भारतीय नागरिकता कानून पर पुनर्विचार का समय है

Afeias
29 Aug 2018
A+ A-

Date:29-08-18

To Download Click Here.

असम में चल रही भारतीय नागरिकता रजिस्टर मुहिम से भारतीय नागरिकता पर बने कानून और नीतियों पर एक बार खुलकर बहस करने और विचार करने का समय आ गया है।

1955 में बनाए गए नागरिकता अधिनियम का उद्देश्य ब्रिटिश राज की प्रजा को, ब्रिटिशकालीन भारत में रियासतों की प्रजा को तथा 1961 में पुर्तगाल द्वारा अधिकृत भारतीय क्षेत्रों के लोगों को भारतीय नागरिक के रूप में मान्यता देना था। इस अधिनियम में कई बार संशोधन किए गए। अंतिम संशोधन 2003 में हुआ था।

सरकार की पहल पर विवाद

2016 में भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने इसमें संशोधन करने का प्रयत्न किया था। इससे पड़ोसी देशों में इस्लाम के अलावा अन्य धर्मों को मानने वालों को भारतीय नागरिकता देने का प्रस्ताव रखा गया था। यह प्रस्ताव विवादों में घिरकर रह गया। इसका सबसे अधिक विरोध असम, मेघालय और त्रिपुरा में हुआ था। सरकार पर आरोप लगाया गया था कि वह धर्म के नाम पर भेदभाव कर रही है। दूसरे, अवैध रूप से भारत में प्रवेश करने वाले प्रवासियों को यूं भारतीय नागरिकता देने पर भी सवाल उठा था।

असम में एन आर सी के चलते 40 लाख लोग अपनी भारतीय नागरिकता का प्रमाण देने में असमर्थ रहे हैं। सरकार का कहना है कि ये सभी घुसपैठिए हैं। साथ ही उसका यह भी कहना है कि मुसलमानों के अलावा अन्य धर्मों को मानने वालों को संरक्षण दिया जाएगा।

वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भारत की नीति लोगों के सरहद-पार अबाधित आवागमन की समर्थक रही है। अमेरिका में ट्रंप की एच-वी वीज़ा नीति की आलोचना होती रही है, क्योंकि इससे बहुत से भारतीयों का जीवन अधर में लटक जाएगा। इसके अलावा भारत ने ब्रिटेन में रह रहे ऐसे भारतीयों को वापस लेने से मना कर दिया है, जिनके दस्तावेजों में अनियमितता है। ऐसे दृष्टिकोण के साथ भारत को चाहिए कि वह भारत में जन्मे या एक निश्चित समय तक भारत में रह चुके लोगों को नागरिकता का प्रावधान दे। वह उन भूमिहीन गरीबों की मजबूरी को समझे, जो अपनी भारतीय वंशावली के प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सकते। “वसुधैव कुटुम्बकम” की परंपरा को निभाते हुए ही कोई निर्णय होना चाहिए।

‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 6 अगस्त, 2018

Subscribe Our Newsletter