प्रेम के मंदिर के लिए

Afeias
15 Nov 2017
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Date:15-11-17

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मैं ग्यारह वर्ष का था, जब मैंने तुम्हारी कहानी सुनी थी। कहानी, उस ताज की, जिसे एक शाहजहाँ ने यमुना नदी के तट पर सफेद संगमरमर से अपने जीवन के प्रेम को व्यक्त करने के लिए स्मारक का रूप दिया था। प्रेम को समझने के लिए मैं उस समय छोटा था, परन्तु आज मैं बड़ा हो गया हूँ और तुम भी मात्र एक कथा नहीं रह गए हो। अब मैं एक आस्तिक हूँ, और तुम एक आस्था हो-प्रेमियों के लिए, स्वप्न में विचरने वालों के लिए, आस्थावानों के लिए इस विश्व के लिए, और उससे भी परे किसी संसार के लिए तुम सिर्फ आस्था के प्रतीक हो।

मुझे गलत मत समझो! तुम मात्र एक आस्था हो, कोई धर्म नहीं। तुम कभी धर्म रहे भी नहीं हो, न ही शरीर से और न ही आत्मा से। तुम मुस्लिम नहीं हो। वैसे ही जैसे गालिब, मन्टो और नुसरत की रचनाएं मुस्लिम नहीं हैं। तुम अब किसी मुगल बादशाह की धरोहर नहीं हो। तुम तो प्रेम में सराबोर नर-नारी का कुल हो। तुम तो परस्पर और एकतरफा कहे और अनकहे क्लांत और अक्षय प्रेम के प्रतीक हो; बिल्कुल उसी प्रकार, जिस प्रकार गालिब की शायरी, मंटो के गद्य और नुसरत का आलाप मुस्लिम नहीं है।

कुछ समय से तुम्हें बेवजह राजनीति में घसीटा जा रहा है। लेकिन क्या करें, राजनेताओं की फितरत में प्यार नहीं है। कविता करना उनका गुण नहीं है। काव्य से संबंध तो उनके और उनक वोट बैंक के लिए प्राणघातक हो सकता है।

एक सत्ता के नशे में चूर मुस्लिक शासक की तड़प को तुम्हारे समरूप एक भव्य स्वरूप में अभिव्यक्त करने के लिए हजारों हिन्दू श्रमिकों की कुर्बानी की राजनीति प्रेरित बात बिल्कुल बेहूदा लगती है। दरअसल, माया सभ्यता से लेकर रोम साम्राज्य तक, यूरोप के चर्च से लेकर मध्य-पूर्व की मीनारों तक, कोणार्क के सूर्य मंदिर से लेकर खजुराहो की मूर्तियों तक की वास्तुकला का इतिहास अत्यंत प्राचीन है। इस दौरान अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के कोई कानून नहीं बने हुए थे। एक धड़कता हुआ हृदय, अमरत्व के लिए किसी मानवाधिकार के प्रवक्ता की आवश्यकता को नहीं जानता। क्या मैंने आपको यह बताने की कोशिश की कि स़त्रहवीं शताब्दी के भारत में अनेक हिन्दू राजाओं ने अपने सुंदर मंदिरों के निर्माण के लिए दलितों एवं बहुजनों पर कितने अत्याचार किए? इस समय इसे बताने की जरूरत भी नहीं है।

उस समय एक शंहशाह को अपनी प्रिय पत्नी को अमर बनाने के लिए उन श्रमिकों की आवश्यकता थी। उसके प्रेम ने उसे जरूरतमंद बना दिया था। इंसानी हृदय के लिए प्रेम ऐसा ही होता है। न इससे कम न इससे ज्यादा।

वर्तमान में यमुना नदी जीवन से ज्यादा मृत जैसी है, और प्रेम एक तड़प और काव्य-सृजन से ज्यादा व्हाट्सएप का गुडमॉर्निंग मैसेज है। नदी को तो हमने मूर्खतापूर्ण बना कर शहरी योजना की भेंट चढ़ा दिया है और प्रेम को उन हृदयहीन नर-नारियों के सुपुर्द कर दिया है, जो मात्र दिखावे के चुंबनों और निष्ठा को प्रेम का जामा पहनाकर रखते हैं।

हे ताज! तुम वह हो, जो एक कुपोषित कृषक, दफ्तर जाते कर्मचारियों और शक्ति को चूमने वाले नौकरशाहों के माथे की झुर्रियों को एक किनारे कर देता है। तुम वह आकाश हो, जो उसके गृहविहीन बादलों और चन्द्र को एक अर्थ देते हो। तुम हमेशा ही उस प्रौढ़ आदमी की सुबह अज़ान हो, जो अपने एकतरफा प्यार को याद करके आज भी खुश होता है। तुम उस नवविवाहिता का संध्यावंदन हो, जो ऑफिस  से लौटे अपने पति की कमीज़ से किसी अनजाने परफ्यूम की महक को सूंघ लेती है। तुम उस युवा की आहें हो, जो रविवार को चर्च की प्रार्थना में अपने पहले प्यार से कुछ ही फासले पर खड़ा है।

इतना सब होते हुए भी तुम कोई संगठित धर्म नहीं हो। करोड़ों प्रेमियों की नजरों में तुम कभी भी मुसलमान नहीं हो सकते। लोग तुम्हारे पास अपने देवी-देवताओं के कारण नहीं, बल्कि प्रेम के कारण आते हैं और तब तक आते रहेंगे, जब तक केवल और केवल प्रेम तुम्हारा एकमात्र धर्म रहेगा।

‘द इंडियन एक्सप्रेम’ में प्रकाशित बसंत रथ के लेख पर आधारित।

 

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