कुपोषण का जिलेवार मूल्यांकन : एक सार्थक प्रयास

Afeias
10 Jan 2020
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Date:10-01-20

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विश्व स्तर पर पाँच वर्ष की उम्र से नीचे के लगभग 20 करोड़ बच्चे गंभीर रूप से कुपोषित हैं। भारत में भी स्थिति बहुत खराब है। हांलाकि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण बताता है कि स्थिति में सुधार हो रहा है, परन्तु अनेक अध्ययन बताते हैं कि सुधार की गति बहुत धीमी है। भारत के लिए अभी भी यह एक चुनौतीपूर्ण लड़ाई है।

  • केम्ब्रिज और हार्वर्ड विश्वविद्यालय की एक टीम ने कुपोषण के पाँच संकेत कों – बौनापन, कम वजन और रक्ताल्पता-पर आधारित कुपोषण की व्यापकता का जिलेवार आकलन किया। यह भी देखा गया कि किस प्रकार से धन की असमानता इस पर प्रभाव डालती है।

निष्कर्ष के तौर पर पाया गया कि मध्यप्रदेश, तेलंगाना, राजस्थान और गुजरात में कुपोषण के अन्य मानकों की अपेक्षा रक्ताल्पता की व्यापकता 54.6 प्रतिशत है।

  • इस टीम ने सभी जिलों का मूल्यांकन, धन की असमानता, कठिनाई, तीव्रता और समृद्धि पर भी किया।

निष्कर्ष में पाया गया कि गुजरात, झारखंड और बिहार के सभी जिलों में धन की असमानता का प्रभाव, बच्चों का वजन कम होने पर सबसे अधिक है; जबकि मिजोरम, नागालैण्ड और मणिपुर में सबसे कम।

टीम ने यह भी उजागर किया है कि कम वजन का सीधा संबंध बाल-मृत्यु दर से है। यह बच्चे के पोषण स्तर को प्रतिबिंबित करता है। अतः कम वजन को एक गंभीर चुनौती की तरह लिया जाना चाहिए। यह बच्चे में कुपोषण के स्तर को मापने का मुख्य संकेतक है।

  • बौनेपन और कम वजन की दृष्टि से, देश के उत्तरी और मध्य भागों में आने वाले उत्तरप्रदेश, बिहार और झारखंड राज्यों के जिलों में धन की कठिनाई और तीव्रता ही अधिक उत्तरदायी है।
  • टीम का मानना है कि यू तो सरकार के राष्ट्रीय पोषण मिशन से कुछ सीमा तक कुपोषण पर नियंत्रण पाया जा सका है, परन्तु कुपोषण में गिरावट की गति बहुत धीमी है। और जो प्रगति हुई भी है, वह सभी क्षेत्रों की अलग-अलग जनसंख्या में बराबर नहीं हुई है।

         यहाँ तक कि अच्छा प्रदर्शन करने वाले जिलों में भी यह असमानता बहुत तीव्र रही है।

अतः पूरे देश के लिए यह देखा जाना आवश्यक है कि कुपोषण की एकसमान व्यापकता प्रदर्शित करने वाले जिलों के लिए अलग तरीके से प्रयास किया जाए। एक ही जिले के निर्धन परिवारों पर प्रभावशाली और समान पहुँच की आवश्यकता हो सकती है। अतः नीति निर्माण के साथ-साथ जमीनी स्तर पर काम करने वाले अधिकारियों को हाथ इस दृष्टि से खोलने होंगे कि वे कार्यान्वयन में लचीलापन रख सकें। तभी हम इस कलंक को माथे से हटाने में सफल हो सकते हैं।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित अवस्थी पाचा के लेख पर आधारित। 29 दिसम्बर, 2019

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