चीन की कूटनीति और भारत

Afeias
02 Jul 2020
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Date:02-07-20

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वैश्विक बाजार केवल पारदर्शिता के माध्यम से कार्य कर सकते हैं , और मुक्त बाजारों को सीमित सरकार की आवश्यकता होती है। कम्यूनिस्ट चीन के पास इनमें से कुछ भी नहीं है। फिर भी इसे वैश्विक व्यापार में यह सोचकर बराबर का स्थान दिया गया कि संभवत: यह अपने तंत्र में सुधार कर लेगा। विश्व व्यापार में चीन के उदय और दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के साथ ही युध्द के बाद के उदारवादी स्व‍रूप को ध्वस्त कर दिया गया , और आज हम जिस अव्यवस्था के लिए योगदान दे रहे हैं , उसका अतीत उन्हीं खंडहरों में निहित है। इस समय भारत लद्दाख में चीनी व्यवहार के विकारयुक्त लक्षणों को प्रत्यक्ष झेल रहा है।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि चीनी कंपनियां विकट रूप से प्रतिस्पर्धात्मक हैं। उनकी सरकार ने बुनियादी ढांचे और तकनीक के उत्कृष्ट विकास के व्दारा इन कंपनियों को बढ़ावा भी दिया है। अगर चीन की सरकार और उनका व्यापार सिध्दान्तों के खिलाफ जाते हैं , तो विश्व व्यापार संगठन को चाहिए कि वह उन्हें रोके।

चीन के कारनामों में मुद्रा में हेरफेर , मानकों में गड़बड़ी , राष्ट्रीय फर्मों के लिए राज्य सब्सिडी की एक व्यापक प्रणाली , जबरन प्रौद्योगिकी की चोरी , साइबर जासूसी , विदेशी कंपनियों को प्रमुख निवेशों से इंकार करने पर विशिष्ट सामग्री के निर्यात को सीमित करना तथा राजनीतिक शक्ति के प्रसार के लिए व्यापार का सशस्त्रीकरण करना आदि शामिल हैं।

चीन के इस व्यापारिक दांवपेंच का शिकार भारत भी रहा है। अपारदर्शी चीनी अधिकारी कुछ भारतीय वस्तुओं और सेवाओं के आयात की अनुमति देते हैं। ये वस्तुएं और सेवाएं विश्व-स्तर पर बहुत प्रतिस्पर्धी हैं , और इस प्रकार भारत के साथ एक शोषणकारी औपनिवेशिक शैली वाले व्यापार संबंधों को बनाए रखता है।

पूरे विश्व में राजनीतिक उदारवाद आर्थिक उदारवाद का समर्थन करता है , जिसमें एक नियम आधारित वैश्विक व्यवस्था  को चलाने के लिए कानून के शासन को लागू किया जाता है। लेकिन चीनी व्यवस्था चीन के राजनीतिक उदारवाद की बहुत विरोधी है।

भारत में चीन की बहुत घुसपैठ है। राजनैतिक अखाड़े में वामपंथी और दक्षिणपंथी , दोनों ही ताकतें कहीं-न-कहीं चीनी मॉडल की प्रशंसक हैं। जबकि वास्तविक नियंत्रण रेखा पर हमारे जवान लगातार मारे जा रहे हैं। इससे स्पष्ट  होता है कि चीन धोखे और पाशविक बल की भाषा ही बोलना जानता है।

फिलहाल चीन , 1993 के बॉर्डर पीस एण्ड ट्रैंक्विलिटी समझौते से पीछे हट गया है। अब वह उन नक्शों का आदान-प्रदान कर रहा है , जिसमें वास्तविक नियंत्रण रेखा को अपने ढंग से दिखा सके। ऐसे अस्पष्ट दावों से वह भारत पर दबाव बनाए रखना चाहता है।

भारत के लिए प्रपंच या चीनी अव्यवस्था का साथ देना ठीक नहीं हो सकता। कानून आधारित प्रजातांत्रिक मूल्य ही विश्व को सही रास्ते चला सकते हैं।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित स्वागतो गांगुली के लेख पर आधारित। 19 जून , 2020