अनुसूचित जाति – जनजाति आरक्षण पर पुनर्विचार हो

Afeias
01 May 2020
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Date:01-05-20

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हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने आंध्र प्रदेश सरकार के सन् 2000 के फैसले को गलत बताया है, जिसमें उसने अनुसूचित जनजाति बहुल क्षेत्रों में स्थित स्कूलों में इसी श्रेणी के शिक्षकों की नियुक्ति के लिए 100% आरक्षण का प्रावधान किया था।

जस्टिस अरूण मिश्रा के नेतृत्व वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने इस फैसले को 1992 के इंदिरा साहनी मामले यानि मंडल कमीशन आयोग के फैसले के खिलाफ बताया है। ज्ञातव्य हो कि आंध्र हाईकोर्ट ने राज्य सरकार के फैसले को सही ठहराया था।

आरक्षण की अधिकतम 50% की सीमा को लांघने के लिए आंध्र प्रदेश एवं तेलंगाना सरकारों से कारण बताने को कहा गया है। साथ ही उन पर पांच लाख रुपये का आर्थिक दंड भी लगाया गया है।

राज्य सरकार के फैसले और उस पर दिए गए उच्चतम न्यायालय के आदेश से कुछ बातें स्पष्ट हो जाती हैं।

  • आरक्षण कोई मौलिक अधिकार नहीं है, बल्कि परंपरागत और ऐतिहासिक रूप से निरंतर अभावों में रह रहे वंचित वर्गों को उनके अधिकारों से सशक्त करने की एक नीति है।
  • नीति का डिजाइन ऐसा होना चाहिए, जो शक्ति बढ़ाने के बजाय, पिछड़े वर्गों के अंदर से हीनता की भावना को मिटा दे।
  • अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए वर्तमान आरक्षण नीति में क्रीमीलेयर को परिभाषित करने वाली आय सीमा जैसा कोई मानदंड नहीं है। जबकि अन्य सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के मामले में ऐसे क्रीमीलेयर वर्ग को आरक्षण से बाहर रखा गया है। कुछ ही लोगों तक सीमित रहने वाले आरक्षण के लाभों को रोकने के लिए इस तरह की कसौटी की आवश्यकता होती है। परंतु चुनावी राजनीति के चलते ऐसी संभावना पर चर्चा का सामान्य प्रतिरोध किया जाता रहा है।

सर्वोच्च न्यायालय अपने अवलोकन में सही है कि सरकारों को आरक्षण नीति और प्रक्रिया की समय-समय पर समीक्षा करनी चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि नीति का लाभ उन लोगों तक पहुंच रहा है, जिन्हें इसकी आवश्यकता है। अतः सरकार को चाहिए कि वह आरक्षण को दो पीढ़ियों तक सीमित रखते हुए, लिंग एवं आय के पिछलेपन के आधार पर दिव्यांगों को आरक्षण देने पर विचार करे।

समाचार पत्रों पर आधारित।

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