निकटतम पड़ोसी देशों का अभी भी महत्व है

Afeias
26 Jun 2019
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Date:26-06-19

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प्रधानमंत्री के द्वितीय कार्यकाल के प्रारंभ में ही सरकार ने ‘पड़ोसी पहले‘ की अपनी नीति का परिचय देना शुरू कर दिया है। फर्क सिर्फ इतना है कि 2014 में जहाँ सार्क देशों के प्रमुखों को शपथ ग्रहण समारोह में आमंत्रित किया गया था, वहीं इस बार बंगाल की खाड़ी से जुड़े बिम्सटेक समूह देश के प्रमुखों को बुलाया गया। बिम्सटेक (BIMSTEC) यानि बांग्लादेश, भूटान, भारत, नेपाल, श्रीलंका, म्यांमार और थाइलैण्ड। इस समूह में चार देश ऐसे हैं, जो सार्क के भी सदस्य हैं।

सरकार की इस प्रारंभिक नीति का अर्थ यह कदापि नहीं लगाया जाना चाहिए कि भारत ने सार्क के विकल्प के रूप में बिम्सटेक को चुन लिया है। भारत के लिए सार्क देशों का अलग महत्व है, और इसे देखा-समझा जाना भी आवश्यक है।

एक नज़र –

1)  दक्षिण-एशियाई देशों के समूह सार्क का महत्व ऐतिहासिक और समकालीन है। दूसरी ओर देखें तो, एक प्रकार से इसका उदभव भौगोलिक स्थितियों के कारण भी माना जा सकता है।

इस समूह के देशों में भाषाई, धार्मिक एवं खान-पान से संबंधित सांस्कृतिक समानताएं भी हैं। जैसे इन देशों की नदियाँ और जलवायु प्राकृतिक रूप से एक से दूसरे देश में पहुँचती हैं, वैसे ही इनकी फिल्में, साहित्य और मनोरंजन के साधन भी पहुँचते हैं।

1985 में सार्क चार्टर के बनने के साथ ही इन देशों के बीच कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य, जलवायु-परिवर्तन, विज्ञान और तकनीक, परिवहन एवं पर्यावरण संबंधी आदान-प्रदान होने लगे थे। इन क्षेत्रों में सहयोग के साथ सतत-विकास होता रहा है।

2010 में, दिल्ली के दक्षिण एशियाई विश्वविद्यालय की स्थापना के साथ ही आज इसकी सीटों के लिए दोगुने आवेदन आने लगे हैं।

सार्क की सबसे बड़ी विफलता राजनीतिक दृश्य में रही है। इसका मुख्य कारण भारत-पाकिस्तान के बीच चलने वाला तनाव है। इस समूह के गठन के 34 वर्षों में केवल 18 बार ही राष्ट्र-प्रमुख बैठक कर सके हैं। काठमांडू में इसकी अंतिम बैठक को संपन्न हुए 5 वर्ष बीत चुके हैं।

2) दूसरी ओर बिम्सटेक का गठन बंगाल की खाड़ी के देशों के बीच बहुक्षेत्रीय तकनीकी एवं आर्थिक सहयोग बढ़ाने की दृष्टि से 1997 में किया गया था। 22 वर्षों की अपनी यात्रा में इसके राष्ट्र-प्रमुख मात्र 4 बार मिले हैं। भारत के लिए इसका बहुत महत्व है, लेकिन दो कारणों के चलते ऐसा नहीं कहा जा सकता कि यह समूह सार्क का विकल्प बन सकता है।

  • सदस्य देशों के लिए यह समूह द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और बहुपक्षीय सहयोग का विकल्प नही बन सकता। यह केवल इन देशों के विकास में अतिरिक्त सहयोग देने के लिए गठित किया गया है।
  • इसके आधिकारिक दस्तावेज में कहा गया है कि यह दक्षिण और दक्षिण-एशियाई देशों के बीच एक पुल का काम करेगा। तथा सार्क और आसियान देशों के बीच आपसी क्षेत्रीय सहयोग बढ़ाने के लिए एक मंच की तरह होगा।

शपथ ग्रहण समारोह में आए नेपाली प्रधानमंत्री और श्रीलंका के राष्ट्रपति ने भी इस बात के संकेत दिए कि यह समूह सार्क का स्थान नहीं लेगा।

सार्क के प्रति भारत का रवैया –

1)  सार्क के प्रति भारत की विमुखता का एक प्रमुख कारण पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद का होना है। 2016 में भारत में हुए उरी हमले के बाद ही प्रधानमंत्री मोदी ने इस्लामाबाद में होने वाली सार्क की बैठक का बहिष्कार किया था। अफगानिस्तान, बांग्लादेश और भूटान ने भी भारत का साथ दिया था।

2) भारत द्वारा किए गए बहिष्कार की नीति का प्रभाव शंघाई सहयोग संगठन पर देखने को नहीं मिला, जिसमें दोनों ही देश शामिल हैं। सार्क समूह ऐसा है, जिसने सदस्य देशों के द्विपक्षीय मामलों को सुलझाने का कोई प्रयत्न नहीं किया है। जबकि शंघाई संगठन; जो क्षेत्रीय सुरक्षा सहयोग के लिए ही बनाया गया है, क्षेत्र में उत्पन्न हुए संघर्षों का समाधान करता है। इसके अंतर्गत देशों के संयुक्त सैन्य अभ्यास भी किए जाते हैं।

3) सार्क के निष्क्रिय होने का एक और बड़ा कारण प्रधानमंत्री मोदी द्वारा शुरू किए गए मोटर वाहन समझौता ऊर्जा सहयोग प्रस्ताव एवं सैटेलाइट सहयोग के प्रति पाकिस्तानी प्रधानमंत्री का विरोध है। हालांकि मोटर वाहन समझौता तो भूटान के पीछे हटने के कारण संभव ही नहीं हो पाया।

4) भारत ने पाकिस्तान को दक्षिण एशिया मुक्त व्यापार समझौते को रोके रखने के लिए भी दोषी ठहराया है।

इसके साथ ही पाकिस्तान ने भारत को ‘मोस्ट फेवर्ड नेशन‘ का दर्जा देना भी स्वीकार नहीं किया है। फरवरी में पुलवामा हमले के बाद भारत ने भी पाकिस्तान का यह दर्जा समाप्त कर दिया है।

यूं तो भारत सरकार को भी आसियान समर्थित रिजनल कांप्रिहेंसिव इकॉनॉमिक पार्टनरशिप एवं बिम्सटेक देशों के बीच मुक्त व्यापार को रोकने का आरोपी माना जाता है।

‘आसियान माइनस एक्स‘ की तरह ही सार्क समूह को भी ऐसी युक्ति अपनानी चाहिए कि जो सदस्य देश व्यापार, तकनीक एवं अन्य संपर्क साधनों में सहयोग समझौते पर आगे बढ़ना चाहते हैं, वे बढ़ें और जो नहीं बढ़ना चाहते, वे न बढ़ें।

5) भारत के सार्क के प्रति रवैये के पीछे समूह से जुडे़ कुछ ऐतिहासिक कारण भी हैं। सार्क का विचार बांग्लादेश के पूर्व सैन्य तानाशाह जियाउ रहमान ने रखा था, और वे भारत के विरोधी थे। वे शायद भारत को छोटे पड़ोसी मुल्कों से एक समझौता करने पर विवश करना चाहते थे। जब भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता के लिए अपना दावा मजबूत कर लिया, तब सार्क जैसे समूह की कोई प्रासंगिकता नही रह गयी। इस समूह में भारत के वर्चस्व के कारण पाकिस्तान भी अधिक रूचि नहीं लेता है।

समय के साथ, सार्क देशों के सहयोग को भारत अपनी शक्ति की तरह देखने लगा।

भारत के लिए संभावनाएं अभी भी बहुत हैं। इस क्षेत्र में चीन के बढ़ते निवेश और ऋण के कारण सार्क एक ऐसा मंच बन सकता है, जिसके माध्यम से सार्क समूह देश विकास के लिए धारणीय विकल्प की मांग कर सकते हैं, व्यापार शुल्क का एक साथ विरोध कर सकते हैं और पूरे विश्व में फैले दक्षिण-एशियाई श्रमिकों के लिए कुछ बेहतर नियम व शर्तें लागू करवा सकते हैं। अभी तक इन पक्षों पर विचार नहीं किया गया है। ये सब तभी संभव हैं जब सार्क को विकसित होने दिया जाएगा। तभी दक्षिण एशिया के लोग मिल-जुलकर अपना भविष्य बनाने में कामयाब हो सकेंगे।

‘द हिंदू‘ में प्रकाशित सुहासिनी हैदर के लेख पर आधारित। 5 जून, 2019