आरक्षण से जुड़े अनेक प्रश्न

Afeias
03 Oct 2019
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Date:03-10-19

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अरस्तू ने कहा है, ‘‘असमानता का सबसे खराब रूप, असमान को समान बनाने का प्रयत्न करना है।’’ भारत में सभी तरह के असमान जाति वर्ग रहे हैं, जो ऐतिहासिक तौर पर वंचित और शोषित रहे हैं। हाल ही में इसको लेकर एक बहस चल पड़ी है कि इन वर्गों को उच्च वर्णों की तरह ही स्थान दिया जाना चाहिए या नहीं ? राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख, मोहन भागवत के उस वक्तव्य पर यह बहस छिड़ी है, जिसमें उन्होंने एक सद्भावपूर्ण वातावरण में उन दो पक्षों के बीच एक सार्थक बहस करवाने की बात की थी, जो कोटा के पक्ष में हैं, और दूसरे जो योग्यता के आधार पर आरक्षण की वकालत करते हैं।

विडंबना यह है कि ‘योग्यता’ और ‘क्षमता’ की बात करने वालों को स्वयं नहीं पता कि इनके क्या अर्थ हैं। मोहन भागवत भी समय-समय पर आरक्षण के बारे में विरोधी वक्तव्य देते रहे हैं, और विवादों में घिरते रहे हैं।

इस विवादित विषय से जुड़े कुछ तथ्य प्रस्तुत हैं –

  • संसद में पहले अनुसूचित जाति / जनजाति का आरक्षण दस वर्षों के लिए लागू किया गया था। अनुच्छेद 370 की तरह ही इसका कोई निश्चित समय नहीं था, और यह अस्थायी था।
  • शैक्षणिक संस्थानों और नौकरियों में जहाँ तक आरक्षण की बात है, यह कोई मौलिक अधिकार नहीं है। अनुच्छेद 15 और 16 केवल इस बात का प्रावधान देते हैं कि अगर राज्य चाहें तो अनुसूचित जाति / जनजाति / अन्य पिछड़े वर्ग को आरक्षण दे सकते हैं। इसे समानता के अधिकार का उल्लंघन नहीं समझा जाएगा।
  • कोई भी सरकार जब चाहे तब आरक्षण को समाप्त कर सकती है। धारा 370 को निरस्त किए जाने, प्रिवी पर्स के उन्मूलन, संविधान पूर्व के पूना समझौते आदि की अब कोई अहमियत नहीं है।

मोहन भागवत ने आरक्षण पर एक स्वस्थ व शांतिपूर्ण बहस की अपील पहले भी की थी। उन्होंने आरक्षण की समीक्षा के लिए एक ऐसी समिति बनाने की भी मांग की थी, जिसमें सामाजिक समानता और देश के हित से सरोकार रखने वाले कुछ सामाजिक प्रतिनिधि हों।

भाजपा का विरोधी रवैया

आर एस एस और भाजपा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अतः हाल ही में भाजपा द्वारा महाराष्ट्र में मराठाओं, राजस्थान में गुज्जरों और गुजरात में पाटीदारों को दिया जाने वाला आरक्षण समझ से परे है।

मंडल कमीशन ने इन सभी जातियों को सक्षम व उग्र जाति के रूप में माना है। राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग भी इससे सहमत है। इसके बावजूद सरकार ने ऐसा कदम उठाया है।

भाजपा ने 50 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने की सीमा का उल्लंघन करते हुए चुनाव से पहले उच्च वर्गों के निर्धनों को दस प्रतिशत आरक्षण दिया है।

2018 के जरनैल सिंह मामले में भाजपा ने आरक्षण की वकालत भी की थी।

भाजपा के इन कदमों से यही सिद्ध होता है कि यह दल कहीं से भी आरक्षण का विरोधी नहीं है, बल्कि यह नए समुदायों को भी आरक्षण में शामिल किए जाने की पक्षधर है।

कुछ प्रश्न

राजनीतिक दलों की आरक्षण के पीछे की मंशा में बहुत से कूटनीतिक दांव छिपे होते हैं। लेकिन सामाजिक स्तर पर इसकी विवेचना से जुड़े अनेक प्रश्न सामने खड़े हो सकते हैं।

(1) आरक्षण की सीढ़ी में इसके लाभ कितने नीचे तक पहुँचे हैं? (2) क्या अनुसूचित जाति / जनजाति के ही अभिजात वर्ग ने इसके लाभों पर एकाधिकार जमा लिया है? (3) क्या अनुसूचित जाति / जनजाति के मलाईदार तबके को आरक्षण से बाहर कर देना चाहिए ? (4) क्या आरक्षण के लाभ सिर्फ प्रवेश और नौकरियों तक सीमित रहने चाहिए ? (5) क्या पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था को हटा देना चाहिए। (6) पिछड़ेपन को कैसे परिभाषित किया जाए? (7) क्या सामाजिक पिछड़ेपन की जगह आर्थिक पिछड़ेपन को आरक्षण का आधार बना दिया जाए, (8) क्या मंडल कमीशन और 1992 में इंदिरा साहनी के मामले में अपेक्स कोर्ट की पीठ द्वारा निर्धाति, सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन के 11 पैमानों की पुनर्समीक्षा की जानी चाहिए ? (9) क्या आरक्षण को निजी क्षेत्र तक बढ़ाया जाना चाहिए। (10) आरक्षण की रिक्त सीटों को आगे के लिए ऐसे ही छोड़ दिया जाना चाहिए ? इसी प्रकार पदोन्नति में आरक्षण का लाभ उठाकर पदोन्नत हुआ सहकर्मी अनेक कर्मचारियों की कुंठा का कारण बनता जा रहा है।

विदेशों की सार्वजनिक संस्थाओं में भी सामाजिक विविधता को बनाए रखने के लिए अनेक प्रयास किए जाते हैं। आरक्षण से हमारे देश में भी विविधता को बनाए रखने में मदद मिली है। अगर हमें लगता है कि समानता को बनाए रखने की दिशा में आरक्षण ने एक सकारात्मक भूमिका निभाई है, तब तक उसे हटाने का विचार निरर्थक है।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित फैजान मुस्तफा के लेख पर आधारित। 3 सितम्बर,2019

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