किसानों को स्वतंत्रता चाहिए।

Afeias
27 Apr 2017
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Date:27-04-17

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हमारे किसान जोरदार तरीके से तवज्जों दिए जाने की मांग लगातार कर रहे हैं। इसके लिए कभी वे आत्महत्याएं कर रहे हैं, कभी ऋण माफी की बात उठाते हैं, कभी मानव खोपड़ी लेकर जंतर-मंतर पर धरना देते हैं तो कभी प्रधानमंत्री कार्यालय के सामने अपनी कलाइयां काटते हैं। जब तक हम मौसम परिवर्तन के कारण ऊपज की बर्बादी या बाज़ार में लुढ़कते मूल्यों पर नियंत्रण नहीं कर पाते हैं, तब तक किसानों के लिए किए गए किसी भी प्रकार के राहत कार्य अल्पकालीन एवं अपर्याप्त ही सिद्ध होंगे।

किसानों को उनकी ऊपज का सही मूल्य दिलवाने के लिए आखिर कौन से उपाय करने की आवश्यकता है ?सबसे पहले हमें यह समझना होगा कि निर्माण और सेवा क्षेत्र की तरह कृषि मांग एवं पूर्ति के बीच स्वतः संतुलन नहीं बैठा पाता है। मूल्यों के बढ़ने पर किसान लाभ में रहता है, परंतु मूल्य गिरने पर वह आपूर्ति को कम नहीं कर पाता। कृषि में उपज का उत्पादन लगभग एक समान ही होता है। ऐसे समय में हमारा दायित्व है कि हम मांग बढ़ाएं और किसान की मेहनत पर पानी न फिरने दें। फिलहाल इस दृष्टिकोण की बहुत कमी है।

खाद्य पदार्थों के लगातार गिरते दाम इस बात का असली चेहरा दिखाते हैं। खाद्य मुद्रास्फीति की दर नवम्बर 16 में गिरकर अचानक 1.54% पर आ गई। इसके पीछे दाल, चावल सब्जी और फलों के दामों में गिरावट रही। हमारे देश में दाल ही प्रोटीन का मुख्य स्त्रोत है। इसकी मांग भी अधिक रहती है। लेकिन पिछली गर्मियों में इसकी मांग इतनी मूल्य-निरपेक्ष रही, जो किसानों के लिए बहुत हानिकारक थी।

दूसरे, पिछले एक दशक से बारिश की बदलती तस्वीर ने किसानों को बहुत हानि पहुंचाई है। मध्य भारत में अति वर्षा की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं।मानसून आधारित वर्षा की अनियमितता से निपटने के लिए किसान को (1) क्लाइमेट स्मार्ट तकनीकों में निवेश करना होगा, तथा (2) फसल का बीमा कराना होगा।ऐसा मशविरा देना आसान है। लेकिन सच्चाई यह है कि उत्तरप्रदेश का एक किसान 4,923रु. प्रति माह कमाता है, जबकि 6,230रु. प्रति माह खर्च करता है। बिहार और पश्चिम बंगाल के किसानों की भी यही स्थिति है। निर्माण योजनाओं एवं उद्योगों से होने वाली ग्रामीण आय बहुत ही सीमित है। कुल मिलाकर कीमतों के कम होने का लाभ उपभोक्ताओं को तो मिलता है, लेकिन उसके साथ ही भारत के नौ करोड़ किसानों को गरीबी, कुपोषण और अशिक्षा की बदहाली में जीने को मजबूर होना पड़ता है।

भारत में कृषि की लागत और आय की समस्या कोई नई नहीं है। अन्य देशों में इससे निपटने के लिए डायरेक्ट पेमेंट, राजस्व बीमा, सुरक्षित भंडारण और ऋण माफी जैसे साधन अपनाए जाते हैं। अमेरिका जैसे देश में मक्के की अतिरिक्त फसल को इथेनॉल नामक ईंधन बनाने के काम में ले लिया जाता है।हमें भी विदेशों की राह पर चलकर अपने किसानों को बचाना होगा। फिलहाल आपूर्ति कम होने पर हम उसे राष्ट्रीय हित में चुप लगाने की सलाह देते हैं, और मूल्य कम होने पर हम उसकी उपेक्षा कर देते हैं। ऐसे में उनकी दुर्दशा तो हर हाल में होनी ही है।इसी के उलट आपूर्ति अधिक होने के समय कंपनियां अपने बुरे समय के लिए लाभ एकत्रित कर लेती हैं। कृषि व्यवसाय को भी ऐसी ही आजादी दी जानी चाहिए। तभी यह लाभ का व्यवसाय बन पाएगा।

कुल खेती के उत्पादन में कभी और बेहतर बाज़ार सुविधाओं से विपणन मूल्य को कम करके नुकसान को कम किया जा सकता है। निर्यात में वृद्धि, बीज आपूर्ति, सौर ऊर्जा, ड्रिप सिंचाई, पशुपालन एवं सुरक्षित भंडारण के द्वारा खेतों को लाभ का व्यवसाय बनाया जा सकता है। निजी क्षेत्र को भी इसमें सहयोग देना होगा।हमारे किसान किन्हीं कारणों से युद्धरत हैं। वे बहुत समय से उपभोक्ताओं को सब्सिडी देने पर मजबूर किए जा रहे हैं। उनका असंतोष इसी का परिणाम है। कृषि को अब ऐसे बौद्धिक निदर्शन की आवश्यकता है, जो किसानों को अच्छी फसल के समय में ऊपज की कीमत तय करने की स्वतंत्रता दे, ताकि वे मांग और आपूर्ति के अपरिहार्य कुचक्र से निकल सकें।किसानों को सब्सिडी की नहीं, बल्कि पूंजी की आवश्यकता है। इसके लिए मूल्य तय करने की स्वतंत्रता ही वह खाद है, जो उन्हें पर्याप्त पोषण दे सकती है।

इकॉनॉमिक टाइम्स में प्रकाशित निधीनाथ श्रीनिवास के लेख पर आधारित।

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