देश की आपराधिक न्याय प्रणाली कटघरे में

Afeias
08 Jan 2020
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Date:08-01-20

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कुछ समय से भारतीय आपराधिक न्याय तंत्र लगातार न्याय की जगह शक्ति के विचार को अधिक प्रतिबिंबित कर रहा है। आपराधिक कानून को साधन के रूप में इसलिए रखा गया, ताकि नियत प्रक्रिया के माध्यम से हर आरोपी व्यक्ति को निष्पक्ष न्याय मिल सके। विंस्टन चर्चिल ने कहा है, ‘‘अपराध और अपराधियों के संबंध में जनता का व्यवहार और गुस्सा, किसी भी देश की सभ्यता के सबसे अनौपचारिक परीक्षणों में से एक है।’’ हम भारत के लोग, ‘‘नियंत्रण की संस्कृति’’ और ‘‘अपराध के माध्यम से शासन’’ करने की प्रवृत्ति का पालन करना जानते हैं। ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जब पुलिस ने जज का काम किया है, और इलैक्ट्रिॉनिक मीडिया ने न्यायालयों का।

पिछले दिनों बलात्कार के चार आरोपियों का नकली मुठभेड में मारा जाना, एक बार फिर से ‘हत्या के अधिकार’ पर बहस को जन्म देता है। यह हमारे देश की घृणित सच्चाई है। शुरुआत में इस प्रकार की घटनाओं की जनता और मीडिया में आलोचना की जाती थी। परन्तु इस नए भारत में हमने न्याय के इस क्रूर साधन का जश्न मनाना शुरू कर दिया है। संवैधानिक मूल्यों और एक तय प्रक्रिया को प्राथमिकता देने के बजाय, हम खून के प्यासे हो चुके हैं। इसका उदाहरण उन हत्यारे पुलिसवालों पर फूल बरसाए जाने के रूप में मिलता है। नौबत यहाँ तक आ पहुँची है कि उन्नाव बलात्कार पीड़िता के पिता ने हैदराबाद जैसा ही न्याय करने की गुहार की है। क्या हमारा देश कानून के शासन की जगह बंदूक के शासन की ओर जा रहा है?

बलात्कार के मामलों में होने वाला विलंब चिंता का विषय है। परन्तु हैदराबाद जैसे न्याय का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। सर्वोच्च न्यायाधीश ने भी अपने एक भाषण में इस त्वरित न्याय को अनुचित ठहराया है।

सही रास्ता तो यह है कि बलात्कार से जुड़े मामलों में वरिष्ठ न्यायाधीशों को नियुक्त किया जाए, फास्ट ट्रैक  न्यायालय बढ़ाए जाएं, कोई स्थगन न हो, रेप-कोर्ट को सीधे उच्च न्यायालय के नियंत्रण में रखा जाए, जिला न्यायाधीश को इसमें हस्तक्षेप करने का मौका न दिया जाए, और इसकी सुनवाई तीन महीनों में पूरी की जाए।

इस घटना में कोई बात अगर हमें सांत्वना दे सकती है, तो वह यह कि भारत ही अकेला देश नहीं है, जहाँ ऐसे एनकांउटर किए जाते हैं। संयुक्त राष्ट्र के एक वर्किंग ग्रुप ने ‘एनफोर्सड एण्ड इनवालन्टरी डिस्एपीअरेंस’ में पीड़ा अनुभव करते हुए लिखा है कि दोषी अफसरों को सामान्यतः दण्ड नहीं दिया जाता है। भारत भी 1989 के कुछ सिद्धांतों से बंधा हुआ है, जिसका सभी सरकारों को ध्यान रखना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने बाद में सिद्धांतों को मंजूरी दी। पुलिस और सुरक्षा बलों के बीच इन दिशानिर्देशों के प्रचार-प्रसार और मान्यता के लिए हमने पर्याप्त प्रयास नहीं किए हैं, जो किए जाने चाहिए।

अंतरराष्ट्रीय मानदंडों की जानकारी के अभाव में भारतीय पुलिस लगातार मानव अधिकारों का हनन करती जाती है। कुछ वर्षों पहले मणिपुर में इस प्रकार के लगभग 1500 मामलों को लेकर एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल एक्सीक्यूशन विक्टिम फैमिली एसोसिएशन ने उच्चतम न्यायालय से न्याय की गुहार की थी। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार समिति ने अपनी बहुत सी रिपोर्ट में ‘एनकांउटर को हत्या’ बताया है। ऐसी हत्या मानव के सबसे अमूल्य मौलिक अधिकार – जीने के अधिकार का हनन करती है। एनकांउटर तो आज हमारे फौजदारी न्याय तंत्र का सामान्य हिस्सा बन चुका है। इनको अंजाम देने वाले पुलिस अधिकारियों को ‘विशेषज्ञ’ की तरह प्रतिष्ठित भी किया जाता है।

हमारे न्याय तंत्र में किसी भी पुलिस अधिकारी को किसी आरोपी की हत्या करने का लाइसेंस महज इसलिए नहीं मिल जाता कि वह जघन्य अपराधी, बलात्कारी या आतंकवादी है। उच्चतम न्यायालय ने ऐसा करने वाले पुलिस अधिकारियों को लगातार चेताया है। ओमप्रकाश बनाम झारखंड राज्य के मामले में न्यायालय ने इस प्रकार की हत्याओं को रोकने के लिए कहा था। इसे ‘राज्य पोषित आतंकवाद‘ की संज्ञा तक दे डाली थी।

1980 के दशक में पंजाब और 1997-2007 तक आंध्रप्रदेश में इस प्रकार की हत्याएं बहुत की गई हैं। पंजाब के तत्कालीन पुलिस महानिदेशक के.पी.एस. गिल ने तो पुलिस के कार्य के तरीके पर प्रश्न उठाने वाले राज्यपाल तक का तबादला करवा दिया था। आंध्रप्रदेश में भी एनकांउटर में बड़ी संख्या में लोगों को मारा गया है।

एनकांउटर मृत्यु वाले मामलों में प्रथम सूचना रिपोर्ट को पंजीकृत किया जाना चाहिए। एक स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच की जानी चाहिए। राज्य की आत्म-रक्षा वाली याचिका को जाँच के दौरान नहीं, बल्कि सुनवाई के दौरान दायर करने का अधिकार हो।

उम्मीद की जा सकती है कि सर्वोच्च न्यायालय इस महत्वपूर्ण मामले पर पूर्ण संज्ञान लेते हुए आवश्यक कार्यवाही करेगा, जिससे भविष्य में किसी अपराधी को न्याय पाने का उचित अवसर न गंवाना पड़े।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित फैजान मुस्तफा के लेख पर आधारित। 10 दिसम्बर, 2019

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