नागरिकता संशोधन विधेयक की जटिलताएं

Afeias
28 Jan 2019
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Date:28-01-19

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नागरिकता संशोधन विधेयक को लोकसभा में पारित किया गया है। इस विधेयक में पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से यहाँ आने वाले गैर-मुसलमानों को भारतीय नागरिकता देने का प्रावधान है; भले ही उनके पास कोई वैध दस्तावेज न हों। नागरिकता के अनिवार्य 12 साल की समय सीमा को घटाकर छह साल कर दिया गया है। इन देशों के हिन्दू, पारसी, सिख, ईसाई आदि मुसलमानों से इतर, किसी भी समुदाय का व्यक्ति जो छह साल से भारत में रह रहा हो, वह नागरिकता का अधिकारी है।

हाल ही में नागरिकता से संबंधित ऐसे ही एक मुकदमे में मेघालय उच्च न्यायालय के न्यायाधीश एस.आर.सेन ने कहा कि ‘‘विश्व के किसी भी देश से आने वाले हिन्दू को भारतीय नागरिकता प्रदान की जाएगी।’’

वास्तव में, उनका यह वक्तव्य भारत को एक हिन्दू राष्ट्र घोषित करता है। दूसरे, यह भारतीय संविधान के नागरिकता वाले अनुच्छेद 5 से 11 और 1955 के नागरिकता अधिनियम का विरोधी है। दूसरी ओर, इससे एक देश के रूप में भारत की छवि हिन्दुओं का और हिन्दुओं के लिए सुसंगत राष्ट्र जैसी बन जाती है।

न्यायाधीन सेन का निर्णय, भारत में पीढ़ियों से रह रही मुस्लिम जनता के प्रति कुछ उदारता रखता है, परन्तु तभी तक, जब तक वह ‘सबके लिए समान कानून’ का पालन करती है। अगर कोई इस कानून का विरोध करता है, तो उसे नागरिकता से वंचित किया जा सकता है।

संविधान का अनुच्छेद 15 ‘धर्म के आधार पर भेदभाव’ करने का निषेध करता है। यह विधेयक भारतीय नागरिकता रजिस्टर और उसकी अंतिम तिथि का उल्लंघन एवं 1986 के नागरिकता अधिनियम (संधोधित) का भी विरोध है।

अपने निर्णय में न्यायाधीश ने इतिहास का हवाला देते हुए कई झूठे या असत्य वक्तव्य भी दिए। उनका यह कहना कि भारत जैसे वृहद् हिन्दू राष्ट्र का बंटवारा मुगलों ने किया, और बहुतों को बलपूर्वक मुसलमान बना दिया गया, सरासर गलत है।

सच्चाई यह है कि मुगलों से बहुत पहले मुसलमान सातवीं शताब्दी में व्यापारियों की तरह भारत आए थे। इसके बाद 1206 से 1526 तक पाँच मुस्लिम वंशों ने भारत-भूमि पर राज्य किया। मुगलों के समय भी हिन्दुओं के बड़े स्तर पर धर्म-परिवर्तन के कोई प्रमाण नहीं मिलते हैं। यही कारण है कि आज भी भारत में इतनी बड़ी संख्या में हिन्दू हैं। मुगलों के दरबार में 18 से 41 प्रतिशत राजपूत थे। सबसे बड़ी बात है कि भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम अंतिम मुगल शासक के अधीन लड़ा गया था।

स्वतंत्रता पश्चात् विभाजन के दौरान जहां पाकिस्तान को मुस्लिम राष्ट्र घोषित किया गया, वहीं हमारे संविधान-निर्माताओं ने भारत की प्रगति को ध्यान में रखते हुए उसे धर्म-निरपेक्ष देश घोषित करना बेहतर समझा।

धर्म के आधार पर नागरिकता दिए जाने के मामले में यह भी दलील दी जा रही है कि इस प्रकार की धार्मिक असहिष्णुता असम जैसे राज्य में वर्षों से चली आ रही है। यहाँ के लोगों ने एक समय पर सिलहट और बंगाली हिन्दुओं को भगाया था। इसी के चलते आज यह स्थिति जन्मी है।

असम में पहचान के संकट की समस्या देश की आजादी जितनी ही पुरानी है। राज्य में पड़ोसी बांग्लादेश से घुसपैठ के खिलाफ समय-समय पर आवाजें उठती रही हैं। असम गण परिषद् के नेता का कहना है कि इस विधेयक के पारित होने से गैर मुसलमान आप्रवासियों को नागरिकता मिल जाएगी। यह ऐतिहासिक असम समझौते के प्रावधानों का खुला उल्लंघन होगा। 1985 में हुए इस समझौते में असम के भू-क्षेत्र में बाहर से आए घुसपैठियों को बाहर निकालने के बारे में समझौता किया गया था। इस आंदोलन में गैर-असमिया लोगों ने भी भाग लिया था।

अतः धार्मिक आधार पर नागरिकता दिए जाने का कानून किसी भी रूप में सुसंगत नहीं है। इससे असम में घुसपैठियों का खदेड़ने के लिए चल रही एनआरसी की प्रक्रिया की सार्थकता पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित फैजान मुस्तफा के लेख पर आधारित। 18 दिसम्बर, 2018

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