आरक्षण के मायने

Afeias
16 Jan 2017
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Date: 16-01-17

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हमारे देश में आरक्षण पर लंबे समय से बहस चली आ रही है कि क्या विद्यालयों, उच्च शिक्षा संस्थानों और नौकरियों में आरक्षण से असमानता को बढ़ावा मिल रहा है ? इस पर लोगों की अपनी-अपनी विचार धाराएं एवं दृष्टिकोण हैं। इस मामले में विरले लोग ही अपने विचारों में परिवर्तन करना चाहते हैं। यही कारण है कि आरक्षण पर देश कभी एकमत नहीं हो पाया।सवर्ण तबके के लोगों को लगता है कि अधिकारहीन लोगों को सामाजिक जन प्रतिनिधित्व के लिए सरकारी सहायता देने की कोई आवश्यकता नहीं है। आरक्षण के प्रति यह विरोध तीन आधारों पर है।

  • सुशिक्षित और सवर्ण वर्ग में कुछ लोग यह मानते हैं कि विद्यालयों और नौकरियों में श्रेष्ठता के आधार पर सीट दी जानी चाहिए। इसका परोक्ष अर्थ यह है कि परीक्षाओं और साक्षात्कार में कुछ वर्गों को दी जाने वाली छूट गलत है। इस मांग के साथ वे यह भूल जाते हैं कि सदियों से दमित-शोषित वर्ग; जिसे शिक्षा, कौशल और अन्य सामाजिक एवं अर्थिक सुविधाओं से वंचित रखा गया, आज अचानक ही अधिकार संपन्न वर्गों से प्रतियोगिता में बराबर कैसे खड़ा हो जाए ?दरअसल, सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन एकाएक नहीं हो जाते। इन्हें सफल होने में एक लंबा अरसा लग जाता है।
  • हम चाहे यह मान भी लें कि सवर्ण वर्ग तो जन्मजात ही क्षमतावान रहा है, जबकि तथाकथित शोषित वर्ग चूंकि जन्मजात ही कमजोर बुद्धि का रहा है, इसलिए इसे आरक्षण देकर ऊपर उठाना भैंस के आगे बीन बजाने जैसा है। फिर भी यहाँ एक बात तो माननी ही पड़ेगी कि जन्मजात प्रतिभा को भी अगर फलने-फूलने योग्य वातावरण न मिले, तो वह भी दब जाएगी। जब हम किसी को भी आगे बढ़ने, उभरने या विकसित होने के लिए एक सकारात्मक आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक माहौल देते हैं, तभी वह सही मायने में अपनी क्षमता का परिचय दे पाता है।
  • जब हम ‘श्रेष्ठता‘ को पैमाना बनाने की बात करते हैं, तो यह जानना भी जरूरी हो जाता है कि वास्तव में ‘श्रेष्ठ‘ किसे माना जाए ? किसी के परीक्षा में सही उत्तर देने मात्र की क्षमता से ही उसकी श्रेष्ठता का निर्धारण नही हो जाता। दमित-शोषित वर्ग के कुछ लोगों ने आर्थिक और सामाजिक अभावों के बावजूद शिक्षा संस्थानों और नौकरियों में जगह बनाकर ‘श्रेष्ठता‘ की नई परिभाषा गढ़ी है।
  • आरक्षण के विरोधी कुछ अन्य लोगों का मानना है कि इससे समाज में असमानता आ रही है। यहाँ इस बात पर गौर किया जाना चाहिए कि आरक्षण की बुनियाद ही समानता की अवधारणा पर टिकी हुई है। हमारे संविधान निर्माताओं ने इसे संविधान में शामिल ही इसलिए किया कि यह सत्ता में सभी सामाजिक वर्गों के प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित कर सके। जब सरकार, उच्च शिक्षा और व्यापार जैसे क्षेत्रों में सभी वर्गों की समान भागीदारी होने लगेगी, तो सदियों से अपने मौलिक अधिकारों से वंचित किसी विशेष वर्ग को सामाजिक संसाधनों में भी लाभ मिल सकेगा। तभी समानता आएगी।
  • तीसरा विरोधी वर्ग मानता है कि आरक्षण का आधार आर्थिक होना चाहिए। परंतु आरक्षण कोई गरीबी हटाओं कार्यक्रम नहीं है। गरीबों को सुविधाएं एवं लाभ देने के लिए सरकार ने अन्य बहुत से कार्यक्रम चला रखे हैं। आरक्षण तो इसलिए किया गया है, जिससे दलित, पिछड़े मुसलमान और आदिवासियों को उस सामाजिक असमानता और अत्याचार से मुक्ति दिलाई जा सके, जिससे सवर्ण तबके के गरीब लोग पहले ही मुक्त हैं। चाहे वह शिक्षा का अधिकार हो, चाहे भू-अधिकार हो, ये सभी हमेशा से उच्च वर्ग के पुरूषों के ही अधिकार माने गए। सरकार, अधिकारों के इसी असमान आधिपत्य को आरक्षण के माध्यम से खत्म करना चाहती है।

आरक्षण की नीति केवल भारत में ही नहीं, बल्कि विश्व के अनेक देशों में अपनाई जाती है। अलग-अलग देशों में रंग, लिंग, जाति, धर्म और नस्ल के आधार पर हो रहे भेदभाव को मिटाने के लिए दलित वर्ग को आरक्षण के माध्यम से ऊपर उठाने का प्रयास किया जा रहा है। हमारे देश में आरक्षण को अधिक मान्य बनाने के लिए विद्यालयीन स्तर से ही इसकी ऐतिहासिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को समझाने की आवश्यकता है। इसके लिए हर बच्चे के मन से जाति, नस्ल और क्षेत्रीयता का भेदभाव मिटाना होगा। तभी हमारा समाज समान बन सकेगा।

हिंदू में प्रकाशित अमित थ्रोट के लेख पर आधारित।

 

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