क्या भारत के माइक्रो लघु एवं मझोले उद्योग कभी पनप पाएंगे ?
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देश में जितने भी माइक्रो, लघु एवं मझोले दर्जे के उद्योग हैं, उनको विकास करते हुए इस श्रेणी से ऊपर उठना चाहिए। अन्यथा उनको सहायता देने का उद्देश्य ही समाप्त हो जाएगा। लेकिन सच्चाई यह है कि इनमें से अधिकांश अपने उसी स्तर पर धक्के खाते चलते रहते हैं।यदि हम राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर नज़र डालें, तो लघु एवं मझोले उद्यमों का योगदान कम होता दिखाई दे रहा है। 2006 में निर्माण उद्योग में जहाँ इनका योगदान 42% था, वह 2013 में घटकर 37.3% रह गया है। यह गिरता ही जा रहा है। इस दौरान सकल घरेलू उत्पाद में भी इनका योगदान 7.7% से घटकर 7% रह गया है।
दूसरी ओर 2014-15 से 2015-16 तक लघु एवं मझोले उद्योगों की संख्या में 18.7% की वृद्धि हुई है। इनमें काम करने वालों की संख्या भी 8 करोड़ दस लाख से बढ़कर 11 करोड़ 7 लाख हो गई है। लेकिन इस श्रेणी में अपंजीकृत उद्योगों की संख्या बहुत अधिक है। औसत रूप में देखने पर हर एक उद्योग से तीन व्यक्तियों को रोज़गार मिलता है। लघु एवं मझोले उद्योगों के बजाय माइक्रो उद्योगों की संख्या तेजी से बढ़ी है। इन उद्योगों के बीमार या बंद होने की भी कोई सूचना नहीं है। कुल मिलाकर माइक्रो, लघु एवं मझोले उद्योगों की स्थिति जस-की-तस बनी हुई है।इन उद्योगों की स्थितियों में सुधार के लिए समय-समय पर विभिन्न समितियां बनाई गईं। परंतु परिणाम प्राप्त नहीं किए जा सके। सन् 2010 में इसके लिए प्रधानमंत्री टास्क फोर्स भी गठित किया गया था। लेकिन यह भी निरर्थक रहा। इस टास्क फोर्स ने ओवरड्रफ्ट के द्वारा इन उद्यमों को संचारित करने का एक रास्ता सुझाया था।
इन उद्योगों को तकनीकी दृष्टि से सक्षम बनाने के लिए एनएसआईसी, बीसीएसबी, एसआईडीबीआई जैसी कई संस्थाएं हैं। लेकिन इन एजेंसियों ने अभी तक कोई ठोस काम नहीं किया है। इसका कारण शायद इन पर दबाव का अभाव रहा या माइक्रो, लघु एवं मझोले उद्योगों को तकनीकी संपन्न बनाने में कोई लाभ दिखाई नहीं दिया।रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया ने ऋण गारंटी योजना के जरिए इन उद्योगों को ऊपर उठने के लिए प्रोत्साहित किया। उसने शर्त रखी कि जो उद्योग तीन वर्ष की अवधि में अपने स्तर को ऊँचा उठा लेगा, बैंक उन्हें ही ऋण देना जारी रखेगा।
हमारे देश में लघु एवं मझोले उद्योगों का अस्तित्व नही के बराबर है। हमारी अर्थव्यवस्था में इसके कुल योगदान का अधिकांश माइक्रो उद्योगों से मिलता है। इस क्षेत्र में अगर हम जर्मनी के उद्योगों पर नज़र डालें, तो पाते हैं कि वहाँ उद्योगों के कुल 57% योगदान में से 35% लघु एवं मझोले उद्योगों द्वारा दिया जाता है। यूरोप के अन्य देशों में भी लगभग यही स्थिति है। इसका कारण वहाँ के उद्योगों की तकनीकी क्षमता है, जो भारत के लघु एवं मझोले उद्योगों के पास नहीं है।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया‘ में प्रकाशित दीपांकर गुप्ता के लेख पर आधारित।