भारत की समस्या आर्थिक असमानता नहीं, गरीबी है

Afeias
11 Mar 2019
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Date:11-03-19

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स्टीवन पिंकर ने अपनी पुस्तक ‘एलाइटेनमेन्ट नाउ’ में बोरिस और आइगर नामक दो किसानों के रशियन चुटकुले का उल्लेख किया है। ये दोनों ही किसान गरीब हैं। बोरिस के पास एक बकरी है। आइगर के पास नहीं है। एक दिन एक परी आइगर से कोई वरदान मांगने के लिए कहती है। आइगर कहता है कि ऐसा कुछ करो जिससे बोरिस की बकरी मर जाए।

चुटकुला तो यहीं खत्म हो जाता है, और हमें मानव स्वभाव एवं अर्थशास्त्र के बारे में बहुत कुछ बता जाता है। इस चुटकुले में तीन बातों पर ध्यान दीजिए। अगर परी आइगर की इच्छा पूरी कर देती है, तो (1) बोरिस गरीब हो जाएगा। (2) आइगर भी गरीब ही रहेगा। (3) असमानता घट जाएगी। क्या इन तीनों में से कोई भी परिणाम सार्थक कहा जा सकता है ?

भारत में आर्थिक असमानता का डंका पीटने वाले बुद्धिजीवी और लेखक इस प्रकार से क्यों नहीं सोचते ? गरीबी और असमानता दो अलग-अलग बातें हैं, और भारत की समस्या गरीबी है। इन दोनों का आपस में कोई मेल नहीं है।

यहाँ एक प्रश्न पूछा जा सकता है कि आप बांग्लादेश या अमेरिका में से किस देश में गरीब कह लाएंगे ? इसका स्पष्ट उत्तर होगा, अमेरिका में, क्योंकि अमेरिका के गरीब भी बांग्लादेश के गरीबों की तुलना में बहुत अच्छी स्थिति में हैं। इसके बाद भी बांग्लादेश में गरीबी अधिक है, जबकि अमेरिका में असमानता अधिक है।

असमानता को मापने वाले जिनी इंडेक्स को देखें, तो पता चलता है कि हांगकांग, सिंगापुर और यूनाइटेड किंग्डम जैसे देशों में बांग्लादेश की अपेक्षा असमानता अधिक है। फिर भी लोग इन देशों में जाकर बसने को इच्छुक हैं, क्यों?

पूरा मानव इतिहास ग्रामों से शहरों की ओर पलायन से भरा पड़ा है, जबकि शहरों में असमानता अधिक होती है।

अगर गरीबी और आर्थिक असमानता दो भिन्न पक्ष हैं, तो हम इनका घालमेल क्यों कर देते हैं। किसी की जीत के लिए, किसी को तो हारना ही पड़ेगा। अगर धनी वर्ग अमीर होता जा रहा है, तो गरीब भी गरीब होता जाएगा। गरीबी होना ही असमानता का प्रमाण है।

विश्व में इस प्रकार से काम नहीं होता। यहाँ पाई का मूल्य निश्चित नहीं है। यहाँ आर्थिक वृद्धि एक सकारात्मक जोड़ का खेल है और पाई के विस्तार की ओर जाता है, जिसमें हर कोई लाभान्वित होता है। दूसरे शब्दों में, इस प्रकार की वृद्धि में धनी वर्ग और अमीर होता जाता है, तो दूसरी ओर निर्धन भी गरीबी रेखा से बाहर निकलने लगता है। इस प्रकार, किसी भी प्रगतिशील अर्थव्यवस्था में, गरीबी कम होने के साथ ही असमानता का बढ़ना स्वाभाविक है। भारत में भी 1991 के बाद से उदारवादी अर्थव्यवस्था के साथ यही होता आया है।

जो लोग भारत में आर्थिक असमानता की बात करते हैं, वे गलत शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं, और वास्तव में तो वे गरीबी को लेकर चिंतित हैं। एक कमरे में किसी करोड़पति को एक अरबपति के साथ बैठा दिया जाए, तो कोई भी उस कमरे में असमानता की बात नहीं करेगा। लेकिन वहीं एक भूखे भिखारी को बैठा देने पर स्थिति आपत्तिजनक हो जाती है। इसका सीधा-सा अर्थ है कि गरीबी एक समस्या है, असमानता नहीं।

गरीबी और असमानता दो अलग-अलग घटनाएं हैं, और दोनों के समाधान भी अलग-अलग हैं। असमानता दूर करने के लिए सबको समान रूप से गरीब बनाया जा सकता है। या फिर अमीरों से धन लेकर गरीबों में बांटकर भी सबको समान बनाया जा सकता है, मानो पाई को निश्चित कर दिया गया हो। इसमें एक समस्या सामने आती है। इस प्रकार का पुनर्वितरण तभी संभव होता है, जब पाई बढ़े। हमारे जैसे देश में केवल विकास ही गरीबी की समस्या को हल कर सकता है।

एक अनुमान के अनुसार, सकल घरेलू उत्पाद में केवल 1 प्रतिशत की वृद्धि होने पर लगभग 2 करोड़ लोग गरीबी से बाहर आ जाते हैं। जब करोड़ों देशवासियों के पास रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूलभूत सुविधाएं नहीं हैं, तो हमारा नैतिक कर्तव्य है कि हम उनकी मदद करें। देश की गरीबी को कम करने के लिए मुक्त बाजार, निवेश को प्रोत्साहन, रोजगार बढ़ाना तथा सरकारी नियंत्रण को कम करना जैसे कुछ नीतिगत परिवर्तनों की भी जरूरत है। इससे असमानता भी बढ़ेगी, लेकिन लोग गरीबी से भी ऊपर उठेंगे। यही महत्व भी रखता है। दार्शनिक हैरी फ्रैंकफर्ट ने असमानता पर लिखी अपनी पुस्तक में “पर्याप्तता के सिद्धांत“ में यही बताया है।

धनी देशों में रहने वाले लोगों को पश्चिम के फैशन और असमानता के बारे में बात करना शोभा देता है। भारत जैसे देश के पास यह सुविधा नहीं है।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित अमित वर्मा के लेख पर आधारित। 17 फरवरी, 2019

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