विशेष न्यायालय (Special Court)

Afeias
13 Jan 2017
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Date: 13-01-17

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हमारी व्यवस्थापिका ने कई अवसरों पर न्यायालय में पड़े विचाराधीन मामलों के निपटारे के लिए विशेष अदालतों का गठन किया है। लेकिन विडंबना यह है कि यदि विशेष अदालतों के गठन संबंधी कानून की जांच की जाए, तो पता चलेगा कि उनके और वास्तव में गठित विशेष न्यायालयों की संख्या के बीच कोई तादात्म्य नहीं है।विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी के एक अध्ययन में बताया गया है कि सन् 1950 से 1981 के बीच  महज तीन बार विशेष न्यायालयों के गठन की आवश्यकता पड़ी। जबकि 1982 से 2015 के बीच में लगभग 25 बार इन न्यायालयों का गठन किया गया। सवाल उठता है कि आखि़र इन बाद के वर्षों में हमारी न्यायिक नीति में ऐसे क्या परिवर्तन हुए कि हमें बार-बार विशेष न्यायालयों की जरूरत आन पड़ी?

  • विशेष न्यायालय कैसे तय होते हैं ?

जब विशेष न्यायालय की आवश्यकता पड़ती है, तो किसी एक न्यायालय को ही ‘विशेष‘ का दर्जा देकर उसे उस विशेष मामले का भार सौंप दिया जाता है।अगर विशेष न्यायालय की नियुक्ति के लिए उपलब्ध कानून पर नजर डालें , तो इन्हें पाँच समूहों में बांटा जा सकता है आर्थिक अपराध, कानून और व्यवस्था, सामाजिक न्याय, नियमन संबंधी अपराध एवं राष्ट्रीय सुरक्षा इन पाँच समूहों से जुडे़ विशेष न्यायालयों के बारे में भी स्पष्टता का अभाव है। कानून में कहीं भी यह उल्लिखित नहीं है कि किसी विशेष प्रकरण या मामले के जल्दी निपटारे के लिए ऐसी अदालतों का गठन किया जाना चाहिए।

हाल ही में बने आर्थिक अपराधों से जुडे़ कानून में उनके जल्दी निपटारे के लिए विशेष न्यायालयों का प्रावधान है। लेकिन अगर हम इसी तरह के पुराने उदाहरणों को देखें, तो पाते हैं कि आदिवासी जाति एवं जनजाति अधिनियम के तहत आने वाले ढ़ेरों मामलें लंबित पड़े हुए हैं। जबकि अत्याचारों से सुरक्षा के अंतर्गत उन्हें जल्दी-से-जल्दी निपटाया जाना चाहिए। इसी प्रकार राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी (NIA) अधिनियम 2008, और प्रिवेन्शन ऑफ करप्शन एक्ट 1988 के तहत भी बड़ी संख्या में मामले लंबित हैं।

  • विशेष न्यायालयों की कोई सार्थकता नहीं

पिछले तीन दशकों में न्याय में तत्परता लाने के उद्देश्य  से जितने भी विशेष न्यायालय गठित किए,  गए वे अपने उदे्श्य में विफल रहें हैं।इनमें लंबित पड़े मामलों की संख्या को देखते हुए संस्था की क्षमता पर सवालिया निशान लगाए जा सकते हैं।दरअसल, विशेष न्यायालयों की स्थापना के लिए जो प्रावधान दिए गए हैं, उनमें और वास्तविक रूप से इनकी स्थापना  के बीच एक बड़ा अंतर दिखाई देता है। (NIA) या केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) अधिनियम में विशेष न्यायालय की स्थापना अनिवार्य है। इसके बावजूद इस अधिनियम के अंतर्गत जितने भी विशेष न्यायालय बने, वे सब नामित किए गए थे।

दूसरे किसी मामले से संबंधित आंकड़ो की कमी या उनका अभाव विशेष न्यायालयों की असफलता का एक और बड़ा कारण है। ऑफिशियल वेबसाइट पर किसी कानून से संबंधित ताजा जानकारी न मिल पाने के कारण विशेष न्यायालयों को त्वरित निपटारे में दिक्कतों का सामना करना पड़ता है।इन सब बिंदुओं को ध्यान में रखते हुए विशेष न्यायालयों की स्थापना का औचित्य समझ में नहीं आता। पहले से चल रहे न्यायालयों में से ही किसी एक को विशेष न्यायालय के लिए नामित कर देने से बात नहीं बन सकती।

हिंदू में प्रकाशित साक्षी के लेख पर आधारित।

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