कैसी असमानता?

Afeias
14 Nov 2017
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Date:14-11-17

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  • बहुत से अर्थशास्त्री ऐसा समझते हैं कि भारत में असमानता में तेजी से वृद्धि हुई है। असमानता के अध्ययन के गुरू माने जाने वाले थॉमस पिकेटी और ल्यूकस शैंसल ने हाल में एक पत्र प्रकाशित किया है। इसे उन्होंने ‘इंडियन इन्कम इक्वालिटी 1922-2014 % फ्रॉम ब्रिटिश राज टू बिलियनियर राज?’ नाम दिया है। इन्होंने आयकर के मिश्रित डाटा का अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला है कि 2014 में आय पर जीवन यापन करने वाले 1 प्रतिशत लोग देश की आय में 22 प्रतिशत का योगदान देते हैं। 1922 में आयकर की शुरूआत के साथ ही वह अब तक का सबसे बड़ा आँकड़ा है।
  • पिकेटी और शैंसल ने यह भी अनुभव किया कि सकल घरेलू उत्पाद में दिए गए उपभोग के आँकड़ों का मात्र 40 प्रतिशत उपभोग ही एन एस एस ओ के सर्वे में दिखाई देता है। उनका यह भी मानना है कि कर के भय से अमीर वर्ग अपने उपभोग के बारे में झूठ बोलता है। जबकि गरीब वर्ग को ऐसा कोई भय नहीं होता।
  • पिकेटी का यह तथ्य सरासर गलत लगता है कि सिर्फ अमीर वर्ग ही अपनी वास्तविक आर्थिक स्थिति के बारे में झूठ बोलता है। ऐसे अनेक प्रमाण हैं, जब गरीब वर्ग भी अतिरिक्त सुविधाएं पाने के लालच में अपनी वास्तविक आर्थिक स्थिति को छिपाते हुए अपने आपको साधनहीन दिखाने का प्रयत्न करते हैं।केन्द्र सरकार ने गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों के लिए सस्ता अनाज, केरोसीन, इंदिरा आवास योजना, अंत्योदय योजना आदि चला रखी हैं। इसका लाभ लेने को ग्रामीण व अन्य गरीब अपनी वास्तविक आर्थिक स्थिति को छुपाते हैं और झूठ बोलते हैं।
  • हाल के दशकों में कर की निम्न दरों के कारण अमीर वर्ग को अपनी आय छुपाने में कोई विशेष लाभ नहीं दिखाई देता। जबकि गरीब के साथ उल्टा हो रहा है। इसे देखते हुए पिकेटी की आर्थिक असमानता बढ़ने की बात गलत लगती है।उनका मानना है कि नेहरू-इंदिरा के समाजवाद के दौरान जिनकी आय कम थी,, वह 1991 में उदारीकरण के बाद एकदम से बढ़ी है। सच्चाई यह है कि 1947 से 1977 के दौरान गरीबी के अनुपात में कोई कमी दर्ज नहीं की गई। जबकि इस बीच जनसंख्या लगभग दोगुनी हो गई। इसका अर्थ है कि गरीबों की संख्या भी दोगुनी हुई। पिकेटी ने समाजवाद के इस ‘गरीबी हटाओ’ के पीछे छिपी वास्तविकता को नजरअंदाज ही कर दिया।
  • इसके उलट उदारवाद में 2004 से 2011 के बीच तेरह करोड़ 48 लाख लोग गरीबी रेखा से ऊपर आ गए। इसका अर्थ यह हुआ कि असमतावादी माना जाने वाला उदारवाद, समतावादी माने जाने वाले समाजवाद से बेहतर सिद्ध हुआ। उदुारवाद ने ऐसे अवसर पैदा किए जो समानता के नारे से कहीं अधिक श्रेष्ठ थे। सभी ग्रामीण क्षेत्रों में असमानता बहुत कम थी, फिर भी प्रवास हुआ और वह गाँवों से शहरों की ओर ही हुआ। लोगों ने समानता की तुलना में अवसर प्राप्त करने को प्राथमिकता दी। बिहार एवं असम में सबसे अधिक समानता की बात कही जाती है। परन्तु वहाँ समतावादी समाज की स्थापना के नाम पर एक ठहराव आ गया है। लाखों की संख्या में बिहार के लोग अन्य राज्यों की तरफ जा रहे हैं। उदारवाद से मिले नए अवसरों ने 3000 दलितों को करोड़पति बना दिया है। इस प्रकार की असमानता की आलोचना नहीं की जाना चाहिए। बल्कि इसका उत्सव मनाना चाहिए।
  • पिकेटी ने अवसर की असमानता को नहीं समझा। यही भारत का दुर्भाग्य है। कौशलवान लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। अब भारत को अच्छे स्कूल, स्वास्थ्य केन्द्र, ब्रॉडबैण्ड एवं बुनियादी ढांचों की जरूरत है। यह आवश्यकता हर ग्राम की है। हमें सच्चे, ईमानदार, कुशल एवं जिम्मेदार अधिकारियों की आवश्यकता है। अगर ऐसा हो जाता है, तो अवसर की असमानता बहुत जल्द दूर हो जाएगी। समाजवादी युग की तरह अमीरों का शोषण करने से समानता प्राप्त नहीं हो सकती।

‘टाइम्स ऑफ  इंडिया’ में प्रकाशित स्वामीनाथन अंकलेश्वर अय्यर के लेख पर आधारित।

 

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