चीन के आकार जैसी ही समस्या-आतंकवाद

Afeias
08 Mar 2019
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Date:08-03-19

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हाल ही में हुए पुलवामा हमले ने न केवल भारतीय सुरक्षा घेरे ने सेंध लगा दी है, बल्कि भारत-चीन संबंधों, खासतौर पर वुहान में हुई बातचीत की विफलता का संदेश भी दिया है। जैसा कि इस हमले की जिम्मेदारी जैश-ए-मुहम्मद ने ले ली है, इस संगठन के नेता मसूद अजहर को एक अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित कराने में भारत के प्रयासों को चीन अपने वीटो से लगातार नाकाम करता रहा है।

विश्व युद्धों के बाद के काल में भारत को चीन और पाकिस्तान से लगातार खतरों का सामना करना पड़ा है। चीन द्वारा तिब्बत और पाकिस्तान द्वारा जम्मू-कश्मीर के भाग हथिया लेने के बाद से ही भारत का समस्त उत्तर, पूर्वोत्तर एवं उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र चीन और पाकिस्तान के निशाने पर आ गया है।

नेहरू के समय में भारत ने 1954 में चीन के साथ एक समझौता करके अपनी सीमाओं को सुरक्षित कर लिया था। परंतु ब्रिटिश काल से तिब्बत में मिले अधिकारों को खो दिया। इसके बाद भी 1962 का भारत-चीन युद्ध हुआ।

पाकिस्तान के मामले में 1947-48 के दौरान भारत ने कश्मीर की 33,000 वर्ग कि.मी. भूमि गंवा दी। इसके बाद 1963 में पाकिस्तान ने पाक अधिकृत कश्मीर का लगभग 5,000 वर्ग कि.मी. का क्षेत्र चीन को भेंट कर दिया। इससे प्रसन्न होकर चीन ने पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर पर पाकिस्तान की वैधता की तरफदारी शुरू कर दी। साथ ही पाकिस्तान-चीन संबंधों में एक नया सोपान शुरू हो गया। इन्हीं संबंधों के कारण आज पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद की तलवार भारत पर लटकी हुई है।

चीन के बढ़ते कदम

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में भारत ने जब भी पाकिस्तान को आतंकवाद के पनाहगार देश के रूप में रेखांकित करना चाहा, चीन ने इसे रोक दिया।

चीन ने अजहर मसूद को अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित करने के भारत के प्रयासों को बार-बार विफल किया।

जम्मू-कश्मीर के नागरिकों को स्टेपल वीजा जारी करके चीन ने भारत की संप्रभुता पर हमला करने के साथ ही कश्मीर पर पाकिस्तान के दावे को एक तरह से वैध करार दे दिया।

पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में चीन द्वारा बनाए गए आर्थिक गलियारे ने एक बार फिर से भारत की संप्रभुता पर हमला किया है। साथ ही हिंद महासागर में भारतीय नौसेना के प्रभुत्व को भी चुनौती दी है। इसके माध्यम से चीन ने विश्व के प्रमुख तेल उत्पादन केन्द्र, होर्मुज जल डमरुमध्य पर अपना दावा सिद्ध करने का भी प्रयत्न किया है। आर्थिक गलियारे के द्वारा हिन्द महासागर में चीन अपनी किलेबन्दी कर सकेगा, जबकि यह क्षेत्र की सुरक्षा के लिए खतरा सिद्ध हो सकता है। ग्वादर में चीनी नौसैनिक अड्डे ने भारत के लिए खतरे को बहुत बढ़ा दिया है।

अतः पाकिस्तान-चीन के दोस्ती के इस रिश्ते पर दबाव बनाए बिना आतंकवाद के मुद्दे से निपटना कठिन है। वैसे तो चीन अपने ही एक प्रांत में उइगर मुसलमानों द्वारा फैलाए गए आतंवाद से पीड़ित है, परंतु उसने इनसे निपटने के लिए संस्थागत एवं द्विपक्षीय दोनों तरह के हथियार का इस्तेमाल किया है। एक ओर तो उसने शंघाई कार्पोरेशन को आतंकवाद से निपटने की जिम्मेदारी दी है, तो दूसरी ओर पाकिस्तान को। इसके अलावा चीन ने पूर्वी तुर्कीस्तान इस्लामिक मूवमेंट को अमेरिकी सहयोग से आतंकवादी समूह घोषित करने में सफलता प्राप्त कर ली है। दुर्भाग्यवश चीन भारत के आतंक विरोधी कदमों को सहयोग नहीं देता।

बुहान सम्मेलन और भारत-चीन समझौता

डोकलाम के तनाव के बाद बुहान में हुए भारत-चीन समझौते के दसवें बिन्दु में स्पष्ट तौर पर लिखा गया है कि दोनों देश आतंकवादी गतिविधियों का विरोध करने में एक-दूसरे को सहयोग देंगे।

लेकिन आतंकवाद पर सहयोग का मतलब कश्मीर को बीच में आना ही है। साथ ही चीन को भेंट स्वरूप दी गई भूमि, पाक अधिकृत कश्मीर में आर्थिक गलियारे का निर्माण आदि मामलों का ऊजागर होना भी स्पष्ट है। अतः चीन इनसे बचने की पूरी कोशिश करता है।

इसके अलावा भारत-चीन सीमा विवाद में अगर तिब्बत का मामला सुलझ भी जाता है, तब भी भारत को इस सीमा पर चीन से खतरा बना ही रहेगा। यह सब देखते हुए स्पष्ट होता है कि चीन, पाकिस्तान को भारत के विरूद्ध तुरूप के पत्ते की तरह इस्तेमाल में लाता रहा है और लाता रहेगा। इससे उसे हिन्द महासागर में अपना प्रभुत्व बनाने में भी मदद मिलती रहेगी।

कुल-मिलाकर भारत को आतंकवाद से निजात तभी मिल सकती है, जब उसे अपनी चीन नीति में सफलता मिले। चीन के साथ पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के मुद्दे को सामने लाए बिना, बुहान की भावना में रेखांकित किए गए भारत-चीन संबंध एक कूटनीतिक मोहरा ही बने रहेंगे।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित अवति भट्टाचार्य के लेख पर आधारित। 19 फरवरी, 2019

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