गणतंत्र के साथ विश्वासघात

Afeias
09 Jan 2020
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Date:09-01-20

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शाश्वत सत्य है कि धार्मिक उत्पीड़न हमेशा से रहा है और सभी धर्म इसके लिए दोषी हैं। भारतीय नागरिकता संशोधन विधेयक के संदर्भ में देखें, तो मोदी सरकार भी इस उत्पीड़न को पहचानकर उससे संबंधित कुछ ऐसा करने का प्रयत्न कर रही है, जो न केवल असंवैधानिक है, बल्कि खतरनाक भी है। यह राष्ट्रों के बीच भारत की सौहार्दपूर्ण छवि को नष्ट कर देगा।

नागरिकता की हमारी विचारधारा के मूल में साझा पहचान है। हमारे संविधान निर्माता और 1955 में नागरिकता अधिनियम लागू करने वाले, नागरिकता को एक एकीकृत विचार मानते थे। आज, नागरिकता का इस्तेमाल लोगों को विभाजित करने और कुछ धार्मिक आस्था के लोगों को हीन मानने के लिए किया जा रहा है। इस विधेयक के द्वारा हम ईसाईयों को तो साथ ले रहे हैं, परन्तु यहूदियों और मुसलमानों को छोड़ रहे हैं।

संविधान के अनुच्छेद 5 से 11 में नागरिकता के लिए योग्य लोगों के विभिन्न वर्गों का विवरण दिया गया है। अनुच्छेद 11 में संसद को नागरिकता को विनियमित करने का अधिकार दिया गया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि संसद 1955 जैसे सामान्य से कानून के जरिए संविधान के बुनियादी ढांचे के मूलभूत मूल्यों को ही नष्ट कर दे। नागरिकता के लिए धार्मिक आधार को निर्धारित करने से न केवल धर्मनिरपेक्षता बल्कि उदारता, समानता और न्याय को भी नकारा जा रहा है। रोचक तथ्य यह है कि न तो संविधान, और न ही नागरिकता विधेयक में ‘नागरिक’ की परिभाषा को परिभाषित किया गया है।

असम समझौते के चलते 1986 में नागरिकता कानून में संशोधन किया गया था। 2003 में गैर कानूनी प्रवासियों को रोकने के लिए भाजपा के प्रयास के कारण संशोधन किया गया। नागरिकता कानून के मूल स्वरूप में भारत में जन्में सभी लोगों को नागरिकता देने का प्रावधान था। 1986 के संशोधन में भारत में जन्मे बच्चे के माता-पिता में से एक का उसके जन्म के समय भारतीय नागरिक होना अनिवार्य कर दिया गया। 2003 के संशोधन में वाजपेयी सरकार ने कानून को अधिक कड़ा कर दिया। इसमें जन्म के समय माता-पिता दोनों को भारतीय नागरिक होना जरूरी था, या एक अभिभावक का भारतीय नागरिक होना जरूरी था, परन्तु दूसरा गैरकानूनी प्रावासी न हो, ऐसा प्रावधान किया गया।

असम राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर में असंख्य बांग्लादेशियों को गैरकानूनी प्रवासी बना दिया गया है। इसके लिए सरकार ने 1600 करोड़ रुपये व्यय किए हैं। इसके चलते पांच वर्षों से असम का जनजीवन अस्त-व्यस्त हो चला है। स्वयं भाजपा के ही असम नेता ने इस रजिस्टर को मानने से इंकार कर दिया है। यह भी देखने में आया है कि एन आर सी में बाहर किए गए लोगों में अधिकांश गैर-मुसलमान हैं। अतः नागरिकता संशोधन विधेयक अब भाजपा के लिए एनआरसी में हुई गलतियों को ढंकने का एक आवरण बन गया है। त्रुटिपूर्ण एन आर सी की तरह ही इसके भी अपेक्षित परिणाम प्राप्त नहीं होने वाले हैं। यहाँ रह रहे अनेकों गैर-मुस्लिमों के लिए यह चुनौती खड़ी हो गई है कि वे कानून के अनुसार अपने को पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से आया सिद्ध करें।

नागरिकता संशोधन विधेयक, भाजपा के पांच प्रमुख सिद्धाँतों के विरुद्ध है। (1) 2016 को हुए असम विधानसभा चुनावों में भाजपा का घोषणापत्र असम समझौते को पूर्ण रूप से मानने का ऐलान कर चुका है। (2) भाजपा ने शुरू से ही नागरिकता को 1971 से मान्य करने के बजाय 1948 के प्रवासियों को मान्यता देने की वकालत की है। नए कानून में यह तिथि 2014 कर दी गई है। (3) भले ही भाजपा गैर कानूनी प्रवासियों के लिए दुनिया भर के विशेण देती रहे, परन्तु 1946 विदेशी नागरिक विधेयक के अंतर्गत इन सभी प्रवासियों को नागरिक ही माना जाना चाहिए। (4) शरणार्थियों या अवैध प्रवासियों को भारतीय संसाधनों के लिए बोझ कहे जाने की दलील अब चल नहीं सकती। (5) बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के गैर-मुस्लिम शरणार्थियों को इस आधार पर शरण देने वाले कि इन देशों ने इस्लाम को राष्ट्र धर्म घोषित कर दिया है; यह बताएं कि क्या वे भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहते हैं?

संविधान का अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करने वाला यह विधेयक धर्म के आधार पर वर्गीकरण करने वाला है, जिसकी स्वीकृति नहीं दी जा सकती। चीन और म्यामांर में अभी भी धार्मिक उत्पीड़न किया जाता है। अफगानिस्तान के हजारा और पाकिस्तान के शियाओं के साथ भी बहुत अत्याचार किए जाते हैं। लेकिन भारत का संविधान इसकी अनुमति नहीं देता है। 1973 के एक मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि ‘‘समानता कई पहलुओं और आयामों के साथ एक गतिशील अवधारणा है, और इसे पारंपरिक और सैद्धांतिक सीमाओं में सीमित और बंद नहीं किया जा सकता।’’

 समर्थन करने वाले अगर यह सोच रहे हैं कि इससे अनेक मुसलमानों की नागरिकता छीन ली जाएगी, तो वे गलत हैं। इसकी सीमा केवल पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आए मुसलमानों तक ही है। इसके अलावा, एक बार दी गई नागरिकता निरस्त नहीं की जा सकती। अगर हम वाकई शरणार्थियों के लिए संवेदनशील हैं, तो भारत  को शरणार्थी समझौते पर हस्ताक्षर करने चाहिए, और गैरकानूनी प्रवासियों को नागरिकता के योग्य बनाना चाहिए।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित फैजान मुस्तफा के लेख पर आधारित। 11 दिसम्बर, 2019

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