ भारतीय, पाकिस्तान को एक ऐसा दुश्मन मानते हैं, जिससे कभी दोस्ती नहीं हो सकती। दोनों देशों में कुछ ऐसे भी हैं, जो एक सद्भावना-पुल के रास्ते सब कुछ जोड़ने का स्वप्न देखते हैं। पाकिस्तान और भारत के लिए जिंदाबाद कहने वाले दोनों ही देशों के लोग अमन और शांति चाहते हैं। वे देशद्रोही नहीं हैं।

फ्रांस और जर्मनी ने तीन युद्ध लड़े थे। इन युद्धों के बाद, शांतिदूतों ने दोनों देशों के ‘मुर्दाबाद’ के नारों को ‘जिंदाबाद’ में बदलने की ठान ली। वे इस प्रयत्न में थे कि अगला युद्ध न हो। इन शांतिदूतों को देशद्रोह के जुर्म में कभी नहीं पकड़ा गया। आज उन्हीं शांतिदूतों को महान् नेताओं की तरह याद किया जाता है।

ईसा मसीह ने बताया था कि केवल अपने मित्रों से प्रेम करना पर्याप्त नहीं है। अपने दुश्मनों से भी प्रेम करना चाहिए। अगर वर्तमान भारत में उन्होंने अपना यह उपदेश दिया होता, तो निश्चित रूप से उन्हें देशद्रोह के अपराध में गिरफ्तार कर लिया गया होता।

‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित स्वामीनाथन एस. अंकलेश्वर अय्यर के लेख पर आधारित। 26 फरवरी, 2020

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