विश्व का बदलता परिदृश्य ,भारत को क्या करने की जरुरत है।(भाग-2)

Afeias
23 Feb 2017
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Date:23-02-17

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  • भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने 104 उपग्रहों को एकसाथ पृथ्वी की कक्षा में स्थापित करके कीर्तिमान रच दिया है। इन उपग्रहों में 96 अमेरिका के थे। बाकी अन्य कुछ देशों के थे। इसरो के इस मितव्ययी और विश्वसनीय प्रयास ने अंतरिक्ष जगत में भारत की धाक जमा दी है। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह भारत के वैज्ञानिक कौशल का अद्भुत नमूना है। लेकिन भारत की तकनीकी विशेषताएं अन्य क्षेत्रों में दिखाई क्यों नहीं दे रही हैं ?
  • उपभोक्ता सामग्री से लेकर रक्षा संसाधनों तक हमारी खोज एवं अनुसंधान की प्रवृत्ति नगण्य सी है। यहाँ तक कि आई.टी. के क्षेत्र में भी हम विदेशी कंपनियों को सेवाएं ही दे रहे हैं। इसके बदले हम खुद इससे संबंधित उपकरण क्यों नहीं बना सकते ? हमारे जैसे देश के लिए; जो विश्व में ज्ञान और तकनीक का केंद्र बनना चाहता है, यह रवैया दुखदायी है।
  • यह सच है कि चीन विश्व का निर्माण केंद्र है। लेकिन भारत भी इस दिशा में आगे बढ़ रहा है। और यह कहना कि भारत का निर्माण उद्योग रूग्ण अवस्था में है, सही नहीं होगा। अभी भी डिजाइन, तकनीक, नवोन्मेष और वैज्ञानिक पेटेंट के क्षेत्र में हम चीन से बहुत पीछे हैं। इसके लिये हमारी नौकरशाही की लालफीताशाही काफी हद तक दोषी है, जो नई प्रतिभाओं और खोजों को सामने नहीं आने देती। हमारे निजी क्षेत्र की कार्य प्रणाली सार्वजनिक क्षेत्र की तुलना में निःसंदेह बेहतर है।
  • लेकिन निजी क्षेत्र भी शोध एवं अनुसंधान के क्षेत्र में निवेश करने में आगे नहीं आता। आई आई टी जैसे हमारे प्रमुख तकनीकी संस्थान; जिन्हें नवीनतम खोजों के लिए माना जाना चाहिए, वे मात्र आई आई टी स्नातकों के लिए जाने जाते हैं। भारतीय शिक्षा संस्थानों का नियमन और संचालन ऐसे भारी भरकम हाथों में है, जो सृजनात्मकता और नवोन्मेष का गला घोंटने के लिए हरदम तैयार रहते हैं।
  • जहाँ तक अमेरिका का सवाल है, वह विज्ञान, तकनीक, इंजीनियरिंग और गणित में भारत जितने स्नातक तैयार नहीं करता। यही कारण है कि बौद्धिक प्रतिभा के लिए उसे भारत पर निर्भर रहना पड़ा है। डोनाल्ड ट्रंप ने अब जिस प्रकार ‘अमेरिका को अमरीकियों के लिए‘ का नारा लगाया है, और विदेशियों की जगह अमरीकियों को रोज़गार देने की वकालत की है, वह भले ही उदारीकरण के विरूद्ध है, लेकिन अगर हम इसे भारत के परिपेक्ष्य में देखें, तो एक सवाल सहज ही हर भारतीय नागरिक के मन में उठता है कि हमारी प्रतिभाएं सफलता के लिए अमेरीकी तकनीकी संस्थानों की मोहताज क्यों हैं ?
  • अगर हमारे पास प्रतिभाएं हैं, तो हम उनका लाभ अमेरिका को देने की बजाय भारत के हित में क्यों न उठाएं ? इस संदर्भ में इसरो एक अपवाद मात्र है। हमें ऐसे कई अन्य संस्थानों की आवश्यकता है। दूसरी तरह से सोचें तो लगता है कि ट्रंप के रूप में शायद भारत के लिए एक अवसर आया है, जो भारत को अपनी प्राचीन सभ्यता से प्रेरित होकर अपनी जड़ों की ओर लौटने पर मजबूर करे। और हम अपनी प्रतिभाओं और क्षमताओं से दूसरों की जरूरतों को पूरा करने के बजाय स्वयं नई खोजें और निर्माण प्रारंभ करें।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया‘ के संपादकीय से।


 

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