किसानों की बेड़ियों को खोल दें

Afeias
29 Jun 2018
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Date:29-06-18

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देश में किसानों के असंतोष की बात हम बहुत समय से करते आ रहे हैं। पास आते लोकसभा चुनावों ने सरकार को संशय में डाल दिया है, और उसे डर है कि कहीं किसानों का असंतोष चुनाव हारने का कारण न बन जाए। यही कारण है कि सरकार लगातार इस दिशा में ऐसे कई प्रयास कर रही है, जो किसानों को कुछ राहत दे सकें परन्तु सरकार द्वारा किए जाने वाले इन प्रयासों की वास्तविकता को जांचा जाना चाहिए।

(1) हाल ही में सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य सभी फसलों पर लागत का 50 प्रतिशत अधिक देने की घोषणा की है। सच्चाई यह है कि गेहूँ, काले और लाल चने, सरसों, अरहर, रागी आदि पर ऐसी नीति पहले से ही चल रही है।

इस नीति का प्रभाव वहीं खत्म हो जाता है, जब सरकार अनाज के गिरते मूल्यों पर नियंत्रण नहीं रख पाती। दूसरे, ऐसा करने से कृषि निर्यात एवं पारिस्थितिकीय पर विपरीत प्रभाव पड़ने की संभावना रहती है।

(2) सरकार ने 23 फसलों के लिए न्यूनतम मूल्य की घोषणा की है। गेहूँ, धान और गन्ने जैसी फसलों पर तो यह प्रभावशील है, परन्तु बाकी फसलों के लिए यह दिखावा मात्र रह जाता है।

  • सुनिश्चित खरीद के बगैर समर्थन मूल्य प्रभावशाली नहीं रह जाता। जहाँ खरीद की निश्चितता होती है, वहाँ भी अनेक चुनौतियां मुंह बाए खड़ी रहती हैं। (1) केवल कुछ ही राज्यों; जैसे हरियाणा, मध्यप्रदेश, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पंजाब के पास ही खरीद के लिए एक ठोस बुनियादी ढांचा है। (2) खरीद में गड़बड़ी और बर्बादी से पूरी प्रक्रिया की लागत बढ़ जाती है। (3) लगभग 3/4 कृषक बाजार में बेचने के लिए अन्न का उत्पादन नहीं करते। अतः उन्हें समर्थन मूल्य का कोई लाभ नहीं मिलता। (4) गन्ने की खरीद अधिकतर निजी मिलों द्वारा की जाती है। केन्द्र एवं राज्य सरकारों द्वारा इनके मूल्य बढ़ाए जाने से मिलों की माली हालत खराब हो रही है। इस प्रकार से उन्हें गन्ने की कीमतों में बढ़ोत्तरी करने के लिए बकाया पैकेज मांगने के लिए मजबूर किया जाता है।
  • भारत के समर्थन मूल्य कार्यक्रम ने उन उत्पादों को बढ़ावा दिया है, जो अधिक पानी लेती हैं। धान और गन्ना ही यहाँ की प्रमुख फसल है। पूरी कृषि का लगभग 60 प्रतिशत जल ये दो फसलें ले लेती हैं। महाराष्ट्र में तो स्थिति और भी खराब है। लगभग 18 प्रतिशत सिंचित भूमि में भी सरकार गन्ने की खेती को ही बढा़वा दे रही है। यह 71 प्रतिशत जल अवशोषित कर लेती हैं।
  • कुछ लोगों का मानना है कि मध्यप्रदेश में सोयाबीन और हरियाणा में बागवानी उत्पाद पर चलायी जा रही मूलयों में कमी के भुगतान (पी डी पी) की योजना काम कर सकती है। इसके अंतर्गत फसल के बाजार मूल्य और उसके न्यूनतम मूल्य के बीच के अंतर को सरकार, सीधे किसानों के खाते में जमा कर देती है।

 गिरते मूल्यों को नियंत्रित करने के लिए दोनों ही राज्यों को इस योजना को बंद करना पड़ा।

  • लागत-प्लस मूल्य निर्धारण फार्मूला के आधार पर समर्थन मूल्य, मांग की अनदेखी करता है। यह केवल आपूर्ति को समर्थन देता है, जिससे आपूर्ति अधिक हो जाती है। इससे भी मूल्यों में गिरावट आ जाती है। परिणामतः सब्सिड़ी बिल बढ़ता है।

गेहूं और चावल के संदर्भ में यही देखने को मिलता है। पहले तो सरकार उसके उत्पादन को बढ़ावा देती है। फिर मूल्यों को गिरने से रोकने के लिए कुछ उत्पाद का लगभग एक-तिहाई खरीद लेती है।

  • न्यूनतम समर्थन मूल्य को बढ़ाने से भारतीय कृषि उत्पाद वैश्विक बाजार में तब नहीं टिक पाते, जब बाजार में इनका मूल्य कम हो। एक बार फिर घरेलू बाजार में इनकी कीमतों को नियंत्रण में रखने के लिए सरकार को आयात शुल्क बढ़ाना पड़ता है, और निर्यात में सब्सिडी देनी पड़ती है। इससे भी बुरी स्थिति तब आती है, जब ऋण माफी की बार-बार मांग की जाने लगती है।

इस बात को स्वीकार किया जाना चाहिए कि कृषि बाजार सुधारों या इनपुट सब्सिडी की तर्कसंगतता का कोई शॉर्टकट नहीं है। सरकार को अपनी व्यापार नीति में उपभोक्ता समर्थक पूर्वाग्रह से भी बचना चाहिए, जो घरेलू मूल्यों में वृद्धि के दौरान निर्यात पर प्रतिबंध लगाकर किसानों को दंडित करती है, और मूल्यों के संभलने पर आयात शुल्क बढ़ाने में संकोच दिखाकर भी किसानों को ही दंडित करती है।

कृषि संकट से ऊबरने का सबसे अच्छा उपाय, सिंचाई तंत्र और फसल कटाई के बाद की प्रक्रिया में निवेश करना है। इससे होने वाली 20 प्रतिशत अन्न की बर्बादी को रोका जा सकेगा। साथ ही तेलंगाना से सीखकर, एक पारदर्शी और लागू करने में आसान आय समर्थन कार्यक्रम चलाया जाना चाहिए, जो सभी फसलों पर समान रूप से काम करे। तेलंगाना सरकार कृषि योग्य प्रति हेक्टेयर भूमि के हिसाब से 10,000 रुपये किसानों को दे देती है। बाजार के रुख के अनुसार फसल का चुनाव किसान पर छोड़ दिया जाना चाहिए। भारतीय कृषि को कठोर सरकारी नियंत्रण से मुक्त किए जाने की आवश्यकता है।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित प्रेरणा शर्मा सिंह के लेख पर आधारित। 11 जून, 2018

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