धारा 377 और यौन अल्पसंख्यकों का जीवन

Afeias
31 Jul 2018
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Date:31-07-18

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फिलहाल सरकार ने इस बात की घोषणा कर दी है कि वह एकांत में दो वयस्कों की सहमति से किए गए कृत्य को अपराध की श्रेणी से मुक्त करने का विरोध नहीं करेगी। इस मामले में सरकार ने पहली बार ऐसा निर्णय लिया है। जब 2013 में उच्चतम न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 पर 2009 के फैसले को उलट दिया था, तब इसे भारत में मानव अधिकारों के लिए बहुत बुरा समय माना गया था। वर्तमान सरकार का यह हृदय परिवर्तन कुछ आश्चर्यजनक माना जा रहा है।

(1) समलैंगिक, समलिंगी, उभयलिंगी और विपरीत लिंगी जिसे आमतौर पर एल जी बी टीक्यू कहा जाता है, ने शुरूआत में यह मांग की थी कि धारा 377 को अपनी सम्पूर्णता के साथ स्वीकार किया जाए। इस मांग ने अनेक मुसीबतें खड़ी कर दी थीं। भारत में, धारा 377 में कई प्रकार के यौन संबंधों को समाहित किया गया है, जिसमें जैविक रूप से हानिकारक और गैर-सहमति से बनाए सबंधों को भी शामिल किया गया है। पूरे अनुभाग को अपराध की श्रेणी से मुक्त करने का अर्थ, कई प्रकार की सुरक्षा को खत्म करना था।

(2) इस प्रकरण में दूसरा मुद्दा कार्यप्रणाली का था। 2009 तक के 20 वर्षों में एक भी व्यक्ति को दोषी सिद्ध नहीं किया गया। ऐसी स्थिति में पुलिस का उत्पीड़न दिखाना संभव नहीं हो सकता था। जबकि हमारी पुलिस, ऐसे मामलों में कोई भी कानून लगाकर लोगों को परेशान करना जानती है।

(3) इसमें तीसरा मुद्दा राजनीतिक व निर्वाचन क्षेत्रों का था। रूढ़िवादी संगठनों ने इसको अपराधीकरण से मुक्त करने का विरोध किया था। ये सब मुख्य निर्वाचन क्षेत्रों का मामला था।

अब सरकार और न्यायालय दोनों ही इस कानून के व्यापक पक्ष के महत्व को समझते हुए, इसे मानवीय जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव से जोड़कर देख रहे हैं। न्यायालय ने 2014 में किन्नरों को ट्रांस-जेन्डर का दर्जा देकर, उनकी गरिमा और कानूनी अधिकारों की रक्षा करने का उदाहरण प्रस्तुत किया है। न्यायालय के इस निर्णय ने यह सिद्ध कर दिया कि समावेशी, समानता और स्वतंत्रता जैसे मूलभूत मूल्य ही भारत गणराज्य का आधार हैं।

दूसरा उदाहरण, पुत्तास्वामी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में प्रस्तुत किया गया। इसमें न्यायालय ने ‘यौन अभिव्यक्ति’ को व्यक्ति की पहचान और निजता की विशेषता से जोड़कर देखा। यह भी कहा कि यौन अभिव्यक्ति के आधार पर किसी के साथ भेदभाव करना, उसकी गरिमा और मूल्यों पर आक्रमण करने जैसा है।

  • न्यायालय के ये दोनों ही निर्णय स्पष्ट रूप से भारत में यौन अल्पसंख्यकों के अधिकारो की वकालत करते हैं। इससे यह भी साफ जाहिर हो जाता है कि धारा 377 जैसे कानून अब टिक नहीं सकते।
  • सैद्धांतिक रूप से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि हमारे संविधान में दिए गए अनुच्छेद 14, 15 और 21 के मूलभूत अधिकारों के अंतर्गत यौन अभिव्यक्ति की सुरक्षा की जानी चाहिए।
  • इन मामलों ने न्यायालय के सामने एक चुनौती खड़ी कर दी है, जिसमें एक संस्था की जिम्मेदारी निभाते हुए सबके लिए समानता के संवैधानिक दिशानिर्देश को पूरा करना है। संवैधानिक अधिकारों की रक्षा किए बगैर यौन अल्पसंख्यकों को भेदभाव, दुर्व्यवहार, असमानता, हिंसा एवं पहचान के संकट का सामना करना पड़ेगा।

इन सबसे निपटना तभी संभव है, जब न्यायालय उनके समानता के अधिकार की रक्षा करेगा। इसके अभाव में आज एल जी बी टीक्यू समुदाय में आत्महत्या की दर बहुत अधिक है। अधिकारों के अभाव में इस समुदाय के लोगों में भय है। इससे पैतृक सत्ता और मर्दानगी को ही बढ़ावा मिल रहा है। समाज में भय या आधिपत्य के वातावरण का प्रभाव दबे हुए लोगों पर पड़ता है, और इससे समाज में मानसिक बीमारियों, हिंसा, अलगाव और दुर्व्यवहार का बोलबाला हो जाता है। अतः धारा 377 पर विचार करके उसके कुछ भागों को अपराध के दायरे से मुक्त कर दिए जाने से भारत के सामाजिक और आर्थिक विकास में गति लाई जा सकती है।

न्यायालय को चाहिए कि वह यौन अल्पसंख्यक समुदायों को उनके अधिकार देकर उन्हें समाज की मुख्य धारा से जोड़े। चाहे इसके लिए भेदभाव के विरोध में कोई कानून ही क्यों न बनाना पड़े।

समाचार पत्रों पर आधारित।

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